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कीड़ा ही तो था...

      इन कीड़ों का कोई ईमान-धर्म नहीं होता। अब कल का वाक़या बताऊं आपको। श्रीमती जी ने आदेश दिया कि करेले सब्जी बनाने के लिए काट लो। बैठ गया करेले ले कर काटने के लिए। एक काटा, दूसरा काटा और तीसरे की अधफाड़ करते ही देखा तो अन्दर एक कीड़ा बिराजमान था। सोचा, इतने कड़वे करेले में कीड़ा कैसे हो सकता है, लेकिन वह जो भी था, हिल रहा था तो कीड़ा ही होगा न!     करेले के डंठल से कीड़े को करेले में बने उसके बंगले से धीरे से, लेकिन जबरन निकाला। नामाकूल अपने बंगले से बड़ी मुश्किल से निकला। बाद में जब देखा तो पाया कि उसने अपने बंगले के आसपास की जगह को गन्दा और तहस-नहस कर डाला था।      कीड़ा ही तो था...और करता भी क्या वह!

स्वच्छता अभियान (लघुकथा)

        मेरा शहर स्मार्ट सिटी बनने जा रहा था और इस कड़ी में अभियान को चलते एक वर्ष से कहीं अधिक समय निकल चुका था।        शहर के एक प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र की टीम ने स्वच्छता अभियान के तहत नए वित्त वर्ष में सर्वप्रथम स्थानीय कलक्टर कार्यालय के सम्पूर्ण परिसर की जाँच-पड़ताल की तो समस्त परिसर में गन्दगी का वह आलम देखा कि टीम के सदस्य भौंचक्के रह गये। कहीं सीढियों के नीचे कबाड़ का कचरा पड़ा था, तो कहीं कमरों के बाहर गलियारों की छतें-दीवारें मकड़ियों के जालों से अटी पड़ी थीं। एक तरफ एक कोने में खुले में टूटे-फूटे फर्नीचर का लम्बे समय से पड़े कबाड़ का डेरा था तो सीढियों से लगती दीवारों पर जगह-जगह गुटखे-पान की पीक की चित्रकारी थी। साफ़ लग रहा था कि महीनों से कहीं कोई साफ-सफाई नहीं की गई है।      समाचार पत्र ने अगले ही दिन अपने मुखपृष्ठ पर बड़े-बड़े अक्षरों में उपरोक्त हालात उजागर कर शहर की समस्त व्यवस्थाओं को सुचारू रखने के लिए ज़िम्मेदार महकमे की प्रतिष्ठा की धज्जियाँ उड़ा दी।      कहने की आवश्यकता नहीं कि मुखपृष्ठ पर नज़र पड़ते ही कलक्टर साहब की आज सुबह की चाय का जायका ही बिगड़ गया। अनमने ढंग

मैंने उसके बदन पर हाथ रखा! (प्रहसन)

    रास्ता कुछ ज्यादा ही तंग था। मैं अपना दृष्टि सुधारक यंत्र (चश्मा) घर पर भूल गया था और ऊपर से रात का अँधेरा गहरा आया था। स्कूटर की हैडलाइट ने भी अभी पांच मिनट पहले ही नमस्ते कर दी थी। नगर निगम इस इलाके में ब्लेक-आउट जैसी स्थिति रखता है सो बिजली की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। ऐसे में राह में आगे क्या-कुछ है, जानना बहुत सहज नहीं था....सो मंथर गति से चल रहा मेरा स्कूटर संभवतः किसी के शरीर से हलके से छू गया। घबराहट के मारे मेरे कान सतर्क हो गये कि अब कुछ न कुछ मेरे पुरखों का गुणगान होगा। लेकिन ऐसा कुछ न हुआ, शायद स्कूटर उसे न ही छुआ हो, मैंने सोचा।      अब भी स्कूटर को मैं धीरे-धीरे ही आगे बढ़ा रहा था क्योंकि वह बंदा, जो कोई भी था, जगह देने का नाम ही नहीं ले रहा था। अब मैं थोड़ा और सतर्क हो गया। अवश्य ही यह सिरफिरा, मगरूर शख्स, सत्ता-पक्ष या विपक्ष के किसी दबंग नेता का मुँहलगा प्यादा होगा और इसीलिए 'हम चौड़े, सड़क पतली' वाले अहसास के चलते इस अंदाज़ में बेफिक्र चल रहा था। गुस्सा तो ऐसा आ रहा था कि चढ़ा दूँ स्कूटर उसके ऊपर, किन्तु ऐसा करने का कलेजा कहाँ से लाता!       'साहब मेहरबान तो

'उदयपुर- हमारा स्मार्ट शहर!

