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'सही जनगणना' (लघुकथा)

  जनसंख्या गणना विभाग की वार्षिक बैठक थी। पाँच वर्षों के बाद करवाई गई जन-गणना की रिपोर्ट विभाग के निदेशक की टेबल पर रखी थी। रिपोर्ट देख कर निदेशक चौंक पड़े, सहायक निदेशक से पूछा- "जनसंख्या में 40 % की कमी कैसे आ सकती है, जबकि बढ़ती जनसंख्या को लेकर सरकार परेशान हो रही है। किसने तैयार की है यह रिपोर्ट?" मीटिंग में मौज़ूद विभाग में नवनियुक्त गणना-अधिकारी अविनाश ने खड़े होकर कहा- "सर, रिपोर्ट मैंने तैयार की है। मैंने अपने विभाग के सात होशियार कर्मचारियों की मदद से गणना करवाई है। सब की रिपोर्ट मिलने के बाद मैंने स्वयं रैण्डम चैकिंग कर सत्यापन करने के बाद ही सावधानी से रिपोर्ट तैयार की है। मैं इस रिपोर्ट के सम्बन्ध में तथ्यात्मक जानकारी दे सकता हूँ सर!", कहते हुए आत्मविश्वास से परिपूर्ण दृष्टि से उसने निदेशक की ओर देखा। निदेशक अविनाश के इस अप्रत्याशित उत्तर से चौंके और प्रश्न भरी नज़र अविनाश पर डाली। मौन स्वीकृति पाकर अविनाश ने अपनी बात कहना शुरू किया- "सर, मैंने तीन आदमियों को सड़क के चौराहों व उनके आस-पास की सड़कों पर लगाया और पुलिस विभाग, भ्रष्टाचार विभाग, नगरपालिका व

याराना (लघुकथा)

    शहर के पास का जंगल, फल-फूलों से लदे वृक्षों का इलाका! यहाँ टोनू और मिन्कू रहते थे अपने समाज के कुछ अन्य बन्दरों के साथ। दोनों बहुत पक्के दोस्त थे, लेकिन पिछले कुछ दिनों से उनकी दोस्ती में दरार आ गई थी। इस दरार का कारण थी कुछ ही दिन पहले पास के जंगल से अपने परिवार के साथ यहाँ आ बसी रिमझिम! गुलाबी होठों, मदमस्त आँखों वाली, छरहरे बदन की थी बन्दरिया रिमझिम। हाँ, उसकी चाल हिरणी जैसी नहीं थी, बस उछलती-कूदती रहती थी बन्दरों की तरह और यह भी कि वह जितनी सुन्दर थी, उतनी ही आलसी भी थी, कभी-कभी तो दो-दो दिन तक नहाती ही नहीं थी। अब जैसी भी थी वह, मिन्कू के मन को बहुत भाती थी। रिमझिम  को भी मिन्कू पसन्द था। उधर टोनू को अब मिन्कू आँखों देखे नहीं सुहाता था, क्योंकि वह भी रिमझिम को चाहने लगा था।     आज जब मिन्कू और रिमझिम दो पेड़ों पर इधर से उधर कूदते हुए अठखेलियाँ कर रहे थे कि अचानक टोनू आ गया। आते ही उसने मिन्कू को एक करारा थप्पड़ मारा। मिन्कू अकस्मात हुए इस प्रहार से घबरा कर बोला- "क्यों मारा तुमने मुझे?"    "मैं रिमझिम से प्यार करता हूँ। आज से तू कभी इसके पास आने की कोशिश भी

'वृद्धाश्रम का सच!' (लघुकथा)

                                                              "अरे रे रे... यह क्या कर रहे हो? क्या जला रहे हो? कौन सी किताब है यह?" -सारिका ने बरामदे में तन्मय को एक पुस्तक जलाते देख कर सवालों की झड़ी लगा दी।    ड्रॉइंग रूम से अब बरामदे में तन्मय के पास आ गई सारिका ने देखा, तन्मय उस पुस्तक को जला रहा था जिसका तीन-चार दिन पहले ही विमोचन हुआ था और विमोचन-कार्यक्रम में वह गया भी था। पुस्तक का नाम था- 'वृद्धाश्रम का सच!'     सारिका को याद आया, तन्मय ने विमोचन-कार्यक्रम से लौटने पर बताया था कि कार्यक्रम में उपस्थित कुछ वरिष्ठ लेखकों ने पुस्तक व उसके नवोदित लेखक की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। तन्मय ने उस पुस्तक को पढ़ने के बाद कहा था- "आजकल की गैरज़िम्मेदार सन्तानों की आँखें खुल जाएँगी इसको पढ़ कर। लोगों की स्वार्थपरता पर करारा प्रहार करने के साथ ही वृद्धाश्रम की व्यवस्थाओं की भी पोल खोल दी है लेखक ने!"          तन्मय इतना प्रभावित हुआ था कि उसने उसे भी इस पुस्तक को पढ़ने की सलाह दी थी।                          सारिका ने देखा, किताब के पृष्ठों के जलने से धुआँ भी

