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जीवन-दर्शन (लघुकथा)

                                                   

 

   यात्रियों से लबालब भरी बस मंथर गति से अपने गन्तव्य की ओर बढ़ रही थी। कुछ दिन से निरन्तर हो रही वर्षा के कारण सड़क ऊबड़खाबड़ हो गई थी और कोई वैकल्पिक मार्ग नहीं होने से इसी मार्ग से यात्रा करना सब की विवशता थी। छोटी दूरी के यात्री बीच में अपना-अपना गाँव आने पर उतर जाते थे, किन्तु लम्बी दूरी के यात्री बस की धीमी गति से परेशान हो रहे थे। उन्हें भली-भाँति पता था कि इस रास्ते पर अधिक तेज़ गति से गाड़ी चलाना बहुत मुश्किल था, फिर भी किसी विशेष प्रयोजन से यात्रा कर रहे कुछ यात्री तथा कुछ उतावली प्रवृत्ति के लोग बार-बार कण्डक्टर व ड्राइवर से गाड़ी कुछ तेज़ चलाने के लिए आग्रह कर रहे थे। इन लोगों के बारम्बार कहने के उपरान्त भी ड्राइवर अपने ही ढंग से गाड़ी चला रहा था। 

   यात्री-मानसिकता होती ही ऐसी है कि हर कोई जैसे उड़ कर अपने इच्छित स्थान पर पहुँच जाना चाहता है। सम्भवतः ऐसी ही मनोवृत्ति के चलते ड्राइवर के पास केबिन में बैठे तीन यात्रियों में से एक व्यक्ति ने उद्विग्न हो कर ड्राइवर से पूछा- "ड्राइवर सा'ब! आप गाड़ी थोड़ी तेज़ क्यों नहीं चलाते? आख़िर कब पहुँचेंगे हम रामगढ़?"

   "भैया जी, इस रास्ते पर बस इससे तेज़ नहीं नहीं चल सकती। आप देख नहीं रहे, रास्ता कितना ख़राब है? और हम रामगढ़ कब पहुँचेंगे, यह न तो मुझे पता है, न कंडक्टर को और न ही बस को।" -कुछ दार्शनिक भाव से यात्री की ओर देख कर ड्राइवर ने कहा और पुनः सामने की ओर अपनी नज़र कर ली। 

  प्रश्न कर्ता उस व्यक्ति ने अजीब-सा मुँह बना कर पड़ोसी यात्री की ओर देखा। पड़ोसी व्यक्ति मन्द मुस्कराहट के साथ खामोश रहा। 

    अब रास्ता कुछ तंग हो आया था। बस उसी गति से चल रही थी। सामने से तेज़ गति से आ रहे ट्रक को देख कर ड्राइवर ने बस की गति और धीमी कर ली। रास्ता तंग होने के कारण गाड़ी को कुछ बायें लेना आवश्यक होने से उसने गाड़ी आगे बढ़ाई। सड़क के बीच पानी भरा देख गड्ढ़े की सम्भावना से ड्राइवर ने गाड़ी सावधानी से आगे बढ़ाई थी, किन्तु गड्ढ़ा शायद कुछ अधिक ही गहरा था सो गाड़ी दायीं और झुक गई। सामने से आ रहे ट्रक-ड्राइवर को इसका अनुमान न हो पाया और ट्रक ने बस को टक्कर मार दी। 

   क्षण भर में यह सब कुछ हो गया। ड्राइवर की सीट के पास बस बुरी तरह पिचक गई थी और ड्राइवर का सिर स्टियरिंग पर झुक गया था। बस में अफरा-तफ़री मच गई। यात्री तेज़ी से बस से बाहर निकलने लगे। केबिन में बैठे तीनों यात्री अभी नहीं निकल पाये थे। वह सहमे-सहमे ड्राइवर की ओर देखने लगे। कंडक्टर लगभग भागता हुआ केबिन में ड्राइवर के पास आया। उसने देखा, ड्राइवर के सिर पर चोट लगी थी। रोते हुए उसने ड्राइवर का खून से सना सिर ऊपर उठा कर अपने हाथों में थामा और बोला- "सोहन, मेरे भाई, यह क्या हो गया?"

  ड्राइवर ने कराहते हुए आँखें खोलीं, उसकी नज़र पहले तो कंडक्टर पर पड़ी और फिर संयोगवश उस यात्री की नज़रों से मिली, जिसने उससे प्रश्न किया था। ड्राइवर के चेहरे पर एक दर्दभरी मुस्कान उभरी... और उसका सिर कंधे पर लुढ़क गया। 

                                                              

                                                                             *********

 

 


 

 


टिप्पणियाँ

  1. ह्रदय स्पर्शी रचना ।बहुत सी सीख देती हुई ।आदरणीय प्रणाम,

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    1. आपकी इस सराहनात्मक टिप्पणी के लिए आभारी हूँ महोदया!

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  2. आदरणीय सर , हर जगह लिखा होता है -- धीरे चलिए घर पर कोई आपका इन्तजार कर रहा है---------- पर इस चेतावनी के बावजूद भी हर कोई भाग रहा है | मार्मिक कहानी जो एक ड्राईवर के माध्यम से यातायात का विराट बोझ झेल रहे लोगों का दर्द बयान करती है , जिनके लिए सवारियों में शायद ही कभी सहानुभूति होती हो | अक्सर लोग ये भी नहीं देख पाते गाडी कौन चला रहा है और गन्तव्य पर पहुँच कर चालक का आभार व्यक्त करना हमारी ना तो संस्कृति है ना शिष्टाचार | बहुत उदास कर दिया इस कथा ने | सादर -

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    1. सदैव की तरह से एक सटीक व उत्कृष्ट समीक्षा! हृदयतल से आभारी हूँ रेणु जी!

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