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संस्कार (लघुकथा)

                 विपुल से विदा ले कर अर्चना घर पहुँची। दोपहर हो गई थी। उसके मम्मी-पापा लीविंग रूम में बैठे थे। उसकी मम्मी एक पत्रिका पढ़ रही थी और पापा किसी केस को देखने में व्यस्त थे। वह सीधी पापा के पास गई और अपने हाथ में पकड़ा स्टाम्प पेपर उनके सामने रख दिया।  “क्या है यह? कहाँ गई थी तू?”, कहते हुए योगेश्वर प्रसाद ने स्टाम्प पेपर को उठा कर ध्यान से देखा और पुनः  बोले- "यह क्या है अर्चू? तू कोर्ट मैरिज कर रही है?... देख लो शारदा, अपनी बेटी की करतूत!" शारदा ने चौंक कर अपने पति की ओर देखा और फिर अर्चना की तरफ आश्चर्य से देखने लगीं।  "पापा, मैं कोर्ट से आ रही हूँ। आप मेरी शादी आशीष से करना चाहते हैं, जबकि विपुल उससे कहीं अधिक अच्छा लड़का है। वह पढ़ने में अच्छा है, स्वभाव से भी अच्छा है और एक चरित्रवान लड़का है। वह गरीब घर से है पापा, पर इसमें उसका तो दोष नहीं है न! आशीष पैसे वाले घर से सम्बन्ध अवश्य रखता है, किन्तु व्यक्तित्व में वह विपुल के आगे कहीं नहीं ठहरता। और फिर पापा, मेरी तक़दीर तो आपने नहीं लिखी है न? आपने अपने हिसाब से मेरी शादी पैसे वाले घराने में कर भी दी और फिर भी

विधर्मी (लघुकथा)

    हमारी भारतीय संस्कृति व हिन्दू धर्म की महान विरासत को कलंकित करने वाली कुछ लोगों की रूढ़िवादी सोच पर प्रहार करती मेरी यह लघुकथा!                                                                             *****                                                                                              एक सप्ताह से गम्भीर रक्ताल्पता के रोग के कारण अस्पताल के जनरल वॉर्ड में भर्ती वृद्धा विमला देवी के बैड के पास रखी बैंच पर उनका पुत्र मोहित व पुत्रवधु रोहिणी, दोनों बैठे थे। विमला जी सोई हुई थीं, सो पति-पत्नी परस्पर वार्तालाप में मग्न थे। सहसा विमला जी की नींद खुली और कराहते हुए उन्होंने पीने के लिए पानी माँगा। मोहित ने उठ कर टेबल पर रखी बोतल उठाई, किन्तु उसमें पानी नहीं था। तुरंत ही वह नई बोतल लेने के लिए बाहर निकला। विमला देवी को बहुत तेज प्यास लग रही थी। कुछ क्षण तो उन्होंने सब्र रखा, लेकिन प्यास के मारे गला शुष्क हो जाने से उनकी घबराहट बढ़ गई। बेचैनी के मारे वह कराहने लगीं।     पास वाले बैड पर सो रहे मरीज के पास बैठा एक युवक, जो यह सब देख-सुन रहा था, अपनी पानी की बोतल रोहिणी को दे क

'महरी' (लघु कथा)

                                                            नंदिनी ने बाहर की तरफ का एक कमरा एक साल से घर की महरी जमना को दे रखा था। जमना के काम से नंदिनी बहुत खुश थी। आठवें दर्जे तक शिक्षित जमना का पति चार कि.मी. दूर अपने गाँव में मजदूरी करता था। जमना सप्ताह के छः दिन नंदिनी के यहाँ रहती थी और एक दिन अपने पति के साथ रहने के लिए गाँव चली जाती थी। वह एक दिन भी नंदिनी के लिए पहाड़ बन जाता था, क्योंकि जमना के होते नंदिनी को घर का पत्ता भी नहीं हिलाना पड़ता था। कल सुबह जब जमना ने अपने पति की बीमारी का कारण बता कर दो माह की छुट्टी चाही, तो नंदिनी को बहुत अखरा था। उसने नाराज़ होकर उसका हिसाब चुकता कर कह दिया था- "तुम अपने  पति को सम्हालो, मैं दूसरी महरी रख लूंगी।"     जमना नंदिनी की ओर देखती रह गई थी और उदास स्वर में बोली थी- "जैसी आपकी इच्छा मेमसाब, अब घरवाला बीमार हो तो उसको तो सम्हालना ही पड़ेगा न! हम दोनों के अलावा और कोई घर में है भी तो नहीं जो उनकी तीमारदारी करे। मैं कल आकर मेरा सामान ले जाऊँगी।", यह कह कर वह अपने गाँव चली गई थी।    नंदिनी उसके काम से इतनी संतुष्ट थी कि

