हमारी भारतीय संस्कृति व हिन्दू धर्म की महान विरासत को कलंकित करने वाली कुछ लोगों की रूढ़िवादी सोच पर प्रहार करती मेरी यह लघुकथा!
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एक सप्ताह से गम्भीर रक्ताल्पता के रोग के कारण अस्पताल के जनरल वॉर्ड में भर्ती वृद्धा विमला देवी के बैड के पास रखी बैंच पर उनका पुत्र मोहित व पुत्रवधु रोहिणी, दोनों बैठे थे। विमला जी सोई हुई थीं, सो पति-पत्नी परस्पर वार्तालाप में मग्न थे। सहसा विमला जी की नींद खुली और कराहते हुए उन्होंने पीने के लिए पानी माँगा। मोहित ने उठ कर टेबल पर रखी बोतल उठाई, किन्तु उसमें पानी नहीं था। तुरंत ही वह नई बोतल लेने के लिए बाहर निकला। विमला देवी को बहुत तेज प्यास लग रही थी। कुछ क्षण तो उन्होंने सब्र रखा, लेकिन प्यास के मारे गला शुष्क हो जाने से उनकी घबराहट बढ़ गई। बेचैनी के मारे वह कराहने लगीं।
पास वाले बैड पर सो रहे मरीज के पास बैठा एक युवक, जो यह सब देख-सुन रहा था, अपनी पानी की बोतल रोहिणी को दे कर बोला- "पता नहीं भाई साहब को कितनी देर लगे, आप आंटी जी को पानी पिला दीजिये।"
रोहिणी ने बोतल में से थोड़ा पानी एक गिलास में ले कर छटपटा रही अपनी सासु माँ को पिलाया। पानी की कुछ घूँटें गले के नीचे उतरीं तो विमला जी की जान में जान आई। उन्होंने स्नेहिल स्वर में युवक को धन्यवाद देते हुए कहा- "मेरा बेटा पानी ले कर अभी तक नहीं आया। अगर तुमने पानी नहीं दिया होता तो मैं तो मर ही गई थी। बहुत अच्छे हो बेटा तुम, क्या नाम है तुम्हारा?"
"पर्सी प्रिचॉर्ड" -नम्रतापूर्वक युवक ने जवाब दिया।
"अरे, तुम ईसाई हो?" -विस्फारित दृष्टि युवक पर डाल कर विमला जी ने पूछा। पूर्व में आई उनके चेहरे की समस्त स्निग्धता विलोपित हो गई थी।
"जी!" -वृद्धा के चेहरे व वाणी में आये परिवर्तन को देख अचम्भित युवक का प्रत्युत्तर इस बार भी संक्षिप्त था।
अब तक मोहित पानी की बोतल ले कर आ गया था। उसे देखते ही विमला जी बिफर पड़ीं- "पानी लाने में इतनी देर कर दी तूने। मैं तो आज भ्रष्ट हो गई, एक विधर्मी के हाथ का पानी पी लिया। हे भगवन्, कैसा अनर्थ हो गया?" उत्तेजना और कमज़ोरी के कारण हाँफते-हाँफते अर्धचेतनावस्था में चली गईं वह। रोहिणी ने खड़े हो कर उन्हें सम्हाला।
"भाई साहब, माफ़ी चाहता हूँ मैं, लेकिन मुझे आंटी जी के इस परहेज़ का गुमान होता तो भी मैं यह ग़लती ज़रूर करता, क्योंकि इनकी हालत उस समय ऐसी थी कि इन्हें पानी पिलाना बेहद ज़रूरी था।" -प्रिचॉर्ड ने मोहित से दृढ़तापूर्वक कहा।
"लेकिन आपको पहले बताना तो चाहिए था कि आप ईसाई हो।" -कुछ तल्खी के साथ इस बार मोहित बोला।
अभी इन लोगों में यह बात चल ही रही थी कि वॉर्ड-डॉक्टर ने आ कर कहा- "मि. मोहित, आपकी माता जी की जांच-रिपोर्ट आ गई है। उन्हें अभी आधे घंटे के भीतर खून चढ़ाना पड़ेगा। आपने बताया था कि आप का ब्लड-ग्रुप भी A+ है, तो आप तुरंत ब्लड-बैंक में ब्लड दे आएँ, ताकि इन्हें ब्लड चढ़ाया जा सके।"
