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आखिर कब तक...?

 प्रिय संपादक जी,   हर बात को इतनी गंभीरता से क्यों लेते हैं आप? जब आप जानते हैं कि हमारे यहाँ सांप निकलने के बाद लाठी पीटी जाती है तो मान भी लीजिये न कि ऐसा ही होता आया है और ऐसा ही होता रहेगा। आप भी नेताओं की तरह से अपनी चमड़ी मोटी क्यों नहीं कर लेते?  गृह मंत्रालय यदि दावा करता रहा है कि बिना इज़ाज़त परिन्दा भी पर नहीं मार सकता तो उसका दावा ग़लत कहाँ है? परिन्दों ने तो वाकई कोई आतंकी वारदात नहीं की, वारदात करने वाले तो वह नामाकूल विदेशी इन्सान थे। अलावा इसके यदि गृहमंत्री जी ने यह कहा कि अगर पडोसी देश के वहां से एक भी गोली चली तो हम अपनी गोलियाँ नहीं गिनेंगे, तो इसमें भी ग़लत क्या कहा है? अरे भाई, हम अपनी तरफ से आगे बढ़कर गोली चलाएंगे तो ही तो गिनेंगे न! हमें तो दुनिया में अपने -आप को अच्छा साबित करना है सो यही कोशिश करे जा रहे हैं...।  रहा सवाल शहीदों का तो हमारे यहाँ शहीद होने के लिए जवानों की क्या कमी है, हमारी जनसंख्या के हिसाब से तो चिंता की ज़रुरत ही नहीं है। हमारे एक-एक नेता के लुभावने भाषणों से हजारों जवान अपने प्राण न्यौछावर करने आगे बढे चले आते हैं। बाद में उनके निर्जीव शरीरों को तोपों की सलामी दी जाती है, उन्हें शहीद का दर्जा मिलता है और फिर हर शहीद-दिवस पर उनको याद भी तो किया जाता है...और क्या चाहिए उनको! अरे, एक बात तो जेहन से निकल ही गई, उन शहीदों के आश्रितों को पैसे भी तो बांटे जाते हैं।   सो, सम्पादक जी! नेता मस्त हैं, सारी जनता मस्त है...आप भी मस्त रहिये, टेन्शन मत लीजिये।  

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मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार  आएगी  कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा  मेरा  जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

बेटी (कहानी)

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