'परिवर्तन' (लघुकथा)

                  X-पार्टी की पराजय के बाद एक सप्ताह पहले Y-पार्टी की सरकार बन गई थी।    X-पार्टी का कार्यकर्त्ता (अपनी ही पार्टी के एक छुटभैये नेता से)- "भाई साहब, एक बहुत ज़रूरी काम आन पड़ा है। ज़रा नेता जी से आपकी सिफारिश करवानी थी।" छुटभैया- "सॉरी भाई, आत्मा की आवाज़ पर अभी तीन दिन पहले मैंने Y-पार्टी जॉइन कर ली है। अब मेरी बात तुम्हारी X-पार्टी में कोई नहीं मानने वाला।"  "अरे भाई साहब, Y-पार्टी के नेता जी से ही तो सिफारिश करनी है। मैं भी Y-पार्टी में ही हूँ, कल मैंने भी इस पार्टी की सदस्यता ले ली थी। X-पार्टी में तो मेरा दम घुट रहा था।"                                                                              *****

'गीता-ज्ञान' (लघुकथा)

                                                तीन दिन पहले की ही बात है, जब मैंने गुरुवार को सुबह-सुबह चाय पीते वक्त अख़बार में चन्द्र  प्रकाश के बेटे अवधेश का चयन राजस्थान की रणजी टीम में हो जाने की खबर पढ़ी थी। मुझे यह तो पता था कि अवधेश क्रिकेट का बहुत अच्छा खिलाड़ी है, किन्तु प्रतिस्पर्धा व वर्तमान सिफारिशी दौर में बिना लाग-लपेट वाले किसी बन्दे का चयन हो जाना इतना सहज भी नहीं होता। चंद्र प्रकाश एक निहायत सज्जन किस्म का व्यक्ति है और उसका बेटा अवधेश भी खेलने के अलावा क्रिकेट-राजनीति से कोई वास्ता नहीं रखता था, अत; उसका चयन मेरे लिए आश्चर्य का कारण बन रहा था। बहरहाल उसका चयन हुआ है, यह तो सच था ही, सो मैंने चाय के बाद फोन कर के बाप-बेटा दोनों को बधाई दे दी थी।    फोन पर तो उन्हें बधाई दे दी थी, किन्तु मैं चन्दर (चंद्र प्रकाश को मैं 'चन्दर' कहता हूँ😊) के चेहरे पर ख़ुशी की रेखाएँ देखने को आतुर था। ख़ुशी में जब वह मुस्कराता है, तो बहुत अच्छा लगता है। सोचा- 'आज चन्दर के घर जा कर एक बार और बधाई दे आता हूँ, कई दिनों से मिलना नहीं हुआ है तो मिलना भी हो जाएगा और गप-शप भी हो जाएगी।

विकल्प (लघुकथा)