         आज तक नहीं समझ पाया हूँ कि हमारे शहर उदयपुर को 'स्मार्ट शहर' बनाने के लिए क्यों नामजद किया गया है! हमारा उदयपुर तो प्रारम्भ से ही स्मार्ट है। राज्य-प्रशासन या केन्द्रीय शासन को यहाँ की स्मार्टनैस दिखाई नहीं दी- यही आश्चर्य की बात है। यहाँ कौन सी चीज़ स्मार्ट नहीं है?... शहर स्मार्ट बनता है अपने विन्यास से, निवासियों की जीवन-शैली से। यहाँ के स्थानीय प्रशासन से अधिक स्मार्ट तो यहाँ की जनता है और जब जनता ज़रुरत से ज्यादा स्मार्ट है तो प्रशासन अपना सिर क्यों खपाए! आखिर प्रशासन के नुमाइन्दों को अपना समय निकालते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा भी तो करनी है।  ... तो हमारे यहाँ की स्मार्टनैस की बानगी जो सभी शहरवासियों ने देख रखी है, वही फिर दिखाना चाहूँगा।     सर्वप्रथम यातायात-व्यवस्था की बात करें। यातायात के नियम यहाँ भी वही हैं जो सब शहरों में होते हैं। शहर में यातायात को माकूल रखने के लिए चौराहों पर कहीं-कहीं इक्का-दुक्का सिपाही तैनात हैं। यदि दो-तीन सिपाही एक ही जगह हैं तो उनका ज्यादातर समय आपस में बातचीत में गुज़रता है और यदि एक ही है तो कुछ एलर्ट रहकर आते-जाते वाहनों को द

दोषपूर्ण प्रशिक्षण

   ऐसी गलती प्रशिक्षु IPS अधिकारी से नहीं होती, यदि सही ट्रेनिंग इन्हें मिली होती। दोषपूर्ण प्रशिक्षण ही इस प्रकार के आचरण का जिम्मेदार है कि इस अधिकारी ने रुतबे वाले बड़े आदमियों पर हाथ डालने की जुर्रत कर दी थी। क्यों नहीं पदस्थापन के पहले इनको बताया गया कि समय देखकर ज़माने के हिसाब से अपने विवेक का प्रयोग कर काम करना होगा! क्यों नहीं इन्हें समझाया गया कि ड्यूटी के दौरान अतिउत्साह दिखाना इनको भारी पड़ सकता है! इसी तरह की अपनी दोषपूर्ण कार्यप्रणाली के लिए पूर्व में प्रताड़ित किये गये, दण्डित किये गये अन्य अधिकारियों के दृष्टान्त वाले पाठ इनके पाठ्यक्रम में रखे गये होते तो शायद इन्हें सही ढंग से काम करना आ जाता। व्यावहारिक ज्ञान की कमी के कारण ही इन्हें एपीओ होने का दंड मिला है। इनको कहाँ मालूम था कि सरकारी काम करने के दौरान कई बार अपनी आँखें बंद कर लेनी पड़ती हैं!          इन्हें एपीओ करने का आदेश देने वाले अधिकारी, संयुक्त शासन सचिव, जो आज बड़े अधिकारी हैं, ने भी अपनी सरकारी नौकरी के कार्यकाल में न जाने कितनी बार ऐसी स्थितियों को भोगा होगा और अब वह घुट-घुट कर महादेव बने हैं। एपीओ करने

नोटबंदी की वर्ष-गाँठ

नोटबंदी की वर्ष-गाँठ - अन्वेषण व समीक्षा :-     तीन बिन्दु- 1) कितना काला धन सरकार के पास आया ? आया भी

शर्म के कारण...