"डॉक्टर साहब, हमने पहले भी तो ब्लड के लिए भुगतान कर के ब्लड चढ़वाया था। मैं पैसा जमा करवाने को तैयार हूँ।" -मोहित ने कहा।
"हमारे पास अब A+ ग्रुप का स्टॉक बहुत कम हो गया है। अब हम ब्लड के बदले ही ब्लड दे सकेंगे।" -डॉक्टर ने स्पष्ट किया।
"इन्होंने बीस दिन पहले ही एक क्लिनिक में खून डोनेट कर मम्मी जी के खून चढ़वाया था। इन दिनों यह वैसे ही बहुत कमज़ोर हो गए हैं। आप यदि कैश जमा करने पर खून नहीं दिलवा सकते तो हम कहीं और से कोशिश कर के दो-एक घंटे में कोई व्यवस्था करवाते हैं।" -इस बार रोहिणी ने कहा।
"जांच-रिपोर्ट के अनुसार इतना समय निकालना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। खैर, जैसा आप लोग चाहें।" -कह कर डॉक्टर अपने कक्ष में चला गया।
पास वाले बैड के पेशेंट का नया तीमारदार आ गया था। उसने धन्यवाद कहते हुए प्रिचॉर्ड को रिलीव किया।
"रोहिणी, तुम अम्मा का ख़याल रखना। मैं देखता हूँ, जल्दी से कहीं से खून की व्यवस्था हो जाये तो।" ... और मोहित अस्पताल से निकल गया।
विमला जी कुछ समय बाद होश में आईं, लेकिन थोड़ी ही देर में फिर बेहोश हो गईं। लगभग एक घंटे बाद विमला जी को फिर होश आया, लेकिन उनकी हालत बिगड़ने लगी थी। पड़ोसी का तीमारदार कहीं गया हुआ था, अतः विमला जी को अकेली छोड़ कर रोहिणी स्वयं दो बार डॉक्टर के पास गई। डॉक्टर विमला जी को देखने आया व बी.पी.,आदि की जांच करने के बाद उसने निराशा के साथ कहा- "अभी तक तुम्हारे मिस्टर नहीं आये हैं। मैं नहीं कह सकता कि कब क्या हो जाये। इनकी हालत ख़राब होती जा रही है। फ़िलहाल मैं एक इंजेक्शन इनको लगवा देता हूँ।"
डॉक्टर ने अस्पताल से एक इंजेक्शन निकलवा कर विमला जी को लगाने का नर्स को निर्देश दिया।
इंजेक्शन लगने के आधे घंटे बाद विमला जी की बेहोशी ख़त्म हुई, लेकिन अभी भी वह लगभग तन्द्रावस्था की स्थिति में थीं। उन्हें होश आया देख रोहिणी ने संतोष की साँस ली और उठ कर वॉशरूम की तरफ गई। तभी नर्स ने वॉर्ड बॉय के साथ आ कर विमला जी के हाथ में सुई व सीरिंज लगा कर ब्लड की बोतल इन्स्टॉल कर खून चढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। लौट कर रोहिणी ने यह दृश्य देखा तो चौंक कर नर्स से बोली- "अरे, मोहित आ गये क्या? ईश्वर की कृपा से ब्लड की व्यवस्था हो ही गई आखिर।"
"व्यवस्था तो हो गई है, लेकिन आपके पति अभी तक नहीं आये हैं।"
"फिर यह कैसे सम्भव हुआ?" -रोहिणी की आँखों में आश्चर्य था।
नर्स कुछ जवाब दे इसके पहले ही मोहित भी आ गया था। माँ को ब्लड चढ़ता देख उसे भी आश्चर्य हुआ। कुछ आक्रोश के साथ नर्स से पूछा - "मैं पैसा जमा कराने को तैयार था। जब आप लोगों के पास ब्लड था तो मुझे क्यों परेशान किया और ब्लड चढ़ाने में इतनी देर क्यों लगाई?"