                                                                    अस्पताल के वॉर्ड में एक बैड पर लेटे वृद्ध राधे मोहन जी अपने पुत्र का इन्तज़ार कर रहे थे।  बारह पेशेंट्स के इस वॉर्ड में अभी केवल चार पेशेंट्स थे, जिनमें से एक की आज छुट्टी होने वाली थी। उन्हें संतोष था कि वॉर्ड में शांत वातावरण था और स्टाफ भी चाक-चौबंद किस्म का था। नर्स दो बार आ कर गई थी और कह रही थी कि अगर आधे घंटे में इंजेक्शन नहीं आया तो उनकी जान को खतरा हो सकता है। 'पता नहीं कब आएगा मानव? अब तक तो उसे आ जाना चाहिए था', वह चिन्तित हो रहे थे। उसी समय नर्स वापस आई और राधे मोहन जी को एक इंजेक्शन लगा कर बोली- "इंजेक्शन आने में देर रही है तो डॉक्टर ने अभी यह लाइफ सेवर इंजेक्शन लगाने के लिए बोला है। अब वह आप वाला इंजेक्शन एक घंटे के बाद लगेगा।      पाँच-सात मिनट में मानव आ गया। उसने डॉक्टर के पास जा कर बताया कि इंजेक्शन आ गया है। डॉक्टर ने कहा- "ज़रूरी होने से मैंने एक और इंजेक्शन फ़िलहाल लगवा दिया है। अब यह इंजेक्शन एक घंटे बाद ही लग सकेगा। आप इसे अभी अपने पास ही रखिये।"    मानव ने इंजेक्शन अपने पापा

फ़ैसला (लघुकथा)

                                                                 जज साहब अभी तक कोर्ट में नहीं आये थे। आज आखिरी तीन गवाहियाँ होनी थीं। आज से पहले वाली तारीख में दो गवाहियां हो चुकी थीं।     कोर्ट में बैठे वकील विजेन्द्र सिंह विशाखा को धीमी आवाज़ में समझा रहे थे- "विशाखा जी, बहुत सावधानी से बयान देने होंगे आपको। मैंने सुलेखा के पड़ोसी चैनसुख जी को कुछ पैसा दे कर उनके द्वारा पुलिस में दिया बयान बदलने के लिए राजी कर लिया है। अब केवल आपके बयान ही होंगे जो अभिजीत को निर्दोष साबित कर सकेंगे। सरकारी वकील बहुत होशियार है। वह हर पैंतरा इस्तेमाल करेगा, बस आपको मज़बूत रहना होगा।"    "हाँ जी, मैं सोच-समझ कर जवाब दूँगी।" -विशाखा ने जवाब दिया।    विशाखा के पास में ही उनके पति कमलेश व बेटी सोनाक्षी बैठे थे। कमलेश अपनी भावुक व पढ़ी-लिखी पत्नी के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त थे। अभिजीत की बहिन सोनाक्षी गुमसुम बैठी थी व कटघरे में खड़े अपने इकलौते भाई की रिहाई के लिए ईश्वर से मन ही मन प्रार्थना कर रही थी।    जज साहब आये और कोर्ट की कार्यवाही शुरू हुई।    पहले गवाह चैनसुख सरकारी वकील की जिरह क

जीवन-दर्शन (लघुकथा)

                                                           यात्रियों से लबालब भरी बस मंथर गति से अपने गन्तव्य की ओर बढ़ रही थी। कुछ दिन से निरन्तर हो रही वर्षा के कारण सड़क ऊबड़खाबड़ हो गई थी और कोई वैकल्पिक मार्ग नहीं होने से इसी मार्ग से यात्रा करना सब की विवशता थी। छोटी दूरी के यात्री बीच में अपना-अपना गाँव आने पर उतर जाते थे, किन्तु लम्बी दूरी के यात्री बस की धीमी गति से परेशान हो रहे थे। उन्हें भली-भाँति पता था कि इस रास्ते पर अधिक तेज़ गति से गाड़ी चलाना बहुत मुश्किल था, फिर भी किसी विशेष प्रयोजन से यात्रा कर रहे कुछ यात्री तथा कुछ उतावली प्रवृत्ति के लोग बार-बार कण्डक्टर व ड्राइवर से गाड़ी कुछ तेज़ चलाने के लिए आग्रह कर रहे थे। इन लोगों के बारम्बार कहने के उपरान्त भी ड्राइवर अपने ही ढंग से गाड़ी चला रहा था।     यात्री-मानसिकता होती ही ऐसी है कि हर कोई जैसे उड़ कर अपने इच्छित स्थान पर पहुँच जाना चाहता है। सम्भवतः ऐसी ही मनोवृत्ति के चलते ड्राइवर के पास केबिन में बैठे तीन यात्रियों में से एक व्यक्ति ने उद्विग्न हो कर ड्राइवर से पूछा- "ड्राइवर सा'ब! आप गाड़ी थोड़ी तेज़ क्यों नहीं चलाते