'देश मज़बूत होगा' (लघुकथा)

                                                                                                          "... तो भाइयों और बहिनों! मैं कह रहा था, हमें हमेशा सच्चाई के रास्ते पर चलना चाहिए। सच्चाई की राह में तकलीफें आती हैं पर फिर भी हमें झूठ और बेईमानी का साथ कभी नहीं देना चाहिए। आप तो जानते ही हैं कि  विधान सभा के चुनाव नज़दीक हैं। मैं मानता हूँ कि केन्द्रीय सरकार का सहयोग नहीं मिलने से हमारी पार्टी अब तक कुछ विशेष काम नहीं कर सकी है, लेकिन मेरा वादा है कि इस बार हम आपकी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए एड़ी से चोटी तक का जोर लगा देंगे। मेरे विपक्षी उमीदवार फर्जी चन्द जी आप से झूठे वादे करेंगे, बहलाने की कोशिश करेंगे, लालच भी देंगे, किन्तु आप धोखे में नहीं आएँ। आपको सच्चाई का साथ देना है, मुझे अपना अमूल्य वोट दे कर जिताना है। मैं आपकी सेवा में अपनी जान...।"- मंत्री दुर्बुद्धि सिंह झूठावत अपने पहले चुनावी भाषण में अपने कस्बे के क्षेत्र-वासियों को सम्बोधित कर रहे थे कि अचानक उनका मोबाइल बज उठा। मोबाइल ऑन कर कॉलर का नाम देखा और "क्षमा करें, दो मिनट में लौटता हूँ"- कह क

"ऐसा क्यों" (लघुकथा)

                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********

ऑटो वाला (सत्य-कथा)

                 कई वर्ष पहले का वाक़या है। मेरे विभाग के एक साथी अधिकारी शर्मा जी के एक दुर्घटना में देहांत होने की सूचना मिलने पर मैं उनके दाह-संस्कार में शामिल होने बस से सुबह डूंगरपुर के लिए रवाना हुआ। एक तो मन पहले से ही उदास था, दूसरे बस में भीड़ बहुत ज्यादा थी तो मन उद्विग्न हो उठा। करेला ऊपर से नीम चढ़ा की तर्ज पर डूंगरपुर पहुँचने के बीस मिनट पहले बस का टायर पंक्चर हो गया तो बस विलम्ब से पहुंचनी ही थी। मैं बस-स्टैंड से शर्मा जी के घर गया तो पता चला कि शवयात्रा निकले आधा घंटा हो चुका है। श्मशान घाट सीधे ही पहुँचने के अलावा कोई चारा नहीं था अतः घर से बाहर आकर ऑटो के लिए इधर-उधर देखा, लेकिन कोई ऑटो नज़र नहीं आया क्योंकि इनका घर मुख्य सड़क से थोड़ा भीतर की ओर था। संयोग से एक परिचित बाइक पर मेरे पास से निकल रहे थे कि उनकी नज़र मुझ पर पड़ी और बाइक रोक कर मुझसे पूछा कि कहाँ जाना है। मैंने उनसे तहसील चौराहे पर छोड़ने की प्रार्थना की। तहसील चौराहा वहाँ से लगभग दो किमी दूर था। उन्होंने मुझे वहाँ छोड़ दिया।   वहाँ से सुरपुर गाँव (जहाँ शहर का श्मशान है) की ओर रास्ता जाता है, यह मेरी जा

शेरा (लघुकथा)

