सन् 1973 में अपने शब्द-पुष्पों से सृजित 'सरस्वती-वन्दना' से अपने ब्लॉग को अभिषिक्त कर रहा हूँ- अपने लिए, मित्रों के लिए एवं अन्य सुधि पाठकों के लिए! अब से यदा-कदा मैं अपनी उन पूर्व रचनाओं से पाठकों का परिचय कराऊँगा जो मेरी तत्कालीन डायरी में संगृहित हैं। और...और उसके बाद यदि मन-आँगन में कविता ने जन्म लिया, यदि लेखनी मुखरित हुई, तो मेरी नई रचनाओं (कविता) से रूबरू होंगे सभी पाठक-बन्धु।
प्रस्तुत कर रहा हूँ- 'सरस्वती-वन्दना' :-
"सरस्वती-वन्दना"
माँ, ऐसा वर दे ...!
हर मानव के मन-प्रांगण को, सुख-सुरभित कर दे।
माँ, ऐसा वर दे…!
मन के बाहर अमा-निशा है,
भीतर गहन अँधेरा।
सदियों से आतुर माँ, कैसे
पायें शुचि स्वर तेरा?
आर्त-विकल के उर-अंचल में, मधुर हास्य भर दे।
माँ, ऐसा वर दे…!
ठौर-तौर पर पाप बसा है,
क्या गंगा, क्या काशी!
आज व्यथित है, मात भारती,
भारत का हर वासी।
त्रस्त-ध्वस्त, मन-मस्तक पर, वरद हस्त धर दे।
माँ, ऐसा वर दे…!
आत्म-हन्ता स्वयं बने जो,
उनसे कैसी आशा?
पनप रही है मानव-मन में
केवल रक्त - पिपासा।
क्षुब्ध मन जीवन-कुण्ठा से, अब पुलकित कर दे।
माँ, ऐसा वर दे…!
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