कड़वा सच (लघुकथा)

                               छुट्टी होने पर ऑफिस से घर लौटते हुए देखा, राह में किसी एक्सीडेंट के कारण भीड़ लगी हुई थी। बाइक एक ओर खड़ी कर मैं भी वहाँ का माज़रा देख रहा था कि अनायास ही पास में ही फुटपाथ पर पुराने कपड़े बेचने वाले दुकानदार के सामान पर नज़र पड़ गई। मुझे वहाँ पर अन्य कपड़ों के बीच ठीक वैसा ही स्वेटर नज़र आया जैसा मैंने सुबह घर की गली के बाहर बैठे भिखारी को दिया था। मैंने कपड़े बेचने वाले से पूछा तो उसने बताया कि एक भिखारी यह स्वेटर आज ही उसे बेच कर गया है।   'तो ऐसा काम करते हैं यह भिखारी! वह तो दस रुपये ही माँग रहा था, पर सर्दी से काँपते देख कर मैंने तो उसे अपना स्वेटर ही दे दिया था। ऐसे लोगों पर दया दिखाना फिज़ूल है।' -झुंझलाते हुए घर की ओर चल दिया।  गली के मोड़ पर वह भिखारी उसी स्थान पर बैठा मिला।    उसके पास जा कर मैं क्रोध में बरसा- "तुम लोगों पर क्या दया करना? मैंने सुबह तुम्हें स्वेटर दिया और आज ही तुम उसे बेच आये।"  "शरीर की ठण्ड तो सहन हो जाती है बाबूजी, मगर पेट की आग बर्दाश्त नहीं होती। भीख नहीं मिलने से मुझे दो दिन से खाना नसीब नहीं हुआ थ

'डबल पेनल्टी' (लघुकथा)

                                                        "बस दो सौ- तीन सौ रुपये का जुगाड़ और हो जाए तो हम लोग अपने गाँव के लिए निकल चलेंगे। पता नहीं, हालत कब तक सुधरेगी और कब काम-धंधे शुरू होंगे! कब तक लोगों से दान-दक्षिणा लेते रहेंगे! मेहनत से जो मिलता है, मुझे तो उसी में सुख मिलता है संतोषी!" -गणेश ने अपनी पत्नी से कहा।   "हाँ जी, सही बोला आपने। कारखाने में बित्ते भर पगार मिल रही थी तो भी मन राजी था कि मेहनत की खा रहे हैं। मेरा मन भी नहीं मानता जी कि कोई दया कर के कुछ हाथ में रख देवे और हम खुश हो लेवें। दसवीं के बाद आप थोड़ा और पढ़-लिख गए होते तो ये दिन नहीं देखने पड़ते। पर एक बात बताओ, अपने पास तीन सौ रुपये ही तो पड़े हैं। अगर दो-तीन सौ और मिल भी गये तो भी बस का किराया पूरा कैसे होगा। आधी टिकट तो अपनी बाँसुरी की भी लगे है अब।" -सातवीं पास संतोषी ने संदेह व्यक्त किया।  "अरे, तो थोड़ा बस में और थोड़ा पैदल भी चल लेंगे। घर तो पहुँचना ही है, यहाँ कब तक पड़े रहेंगे?"    माता-पिता की बातों से बेखबर आठ वर्षीया बाँसुरी वहाँ पड़ी किसी पुरानी मासिक पत्रिका

प्रवंचना (लघुकथा)