       फेसबुक की संरचना से पहले की बात -       पत्नी को जब पति की तारीफ करनी होती थी तो शर्म के कारण सीधे नहीं कहकर बच्चे को कहती थी - 'आज तुम्हारे पापा कितने अच्छे लग रहे हैं!' और बच्चा पापा को बता देता - 'पापा-पापा, मम्मी कह रही हैं कि आप आज बहुत अच्छे लग रहे हो।' यही तरीका पति भी काम में लेता था।     शर्म तो अब भी खूब लगती है, लेकिन फेसबुक होने से तारीफ करने के लिए पति-पत्नी को अब बच्चे पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। सामने ही बैठे पति ने जैसे ही फेसबुक में अपनी फोटो पोस्ट की तो झट से पत्नी ने अपनी फेसबुक ओपन कर, फोटो को लाइक किया और नीचे कमेंट चिपका दिया - 'Nice click, बहुत अच्छे लग रहे हो।' 

वर्ष में एक बार ही क्यों ?

     आज सुबह-सवेरे बाज़ार निकलना हुआ। सड़क पर वाहनों का लगभग जाम ही लगा हुआ था। आगे जाकर पता लगा, दो-ढाई माह से जो सड़कें टूटी-फूटी पड़ी थीं, उनकी सुध ली गई है, सुधारा जा रहा है। मन आश्वस्त हुआ कि चलो अब सड़क पर रीढ़ की हड्डी पर बिना जर्क खाए वाहन चलाया जा सकेगा, किसी के वाहन भी अब नहीं गिरेंगे।      जहाँ यह विचार चल रहां था, एक और विचार  दिमाग में उभर आया। अभी सुधारी जाने के बाद वर्षा ऋतु के उपरान्त  इन सड़कों का पुनः उद्धार किया जायगा और यह सिलसिला यथावत यूँ ही हर वर्ष चलता रहेगा। सड़क का काम करवाने वाली सरकारी/ गैरसरकारी संस्थाओं को इस तरह का यह काम वर्ष में केवल एक बार मिलता है। अब बारिश पर तो कोई वश है नहीं क्योंकि वह वार्षिक क्रम से ही आती है, लेकिन यदि सड़क-निर्माण की गुणवत्ता को थोड़ा और कमज़ोर करवा दिया जाय तो इन संस्थाओं को वर्ष में एक से अधिक बार काम मिल सकेगा। 

अब मैं भी क्या कहता...

    मुझे एक समाज-सेवक ने शहर के कारागृह में भेज दिया। उससे पहले उसने कारागृह के जेलर को अच्छी तरह ताक़ीद कर दी थी कि वह मेरे साथ अच्छा व्यवहार करे तथा जेल की व्यवस्था सम्बन्धी सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाए। समाज-सेवक मेरा तो परिचित था ही, जेलर का भी अच्छा मित्र था। मेरी जिज्ञासा के अनुरूप जेलर ने कैदियों की सभी कोठरियाँ दिखाईं। एक कोठरी कुछ बड़ी और साफ-सुथरी थी तथा विशेष सुविधाओं से युक्त थी। इसमें पांच बिस्तर थे, जिनमें से तीन पर तीन कैदी लेटे हुए हंस-हंस कर बतिया रहे थे और सामने ही एक मेज पर रखे टीवी पर चल रहे कार्यक्रम को भी देख रहे थे।     यह नज़ारा देख कौतुहलवश जेलर से पूछा कि इस कोठरी में कैदियों को इतनी सुविधाएँ क्यों मिल रही हैं तो उसने जवाब दिया कि यह कोठरी उसके परिचितों के लिए आरक्षित है। मुझे यह जानकर कुछ हैरानी हुई पर कुछ प्रतिक्रिया दिए बिना ही जेलर को धन्यवाद कह कर लौट आया।     दो दिन बाद वही समाज-सेवक मुझे एक सरकारी अस्पताल में ले गया। वहाँ एक वरिष्ठ डॉक्टर के वॉर्ड में गए तो देखा कि तीन पलंगों के अलावा सभी पलंगों पर रोगी थे और दो रोगी वॉर्ड में फर्श पर लगे बिस्तर पर सोय