              सुमन ने शाम की चाय की अंतिम घूँट ली और तभी अचानक उसे याद आया कि चेतना के घर जाना है। ग्रीष्मावकाश के बाद आज स्कूल का तीसरा दिन था। तबियत ख़राब होने से चेतना आज स्कूल नहीं आई थी और दिन में एक बार उससे मिले बिना सुमन रह नहीं सकती थी। शाम ढ़लने को थी सो सुमन आनन-फानन में तैयार हो गई। चेतना का घर उसके घर से मुश्किल से आधा-पौन किलोमीटर की दूरी पर ही था सो पैदल ही चल दी। घर से निकल कर गली में पहुंची ही थी कि चौराहे से कुछ ही पहले शेरा अपने एक साथी के साथ दिख गया। उसका पूरा नाम शेर सिंह है पर मोहल्ले में सब उसे शेरा ही कहते हैं।       शेरा इस मोहल्ले का दादा माना जाता था। कुछ चवन्नी छाप चार-पाँच लड़के उसके शागिर्द थे। गली के नुक्कड़ पर भोला की चाय की थड़ी पर बेंच या मोढ़ों पर पसर कर गप-शप करना, सिगरेट का धुंआ उड़ाना और आती-जाती लड़कियों पर फब्तियां कसना, यही दिनचर्या थी इनकी। लड़कियां अधिकतर तो चुपचाप निकल जातीं यह सोच कर कि लफंगों को क्या मुँह लगाएं! कोई इक्की-दुक्की लड़की अपने घर शिकायत भी करती तो घर वाले समझाते कि जब मोहल्ले में ही रहना है तो इनसे जहाँ तक हो सके, नहीं उलझना ही ठी

बड़ा आदमी (लघु कथा)

     बहुत देर से नींद खुली मेरी। आज शनिवार था, सो कॉलेज में दो ही क्लास होनी थी इसलिए जल्दी ही घर आ गया था। खाना खाया और लम्बी तान के अपने कमरे में जा कर सो गया था। घडी देखी, पाँच बज रहे थे। 'उफ्फ़! बहुत देर सोता रहा मैं!' शाम छः बजे नवोदय रेस्तरां में दोस्तों ने पार्टी रखी थी। उछला मैं पलंग से और तुरत वॉश रूम में भागा।    तैयार होकर बाहर निकला, बाइक उठाई और पास में ही सामने सड़क किनारे बैठे श्यामू मोची से जूतों की पॉलिश कराने के इरादे से सड़क क्रॉस की। देखा तो महाशय पड़ोस में खड़े नाश्ते के ठेले वाले लड़के से भाव को ले कर जद्दो-जहद कर रहे थे। दो कदम बढ़ा कर ठेले के पास गया तो उसे कहते सुना- ''कल ही तो भेलपूरी खाई थी तुम्हारे यहाँ और आज एक दिन में ही भाव डेढ़ा कर दिया। देख भाई, मगजपच्ची मत कर, वैसे भी आज घर से दुफेर में निकल के आया हूँ काम पे। ले दे के दो-तीन कस्टमर आये हैं अब तक। भूख लग रही है, देना हो तो दे दे कल के भाव से।''   "अब जो भाव है सो है। नहीं चाहिए, तुम्हारी मर्जी।"   क्षुब्ध दृष्टि से ठेले वाले की ओर एक बार देखा श्यामू ने और 'लूट मचा रखी

स्वच्छता अभियान (लघुकथा)

        मेरा शहर स्मार्ट सिटी बनने जा रहा था और इस कड़ी में अभियान को चलते एक वर्ष से कहीं अधिक समय निकल चुका था।        शहर के एक प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र की टीम ने स्वच्छता अभियान के तहत नए वित्त वर्ष में सर्वप्रथम स्थानीय कलक्टर कार्यालय के सम्पूर्ण परिसर की जाँच-पड़ताल की तो समस्त परिसर में गन्दगी का वह आलम देखा कि टीम के सदस्य भौंचक्के रह गये। कहीं सीढियों के नीचे कबाड़ का कचरा पड़ा था, तो कहीं कमरों के बाहर गलियारों की छतें-दीवारें मकड़ियों के जालों से अटी पड़ी थीं। एक तरफ एक कोने में खुले में टूटे-फूटे फर्नीचर का लम्बे समय से पड़े कबाड़ का डेरा था तो सीढियों से लगती दीवारों पर जगह-जगह गुटखे-पान की पीक की चित्रकारी थी। साफ़ लग रहा था कि महीनों से कहीं कोई साफ-सफाई नहीं की गई है।      समाचार पत्र ने अगले ही दिन अपने मुखपृष्ठ पर बड़े-बड़े अक्षरों में उपरोक्त हालात उजागर कर शहर की समस्त व्यवस्थाओं को सुचारू रखने के लिए ज़िम्मेदार महकमे की प्रतिष्ठा की धज्जियाँ उड़ा दी।      कहने की आवश्यकता नहीं कि मुखपृष्ठ पर नज़र पड़ते ही कलक्टर साहब की आज सुबह की चाय का जायका ही बिगड़ गया। अनमने ढंग