    वह धनवान था, परोपकारी था, दानशील था, किन्तु अहंकारी नहीं था। वह अपने दान का किसी प्रकार का विज्ञापन नहीं करता था। उसने हर रविवार को निर्धारित एक घंटे में दस हज़ार रुपया दान में देना निर्धारित कर रखा था। जितने याचक आते, निर्धारित राशि में से प्रत्येक को उसकी आवश्यकता व अपने विवेक के अनुसार वह दान देता था। राशि बच जाने पर वह उस शेष राशि को अगले रविवार को दी जाने वाली दान-राशि में मिला देता था। कभी तीन-चार तो कभी पांच-छः याचक हर रविवार को आ जाते थे।    इस रविवार कुछ अधिक याचक आये। सोलह हज़ार रुपया दान में गया। याचक-गण के बाहर निकलने के दो मिनट बाद ही दान-दाता को अपने बंगले की बाउण्ड्री की ओट से कुछ लोगों की आवाज़ें सुनाई दीं। वह धीमे क़दमों से बाउण्ड्री के निकट गया।   एक व्यक्ति की आवाज़- "लेकिन इतना सारा आपको क्यों दें, हमारे पास क्या बचेगा? थोड़ा तो वाजिब मांगो।" "तुम सबको मैंने ही तो बताया था कि यह आदमी हर रविवार को इस समय दान देता है, तुम्हें कहाँ पता था?"- दूसरे व्यक्ति की आवाज़ आई। दान-दाता ने आवाज़ पहचानी, यह एक सप्ताह पूर्व ही निष्कासित किया गया उसका सेवक था।

रहम (लघुकथा)

      नरीमन ने जेरेन को बुला कर खिड़की से बाहर सड़क के उस पार देखने को कहा और बोली- "देखो तो उस बेरहम को।"    जेरेन ने देखा, सामने एक किशोरवय लड़का मिट्टी में गिरे पड़े एक छोटे बकरे पर एक नुकीले पत्थर से बार-बार प्रहार कर रहा था। बकरे का जिस्म जगह-जगह से कट-फट गया था।   जेरेन ने ज़ोर से आवाज़ लगा कर उस लड़के को फटकारा- "अबे, क्यों इस बेरहमी से मार रहा है उसे? देख क्या हालत हो गई है उसकी? मरने वाला है वह, छोड़ उसे।", कह कर जेरेन नीचे उतर कर उनके पास गया।  "यह उस चबूतरे पर बनी देवता की मूर्ति के पास जा कर रोज़ गन्दगी करता है। आज पकड़ में आया है, खबर ले ली है मैंने इसकी।" -लड़का यह कह कर वहाँ से चला गया।   इसी बीच वहाँ आ गई नरीमन से जेरेन ने कहा- "देखा तुमने उस बेवकूफ को! यह मासूम जानवर क्या इतना समझता है कि गन्दगी कहाँ करे, कहाँ न करे।"   ... और जेरेन व नरीमन उस बकरे को गोद में ले कर घर ले आये, उसके घावों से मिट्टी हटा कर अच्छी तरह धो-पोंछ कर उसे प्यार से सहलाया व एक कोने में लिटा दिया।    मुस्कराते हुए नरीमन जेरेन से कह रही थी- "लॉक डा

प्रभु उवाच...! (लघुकथा)

                   असलम एक समर्पित निष्ठावान मुसलमान था। अल्लाह का सच्चा बंदा था वह, किन्तु अपने धर्म के प्रति कट्टर था।   वह कोरोना वायरस के संक्रमण के चलते सरकारी आदेश की पालना में अपने घर पर ही नमाज़ पढ़ता था, किन्तु उसका मानना था कि अल्लाह की बंदगी की सही जगह मस्जिद ही है। अपने इसी विश्वास के कारण आज वह सब की नज़र बचा कर साँझ के समय अपने मोहल्ले के नज़दीक वाली मस्जिद में पहुँचा और अपनी आँखें बन्द कर अल्लाह की इबादत करने लगा।    वह मानता था कि अल्लाह एक अदृश्य शक्ति है और उसे देखा नहीं जा सकता पर न जाने क्यों उसके दिल ने आवाज़ दी- "परवरदिगार तू कहाँ है? मुझे अपना दीदार दे और बता कि तेरी इस दुनिया में कोरोना नाम की यह तबाही क्यों आई है? किस इन्सानी कौम के गुनाहों की सज़ा सब को मिल रही है?"   ... और अचानक एक करिश्मा हुआ। आँखें बन्द होने के बावज़ूद उसने महसूस किया कि एक तेज़ रौशनी चारों ओर फ़ैल गई है। उसने आँखे खोली तो नज़र चुंधिया गई। तुरंत आँखें बन्द की उसने और फिर धीरे-धीरे दुबारा खोलीं तो वह चौंक पड़ा। मस्जिद में ही सामने की ओर तेज़ रोशनी के बीच एक आकृति उभर रही थी। उसने देखा,