पदस्थापन हेतु विज्ञप्ति :-

   निम्नांकित पद के लिए उत्साही युवाओं के आवेदन आमन्त्रित हैं - पद नाम -  आतंकवादी पदों की संख्या -  असीमित अनुभव -  आग्नेयास्त्र चलाने में दक्षता। अनुभव नहीं होने पर भी आवेदन स्वीकार्य, यदि प्रार्थी होनहार है। (तीव्र राष्ट्र-द्रोह की भावना रखने वालों को प्राथमिकता) कार्यक्षेत्र -  सम्पूर्ण भारतवर्ष वेतन -  मनचाहा (पाकिस्तान के सौजन्य से मिलेगा) अन्य लाभ (हिन्दुस्तान से मिल सकेंगे) - 1) पेन्शन स्वरूप मरणोपरान्त एक मुश्त राशि,  2) शहीद का दर्जा भी मिल सकता है (यदि प्रार्थी का कोई रहनुमा हुआ तो)।   इच्छुक आवेदक साक्षात्कार हेतु अविलम्ब मंत्रालय, जम्मू-कश्मीर सरकार,  ;) श्रीनगर  में उपस्थित हों। नोट - सफल अभ्यर्थी को आने का इकतरफा किराया-खर्च देय होगा। (राजस्थान पत्रिका, दि. 14 -12 -2016 में छपी इस खबर से प्रेरित)

यही तो है गीता का ज्ञान ...

क्या लेकर आया था, क्या लेकर जायेगा ? जो आज तेरा है वह कल किसी और का होगा। इसलिए हे प्राणी! तू कल की चिंता छोड़ दे! बैंक में तेरे पास कितना रुपया है यह भूल जा और जितना आज मिल रहा है (या नहीं मिल रहा है), उसी को अपना भाग्य समझ! भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था कि कलियुग में वह 'कल्कि' अवतार लेंगे। तो अपने ज्ञान-चक्षु खोलो मित्रों, 'कल्कि' अवतार हो चुका है।

पाकिस्तान के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही

उरी (कश्मीर) में सैन्य शिविर पर अभी हुए आतंकी हमले में 17 जवान शहीद हो गए। निरन्तर हो रहे अनुत्तरित प्रहारों के आघात से देश की आत्मा कराह उठी है, देश का जन-मानस उद्वेलित है। वतन की रक्षा के लिए तैनात फौजियों की फड़कती भुजाएँ पैरों में पड़ी बेड़ियों के हटने कीे प्रतीक्षा कर रहीं हैं, लेकिन हमारे राजनैतिक कर्णधार दिशाविहीन हैं... फिर भी जन-आक्रोश को देखते हुए एक उच्चस्तरीय बैठक में पाकिस्तान के सिरुद्ध कड़ी कार्यवाही के लिए विचार-विमर्श हुआ है। लगता है इस बार पाकिस्तान की शामत आ गई है और...और उसे हमारी ओर से अब तक के सबसे कड़े शब्दों के प्रहार को झेलना होगा।

हमें यह जानने की आवश्यकता है...

ऑस्ट्रेलिया-भारत महिला हॉकी मैच! मैच आज सायं 7. 30 बजे प्रारम्भ हुआ। ऑस्ट्रेलिया ने इकतरफा अंदाज़ में गोल करना शुरू किया- एक...दो...तीन...चार...पाँच और फिर मैच समाप्त होने के कुछ मिनट पहले छठा गोल! निरीह भारतीय टीम बदहवास सी हो उठी थी। केवल तीसरे क्वार्टर में ही हमारी टीम कुछ संघर्ष दिखा सकी थी। पूरे मैच में जैसे ही 'डी' के पास हमारी कोई फॉरवर्ड पहुंचती, या तो विपक्षी द्वारा बॉल छीन ली जाती या उसको सहयोग देने के लिए कोई एकाध साथी खिलाड़ी ही वहां मौज़ूद दिखाई देती थी। सफलता मिलती भी तो कैसे? न तो सही पास देना हमारी खिलाडियों के बस का दिख रहा था और न ही विपक्षी खिलाड़ियों जैसा स्टेमिना ही इनमें था। छठा गोल होने के बाद मैच की समाप्ति से लगभग 15 सेकण्ड पहले कातर स्वरों में मैं ऑस्ट्रेलियन टीम से कह पड़ा- 'रहम...रहम ! रहम करो हमारी टीम पर, एक गोल तो करने दो हमें अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए !' और तब जाकर उन्होंने एक गोल करने दिया हमारी टीम को मैच-समाप्ति के 8 सेकण्ड पहले। अब जाकर टीम इण्डिया के फीके चेहरे पर थकी-थकी मुस्कान की एक रेखा झलकी। न...न...न.....!  सारा दोष खिलाड़ियों