अहसास (लघुकथा)

                                                                                                                                                             कोई पाँच-छः वर्ष की उम्र रही होगी उसकी। अन्धेरा हो आया था तो थोड़ा डर भी रहा था कलुआ। लेकिन घर (झुग्गी) जाकर करेगा भी क्या? भूख से कुलबुला रहा था सो हो सकता है कुछ खाने-चबाने को मिल जाए यहाँ, यही सोचकर बेचैन निगाहों से इधर-उधर ताक रहा था। निगाहों से अलग उसके नन्हे दिमाग में भी कुछ चल रहा था- उसकी माँ दो बरस पहले भगवान के घर चली गई थी, यही बताया था उसके बापू ने। फिर वह कहीं से दूसरी माँ ले आया था उसके लिए ...लेकिन वह उसकी माँ कहाँ थी, वह तो साल भर के छुटके की माँ थी...और बापू , वह भी तो पहले वाला बापू नहीं रहा था। खाना तो उसे पूरा मिलता नहीं था, छोटी-छोटी बातों पर मार या झिड़की जरूर मिलती थी। घर से आधा-अधूरा कुछ चबेना देकर उसे बाहर भेज दिया जाता था भीख मांगने के लिए। उसका बापू मंडी में मजदूरी करता था और थोड़ा-बहुत जो पैसा मिलता था उसका बड़ा हिस्सा रात को दारू में उड़ा देता था। कलुआ ने अपनी निकर की जेब में हाथ डाल कर अपनी दिन भर की कमाई &

तीन दृश्य : एक निष्कर्ष ! (तीन लघुकथाएँ)

   1)  एक जाने-माने वक़ील ने अपने मुवक्किल (जिसने क़त्ल किया था) को कोर्ट से बाइज्ज़त बरी करवा लिया और विपक्षी निर्दोष व्यक्ति के विरुद्ध सज़ा-ए=मौत का फैसला करवा दिया। कुछ लोगों ने इस पर वाह-वाही की तो कुछ लोगों ने थू-थू कर धिक्कारा। उस मुकद्दमे के दर्शक रहे एक संवेदनशील परिचित ने अगले दिन वक़ील को फोन कर पूछा- 'वक़ील सा., रात को नींद तो ठीक से आई न ?' वक़ील ने कहा- 'अरे नहीं भाई, नींद कहाँ से आती। रात भर सोचता ही रहा।' परिचित कुछ आश्वस्त हो बोला- 'शुक्र है, क्या ख़याल आते रहे ?'  वक़ील- 'यही जनाब कि मेरे एक दूसरे मुवक्किल को बचाने के लिए मुझे क्या-क्या करना है जिसने बलात्कार के बाद एक नाबालिग की हत्या कर दी थी। कल उसके लिए जवाबदावा पेश करना है।'                                                                                    *************   2)  एक महिला के सामने उसके पति की किसी ने हत्या कर दी। पुलिस अधिकारी ने महिला के बयान लिये और कुछ तफ्तीश के बाद हत्यारा पकड़ा गया। मुकद्दमा चला, इसी दौरान अपराधी के पक्ष के कुछ लोगों ने उस महिला को एक अच्छी सी 

'आरक्षण' (लघुकथा)--Posted by me on Facebook...Dt.7-9-12

Gajendra Bhatt September 7, 2012   Likhne ka shauk bachpan se tha lekin kuchh mood hi nahin ban raha tha in dino, so tahalte-tahalte railway station ke platform par ja pahuncha. Do jano ko wahan ladte dekha to mein bhi pas mein chala gaya. Dono mein se ek S (Upper class) bola- "Lekin mein yahaan majdoori kyon nahin kar sakta, mein bhi to majdoor hun". Doosre majdoor R (Reserved class) ne kaha- "Kyonki ye jagah hum logon ke liye reserved hai. Tumhare varg ke  majdoor platform ke bahar majdoori kar sakte hain." S (samanya varg ka) bola- "Lekin bhaiya, platform ke bahar passenger bhi kam milenge aur paisa bhi kam milega?"  R (reserve varg ka)- "Ye tumhari problem hai. Akhbar nahin padhte kya? Sarkar se puchho. Aur han ye bhaiya- bhaiya kya hota hai, aukaat mein rehkar baat karo." Paas hi khada R ka saathi ( Reserved class) bola- "Akhbar kaise padhega, school mein admission milta to padhta na. ha ha ha ha..." S mayoo