कोरोना पीड़ित (लघुकथा)

             लॉक डाउन में दो घंटे की सरकारी छूट थी सो कुछ खरीदारी करने मैं बाज़ार की ओर निकला। राह में एक छोटा-सा मन्दिर पड़ता था। वहाँ नज़र गई तो देखा, एक आदमी प्रार्थना में मग्न बैठा था। दर्शन करने की इच्छा से मैं भीतर गया तो अचानक वह व्यक्ति भगवान के सामने रोते हुए गिड़गिड़ाने लगा- "मेरे प्रभु, मेरे मालिक, दया करो मुझ पर! दो दिन से भरपेट नहीं खाया है। कितने ही दिनों से धन्धा चौपट हो गया है। अब तो कोरोना को ख़त्म करो दयालु ! मैं अपनी पहले दिन की पूरी कमाई आपके चरणों में अर्पित...।"    मेरे मन में उसकी सहायता करने की इच्छा बलवती हुई, उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा- "भैया, शांत हो जाओ।"   वह  कातर दृष्टि से मेरी ओर देखता हुआ उठ खड़ा हुआ। मैंने अपना वॉलेट निकाल कर 100 रूपये का एक नोट उसकी ओर बढ़ा दिया। उसने वह नोट भगवान के चरणों में रख दिया और हाथ जोड़ कर बोला-  "मेरी पहली कमाई स्वीकार करो प्रभु!"   उसकी निष्ठा से प्रभावित हो कर मैंने एक और नोट उसे दिया और पूछा- " एक दिन में कितना कमा लेते हो भाई?"   "कुछ निश्चित नहीं है। जितना भाग्य में होता है, म

'प्रायश्चित' (लघुकथा)

 नमन करता हूँ मैं मेरी इस कहानी के वन्दनीय पात्र को और इसके जैसे सभी महामनाओं को!          पेंशनर चपरासी छगन लाल का उन्नीस वर्षीय बेटा मोहन आज फिर बैंक में बैंक-कर्मी शर्मा जी के सामने था। वह रो रहा था और आक्रोश में भी था- " एक्सीडेंट हो जाने से मेरे बापू जीवित प्रमाण-पत्र देने के लिए यहाँ आ नहीं सकते थे। 'बैंक में आ कर हस्ताक्षर करने पड़ते हैं' , यह कह कर कल आपने मेरे बापू के हस्ताक्षर हॉस्पिटल में करवाने के लिए जीवित प्रमाण-पत्र का फॉर्म नहीं दिया। उनकी पेंशन नहीं मिलने से हम दवाइयाँ नहीं ला सके। मेरे बापू दवा नहीं मिलने से आज सुबह मर गये बाबूजी! नेता,अफसर, व्यापारी, सब के सब कानून जेब में रखते हैं और आप हम गरीबों पर नियम-कानून लगाते हो। बापू तो गये ही, हम बेसहारा हो गए, पैसे-पैसे को मोहताज़ हो गए। अगर आपने बापू से अंगूठा लगवाने के लिए कल मुझे फॉर्म दे दिया होता तो वह बच जाते और नहीं भी बचते तो कम से कम हमारी एक साल की आमद का जुगाड़ तो हो जाता।" शर्मा जी हतप्रभ थे। अपने मन का गुबार निकालने आया मोहन रोता-रोता धीमे कदमों से बैंक से निकल गया।      मोहन घर पहुँचा, तो पास-प