मेरे शहर के मवेशी

शहर की यातायात व्यवस्था को दुरुस्त रख रहे हैं मेरे शहर के मवेशी। उन छोटे-छोटे चौराहों-तिराहों पर जहाँ यातायात-कर्मी नहीं होते हैं, मवेशी बीचों-बीच बैठकर दाएं-बाएं का यातायात व्यवस्थित रखते हैं और कहीं-कहीं तो सड़क के बीच कतार में खड़े हो कर या बैठ कर बाकायदा डिवाइडर भी बनाये रखते हैं। सड़कों पर बेतहाशा दौड़ रहे वाहनों की तीव्र गति को सीमित करने के लिए यदा-कदा यह मवेशी सड़कों पर इधर-उधर टहलते भी रहते हैं। प्रशासनिक अधिकारी भी सन्तुष्ट हैं संभवतः यही सोच कर कि यातायात-व्यवस्था की देख-रेख में इतनी मुस्तैदी तो यातायात-कर्मी भी नहीं दिखा पाते हैं। तो दोस्तों, आओ और देखो हमारे शहर की इस सुव्यवस्था को... 'दो दिन तो गुज़ारो हमारे शहर में ***********

मज़ाक बना रखा है...

    सरकार में मंत्री और ऐसे ही अन्य पद ग्रहण करते समय तथा अदालतों में फरयादी और मुल्जिम द्वारा ईश्वर के नाम पर ली जाने वाली शपथ की उपयोगिता मेरी समझ में तो नहीं आती। दोनों ही मामलों में अधिकांश लोगों के द्वारा झूठी और केवल झूठी शपथ ली जाती है और ऐसा झूठ बाद में प्रमाणित हो जाने पर भी झूठ बोलने के लिए कोई सजा नहीं दी जाती। ऐसी शपथ हास्यास्पद ही नहीं, पाप की श्रेणी में आती है।    बेहतर तो यह है कि शपथ में तो कम से कम सच्चाई रहे और इसके लिए शपथ का प्रारूप निम्नानुसार होना चाहिए - " मैं ईश्वर के नाम पर शपथ लेता / लेती हूँ कि मैं जो कुछ कहूंगा / कहूँगी अथवा करूँगा / करुँगी वह केवल और केवल मेरे और मेरे परिवार के हित के लिये होगा ( देश, समाज और मानवता जायें गुइयाँ के खेत में )।"

आखिर कब तक...?

 प्रिय संपादक जी,   हर बात को इतनी गंभीरता से क्यों लेते हैं आप? जब आप जानते हैं कि हमारे यहाँ सांप निकलने के बाद लाठी पीटी जाती है तो मान भी लीजिये न कि ऐसा ही होता आया है और ऐसा ही होता रहेगा। आप भी नेताओं की तरह से अपनी चमड़ी मोटी क्यों नहीं कर लेते?  गृह मंत्रालय यदि दावा करता रहा है कि बिना इज़ाज़त परिन्दा भी पर नहीं मार सकता तो उसका दावा ग़लत कहाँ है? परिन्दों ने तो वाकई कोई आतंकी वारदात नहीं की, वारदात करने वाले तो वह नामाकूल विदेशी इन्सान थे। अलावा इसके यदि गृहमंत्री जी ने यह कहा कि अगर पडोसी देश के वहां से एक भी गोली चली तो हम अपनी गोलियाँ नहीं गिनेंगे, तो इसमें भी ग़लत क्या कहा है? अरे भाई, हम अपनी तरफ से आगे बढ़कर गोली चलाएंगे तो ही तो गिनेंगे न! हमें तो दुनिया में अपने -आप को अच्छा साबित करना है सो यही कोशिश करे जा रहे हैं...।  रहा सवाल शहीदों का तो हमारे यहाँ शहीद होने के लिए जवानों की क्या कमी है, हमारी जनसंख्या के हिसाब से तो चिंता की ज़रुरत ही नहीं है। हमारे एक-एक नेता के लुभावने भाषणों से हजारों जवान अपने प्राण न्यौछावर करने आगे बढे चले आते हैं। बाद में उनके निर्जीव शरीरों

