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प्रवंचना (लघुकथा)

    वह धनवान था, परोपकारी था, दानशील था, किन्तु अहंकारी नहीं था। वह अपने दान का किसी प्रकार का विज्ञापन नहीं करता था। उसने हर रविवार को निर्धारित एक घंटे में दस हज़ार रुपया दान में देना निर्धारित कर रखा था। जितने याचक आते, निर्धारित राशि में से प्रत्येक को उसकी आवश्यकता व अपने विवेक के अनुसार वह दान देता था। राशि बच जाने पर वह उस शेष राशि को अगले रविवार को दी जाने वाली दान-राशि में मिला देता था। कभी तीन-चार तो कभी पांच-छः याचक हर रविवार को आ जाते थे।
   इस रविवार कुछ अधिक याचक आये। सोलह हज़ार रुपया दान में गया। याचक-गण के बाहर निकलने के दो मिनट बाद ही दान-दाता को अपने बंगले की बाउण्ड्री की ओट से कुछ लोगों की आवाज़ें सुनाई दीं। वह धीमे क़दमों से बाउण्ड्री के निकट गया।
  एक व्यक्ति की आवाज़- "लेकिन इतना सारा आपको क्यों दें, हमारे पास क्या बचेगा? थोड़ा तो वाजिब मांगो।"
"तुम सबको मैंने ही तो बताया था कि यह आदमी हर रविवार को इस समय दान देता है, तुम्हें कहाँ पता था?"- दूसरे व्यक्ति की आवाज़ आई। दान-दाता ने आवाज़ पहचानी, यह एक सप्ताह पूर्व ही निष्कासित किया गया उसका सेवक था।
दान-दाता आश्चर्य से सुनता रहा।
एक अन्य व्यक्ति की आवाज़ आई- "तीन चौथाई तो बहुत हो जाता है। चलो, आप आधा हिस्सा ले लो हरेक से।"
... अब ख़ामोशी! शायद सहमति हो जाने से सब लोग चले गये थे। दान-दाता के चेहरे पर एक खिन्नता भरी मुस्कराहट उभर आई।

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