सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

कड़वा सच (लघुकथा)

       
                   
   छुट्टी होने पर ऑफिस से घर लौटते हुए देखा, राह में किसी एक्सीडेंट के कारण भीड़ लगी हुई थी। बाइक एक ओर खड़ी कर मैं भी वहाँ का माज़रा देख रहा था कि अनायास ही पास में ही फुटपाथ पर पुराने कपड़े बेचने वाले दुकानदार के सामान पर नज़र पड़ गई। मुझे वहाँ पर अन्य कपड़ों के बीच ठीक वैसा ही स्वेटर नज़र आया जैसा मैंने सुबह घर की गली के बाहर बैठे भिखारी को दिया था। मैंने कपड़े बेचने वाले से पूछा तो उसने बताया कि एक भिखारी यह स्वेटर आज ही उसे बेच कर गया है।
  'तो ऐसा काम करते हैं यह भिखारी! वह तो दस रुपये ही माँग रहा था, पर सर्दी से काँपते देख कर मैंने तो उसे अपना स्वेटर ही दे दिया था। ऐसे लोगों पर दया दिखाना फिज़ूल है।' -झुंझलाते हुए घर की ओर चल दिया। गली के मोड़ पर वह भिखारी उसी स्थान पर बैठा मिला। 

 उसके पास जा कर मैं क्रोध में बरसा- "तुम लोगों पर क्या दया करना? मैंने सुबह तुम्हें स्वेटर दिया और आज ही तुम उसे बेच आये।"
 "शरीर की ठण्ड तो सहन हो जाती है बाबूजी, मगर पेट की आग बर्दाश्त नहीं होती। भीख नहीं मिलने से मुझे दो दिन से खाना नसीब नहीं हुआ था। मैंने पैसे मांगे थे और आपने स्वेटर दे दिया। बहुत भूख लग रही थी तो दोपहर में आपका दिया स्वेटर बेच कर अपना पेट भरा।... और करता भी क्या बाबूजी?" -कहते हुए करुण दृष्टि से उसने मेरी और देखा।
"भीख क्यों मांगते हो, कुछ काम क्यों नहीं करते?" -मेरी आवाज़ में अभी भी कुछ तल्खी थी।
"काम करता था बाबूजी, मजदूरी करता था। एक दिन काम करते समय मेरे पाँव पर एक बड़ा-सा पत्थर गिरा और... " -बात अधूरी छोड़ कर उसने अपने दायें पाँव पर रखा अधफटा कपड़े का टुकड़ा हटाया।
मैंने देखा, उसके पाँव का पंजा गायब था। अब मेरी नज़र उसके पीछे की ओर रखी बैसाखी पर भी पड़ी।
पलकों से छलक आई बूंदों को पोंछते हुए मैंने जेब से सौ रुपये निकाल कर उसको दिये। तात्कालिक रूप से मैं इतना ही कर सकता था। 

घर लौटते समय भिखारी के शब्द मेरे मस्तिष्क को कुरेद रहे थे, जिनमें समाया था उसकी विवश ज़िन्दगी का एक कड़वा सच!

************

टिप्पणियाँ

  1. आदरणीय सर , निशब्द कर गयी आपकी कहानी !!अपनी सुख सुविधाओं की गफलत में हम लोग सच्चाई का दूसरा पक्ष देखना ही नहीं चाहते | हमारे मोहल्ले में भी एक महिला जब कुछ मांगने आती तो मुहल्ले वाले उसकी हृष्ट पुष्ट काया देखकर उसपर तंज कसते कि अच्छीखासी देह और सेहत के बावजूद भीख मांगना ही उसकी फितरत है | पर एक दिन जब उसने करुण कथा बयान की तो सबके मुंह बंद हो गये | वह और उसके पति सडक निर्माण पर मजदूरी करते थे | एक दिन पुल बनाते समय उसके पति के सर में पत्थर लगा जिससे वह दिमागी रूप से मृत हो गया | कुछ दिन बाद उसकी बूढी दादी, जो उनके साथ ही मजदूरी करती थी निर्माणाधीन पुल से गिर पड़ी जिससे उनकी टांग टूट गयी | जब डॉक्टर ने जोड़ी तो सीधी जोड़ दी जिससे वह अपने नित्य कार्यों के लिए दूसरों के अधीन हो गुई | 14 साल की एकमात्र बिटिया और दो अपंगों की देखभाल के दौरान उसे डेंगू हुआ तो पुरे शरीर में रक्त पानी बन गया | उसने मुझे दिखाया वह जहाँ हाथ लगाती पानी रिस कर छलक जाता | उसमें मजदूरी की जान शेष ना बची थी |देह बस दिखावे तंदरुस्त थी |उसकी कथा सुनकर सभी को ग्लानी हुई | अब सब लोग उसकी मदद अच्छे से कर रहे थे कि कोरोना आ गया | बहुत दिनों से मैंने उसे देखा ही नहीं | भगवान् करे सब अच्छा हो |सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. मेरी कहानी से भी अधिक हृदय-विदारक तो आपके द्वारा उद्धृत की गई आपके मोहल्ले की मजदूरनी की व्यथा-कथा है। मन को बहुत पीड़ा हुई कि कहानियों से अधिक दर्द तो समाज में ही कई जगह बिखरा पड़ा है। आपकी सहृदय टिप्पणी के लिए आभार रेणु जी!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अच्छा लगा आज फिर से ये संवेदनशील रचना पढ़कर!🙏🙏🙏

      हटाएं
  3. नमस्कार मीना जी, बहुत आभार आपका! 

    जवाब देंहटाएं
  4. मर्मस्पर्शी कहानी। यथार्थ की तह में भी यथार्थ दर्शाती।
    सादर प्रणाम सर।

    जवाब देंहटाएं
  5. इस सुन्दर, प्रोत्साहित करती टिप्पणी के लिए अन्तरतम से आभार अनीता जी!

    जवाब देंहटाएं
  6. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 30 जुलाई 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अभिभूत हूँ आपके इस 'सांध्य दैनिक मुखरित मौन' के सुन्दर पटल पर अपनी रचना को आप द्वारा स्थान दिये जाने से ! मेरा आभार स्वीकारें महोदया! उपस्थित हो कर मुझे प्रसन्नता होगी स्नेहमयी यशोदा जी!

      हटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- मौसम बेरहम देखे, दरख्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार  आएगी  कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा  मेरा  जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...