"मेरे दोस्त मि. प्रिचॉर्ड ने आपको बताने से मना किया था, लेकिन उस परोपकारी आदमी द्वारा किये गये त्याग को मैं अन्धेरे में नहीं रख सकता। आपकी माता जी के लिए उन्होंने अपना खून ब्लड बैंक में डोनेट किया है। वह स्वयं जटिल एनीमिया से पीड़ित रहे हैं और कुछ दिन पहले ही ठीक हुए हैं, लेकिन ज़रूरतमंद लोगों की मदद करने का जुनून उनके दिमाग़ पर इस कदर हावी है कि वह खुद की भी चिंता नहीं करते। ब्लड बैंक के टेक्नीशियन ने उन्हें मना भी किया था, किन्तु वह नहीं माने और आखिर में ब्लड डोनेट करने के बाद खड़े होते समय चक्कर खा कर गिर पड़े, जिससे उनके सिर पर चोट आई। उन्हें फ़ौरन इमर्जेन्सी में ले जाने के बाद सर्जरी वॉर्ड में शिफ्ट किया गया है। शायद तीन-चार दिन लगेंगे उन्हें ठीक होने में। पता लगने पर मैं भी उनको देख कर आया हूँ। उनकी दोस्ती मेरे लिए एक गर्व की बात है।" -पड़ोसी पेशेंट के तीमारदार ने वस्तुस्थिति से अवगत कराया।
आत्म-ग्लानि में डूबे, मंत्रमुग्ध-से यह सब सुन रहे मोहित व रोहिणी की दशा ऐसी थी कि काटो तो खून नहीं। अपराध-बोध से ग्रस्त दोनों के मन को एक ही विचार बेध रहा था कि जिस व्यक्ति को विधर्मी कह कर अपमानित किया गया था, उसी ने अम्मा जी की जान बचाने के लिए स्वयं को संकट में डाल लिया था। मोहित के द्वारा खून दिया जाना तो इतना जोखिमभरा भी नहीं था, फिर भी दोनों ने इससे बचने की कोशिश की थी और एक पराये मनुष्य ने उनके प्रति इतना बड़ा उपकार किया। दोनों ने अपनी आँखों में भर आये जल-कणों को पौंछा।
'एक सच्चे और सहृदय इन्सान को 'विधर्मी' कह कर कितना भीषण अधर्म किया था हमने', अन्तर्मन की पीड़ा से बोझिल मोहित के कदम सर्जरी वॉर्ड की तरफ बढ़ रहे थे उस पुण्यात्मा प्रिचॉर्ड से क्षमा मांगने के लिए, अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए।
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नमस्कार आ. मीना जी! मेरी कहानी को चर्चा-मंच के पटल पर लिए जाने हेतु चयनित करने के लिए धन्यवाद व निमंत्रण के लिए आभार आपका! इस सुअवसर पर मैं निश्चित ही अपनी उपस्थिति दूँगा।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कहानी है यह। मनुष्यता ही सर्वोपरि एवं सच्चा धर्म है। संकीर्ण मानसिकता की बेड़ी से मुक्त न होकर हम अपना ही अहित करते है l
जवाब देंहटाएंआपकी इस सारगर्भित टिप्पणी के लिए हृदय से आभारी हूँ प्रिय बन्धु !
हटाएंदिल को छूती बहुत सुंदर लघुकथा।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद महोदया !
हटाएंसच इंसानियत अभी भी ज़िंदा है।बहुत ही अच्छी कहानी।
जवाब देंहटाएंसादर
हार्दिक धन्यवाद अनीता जी!
हटाएंप्रेरणादायी कहानी ,काश अब भी लोग समझ पाते कि -हम सब एक परमात्मा के संतान है ना हमारा खून अलग है ना पानी। लेकिन वैसे तो इन दिनों बहुत बदलाव हुआ है परन्तु अब भी पुरानी मानसिकता के लोग ऐसा कर ही देते है। दिल को छू गई आपकी कहानी,सादर नमन
जवाब देंहटाएंहृदयतल से आभार आदरणीया !
हटाएंबहुत ही सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद !
हटाएंसुन्दर संदेश देती बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुधा जी!
हटाएंइस धर्म के चक्कर में अंध धार्मिक लोगों की आँखें इतनी अंधी हो चुकी है कि उन्हें किसी के खून का रंग भगवा और किसी के खून का रंग हरा तो किसी का सफेद नजर आता है. धर्म इंसानियत फ़ैलाने के लिए होता है, इंसानियत पर वर करने के लिए नहीं.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर,सार्थक लघु कथा.
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धन्यवाद महोदय, सही कहा आपने!
हटाएंहृदय उद्वेलक ।
जवाब देंहटाएंआभार महोदया !
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