लो... निकल गया वह

   लो... निकल गया वह      थानेदार की गश्त के दौरान एक चोर ने जमकर चोरी की। थानेदार का तबादला हो गया और नया थानेदार आया। जनता, मीडिया, आदि ने नए थानेदार को सूचना दी। नया थानेदार मुँह फेरकर खड़ा हो गया और चोर भाग गया। लोग तो लोग हैं, पानी पी-पी कर अगले-पिछले दोनों थानेदारों को गालियां दे रहे हैं।     हमें जहाँ तक जानकारी है चोर न तो तैरना-उड़ना जानता था (उड़ाता ज़रूर था) और न ही मिस्टर इण्डिया था, तो भाई, ज़रूर जमीन में सुरंग खोदकर भागा होगा वह। तो ..... तो भाइयों! अब तो लकीर पीटते रहिये, सांप तो निकल चुका है।    ...... श्श्श्श! ...  सुना है चोर की दोनों थानेदारों के साथ अच्छी घुटती थी।    छोड़िये न, अभी तो ऐसे कई चोर मौज़ूद हैं ..... उन्हें हम भी देख रहे हैं और थानेदार भी। 

अगर यह 'ख़ून' होता...

   कितना अराजक है यह शासनतंत्र और कितने बेपरवाह हैं कानून-रक्षक कि वर्षों से जनता को बेवकूफ़ बना कर blood test के नाम पर ठगने वाली व्यावसायिक प्रयोगशालाओं पर प्रतिबन्ध नहीं लगा रहे हैं। हमारे ख़ून की जाँच में यह प्रयोगशालाएं RBC count बताती हैं, haemoglobin बताती हैं, blood group बताती हैं और भी कई प्रकार के टेस्ट करने का ढोंग करती हैं, लेकिन जिसे 'ख़ून' का नाम देकर जाँच की जाती रही है, वह 'ख़ून' कहाँ है ? अगर यह 'ख़ून' होता तो निर्भया बलात्कार/हत्याकाण्ड के मामले में बालिगों वाला कृत्य करने वाले नाबालिग अपराधी की रिहाई की बात सुनते ही उबल न पड़ता ? 

'असहिष्णुता'

          मुझे हिंदी भाषा का बहुत अधिक ज्ञान नहीं है और न ही शब्दकोषों को अधिक टटोलने का कभी शौक रहा है, लेकिन आजकल बहुत ही अधिक चर्चा में आये शब्द 'असहिष्णुता' को लेकर मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा कि शायद इस शब्द ने कुछ चन्द दिनों पूर्व ही शब्दकोष में स्थान पाया है और जाहिलों से लेकर विद्वजनों (साहित्यकार,आदि) तक की जुबाओं पर नाच रहा है, अन्यथा तो वर्षों पहले पूरा शब्दकोष ही इस शब्द 'असहिष्णुता' से भर जाता, जब -     1) कश्मीर में कश्मीरी पण्डित-परिवारों पर अमानवीय जुल्म ढाए गए थे और उन्हें बेइज़्ज़त कर कश्मीर से बाहर              खदेड़ दिया गया था।  (आज तक वह अपने पुश्तैनी आशियानों से महरूम हैं।)     2) दाऊद और उसके गुर्गों ने बम-विस्फोटों द्वारा मुम्बई में लाशों के ढेर बिछा दिए थे। 

छोटी सोच छोड़ो ...

  'अनाज महँगा, दालें महँगी, सब-कुछ महँगा …अच्छे दिन नहीं आये अभी तक, मोदी जी ने गच्चा दे दिया, फरेब किया हमारे साथ'- यह कह-कह कर मोदी जी को कोसने वाले अपनी बुद्धि का प्रयोग क्यों नहीं करते?    भैया जी, अपनी छोटी सोच छोड़ो और और आँखें खोल कर बाहर झांको! देखो, सोना कितना सस्ता हो गया है! कुछ ही महीनों में सात हज़ार रू. तक की कमी आ चुकी है इसके भाव में। जरा-सी होशियारी लगाओ और फिर देखो महँगाई कहाँ अड़ती है! करना केवल यह है कि अभी दाल-सब्जी खाना बिल्कुल बंद कर दो और दस-बीस तोला सोना खरीद लो। अगले आम चुनावों के कुछ पहले जब दाल, सब्जी, प्याज़, वगैरह सस्ते हो जाएँ तब खा लेना मज़े से, कौन रोकता है!