सच कहना जितना कठिन होता है मित्रों, उससे भी कठिन होता है सच को स्वीकार करना।
मैं यहाँ मानवीय आचरण एवं पारस्परिक व्यवहार-विनिमय पर अपना दृष्टिकोण आपसे साझा करना चाहूंगा। सही या गलत का निर्णय आप अपने विवेक से करें।
हम लोग समाज (मित्रों, सम्बन्धियों व परिचितों का समूह ) में किसी व्यक्ति की ख़ुशी के अवसर पर भी सम्मिलित होते हैं तो उसके दुःखके
समय भी।
ख़ुशी के अवसरों पर सम्मिलित होने वाले व्यक्तियों में से कितने व्यक्ति निमंत्रणकर्ता (Host) की ख़ुशी में खुश होते हैं? मेरा आंकलन है, मुश्किल से 5 प्रतिशत। अन्य सभी आमन्त्रित महानुभावों का कार्य पार्टी एन्जॉय करने, मिलने-जुलने वालों से गप-शप करने तथा निमंत्रणकर्ता को भेंट (gift) देने तक सीमित होता है।
इसी प्रकार किसी के दुःख में शरीक होने वालों में से वास्तव में दुःख महसूस करने वाले लोग 15% के लगभग होते हैं, शेष व्यक्ति वही उपस्थिति दर्ज कराने वाले होते हैं। इन 15% में से भी सही मायने में दुःखी होने वाले तो 5% ही होते हैं और अन्य 10% ऐसे संवेदनशील लोग होते हैं जो दुःख से पीड़ित व्यक्ति के समकक्ष स्वयं को रखकर दुःख का अहसास करते हैं। एक गीत की निम्नांकित पंक्तियाँ इस सत्य को निरूपित करती हैं -
"कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त, सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया।"
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