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डायरी के पन्नों से ... "जब कभी अकेले में..."

     कहते हैं कि मनुष्य ताउम्र मन से तो युवा ही रहता है (अपवादों को छोड़कर) और यह सही भी प्रतीत होता है, लेकिन मैं अपनी जो कविता यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ, वह वास्तव में मेरे द्वारा उस समय लिखी गई थी, जब मैंने अपनी युवावस्था की दहलीज़ पर कदम रखा ही था। मैं समझता हूँ, मेरी यह कविता उम्र के उस दौर को परिभाषित करती हुई सी प्रतीत होगी आपको।








"जब कभी अकेले में..."



जब   कभी   अकेले  में  सनम,  याद  तुम्हारी  आएगी।

आँखों  से  नदिया  उमड़ेगी,  दिल  में  उदासी छाएगी।

‘जब कभी अकेले में…।’

मतवाला-सा किसी डाल पर, कलियों का मन डोलेगा।

दूर   कहीं   बाहर  से  आकर,   भौंरा  घूंघट  खोलेगा।

गाएगी   जब   भी   कोयलिया,  दूर   पपीहा   बोलेगा।

तब  मेरे अंतर  की चिड़िया,  चीखेगी,  शोर मचायेगी।

‘जब कभी अकेले में...।’

मन  में  छाई  करुण  कहानी, तन में  पीड़ा  भर देगी।

जब   मेरी   आँखों  में  आ  कर,  तेरी   मूरत  उभरेगी।

अनजाने  ही  मन  की  वीणा, अपनी  हालत  कह देगी।

तड़पन  के  इस  खेल  में  तब,  तुम्हारी  बारी  आएगी।

‘जब कभी अकेले में…।’

तुमने मुझसे प्यार किया था, इस को झूठ कहूँगा कैसे?

गम देकर तुम ख़ुशी मनाओ, यह भी सत्य सहूँगा कैसे?

जब तुम मिलोगी हर मोड़ पर, बोलो, मौन रहूँगा कैसे?

तुम बनी रहो, मैं मिट जाऊंगा, कहानी तो रह जाएगी।

‘जब कभी अकेले में…।’


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