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अहसास (लघुकथा)

                                                                                                                                                           


कोई पाँच-छः वर्ष की उम्र रही होगी उसकी। अन्धेरा हो आया था तो थोड़ा डर भी रहा था कलुआ। लेकिन घर (झुग्गी) जाकर करेगा भी क्या? भूख से कुलबुला रहा था सो हो सकता है कुछ खाने-चबाने को मिल जाए यहाँ, यही सोचकर बेचैन निगाहों से इधर-उधर ताक रहा था। निगाहों से अलग उसके नन्हे दिमाग में भी कुछ चल रहा था- उसकी माँ दो बरस पहले भगवान के घर चली गई थी, यही बताया था उसके बापू ने। फिर वह कहीं से दूसरी माँ ले आया था उसके लिए ...लेकिन वह उसकी माँ कहाँ थी, वह तो साल भर के छुटके की माँ थी...और बापू , वह भी तो पहले वाला बापू नहीं रहा था। खाना तो उसे पूरा मिलता नहीं था, छोटी-छोटी बातों पर मार या झिड़की जरूर मिलती थी। घर से आधा-अधूरा कुछ चबेना देकर उसे बाहर भेज दिया जाता था भीख मांगने के लिए। उसका बापू मंडी में मजदूरी करता था और थोड़ा-बहुत जो पैसा मिलता था उसका बड़ा हिस्सा रात को दारू में उड़ा देता था।


कलुआ ने अपनी निकर की जेब में हाथ डाल कर अपनी दिन भर की कमाई 'चार रुपयों' को सहलाया। उसे यह कमाई घर पर तो देनी ही होगी, मार भी खानी पड़ेगी इतनी कम कमाई के कारण। वह करे भी तो क्या, भीख कितनी मिलेगी, इस पर उसका कोई बस तो है नहीं।

विचार-शृंखला टूटी तो कलुआ को पुनः भूख का स्मरण हो आया। सहसा सड़क के किनारे चाट के ठेले के पास खड़े, कुछ खा-पी रहे एक परिवार पर उसकी नज़र पड़ी। वह लपका उधर कि शायद कुछ खाने को मिल जाए और हो सकता है एक-दो रुपये भी मिल जाएँ। उनके पास जाकर दो मिनट वह खड़ा रहा और फिर दीन स्वरों में कुछ पैसे और कुछ खाने की वस्तु के लिए गिड़गिड़ाने लगा। दो बच्चों वाले उस परिवार की महिला ने उसे झिड़क दिया- "भीख मांगने आ जाते हो, कुछ काम क्यों नहीं करते ?"

कलुआ को इस तरह की दुत्कार अक्सर मिलती थी सो वह इसका आदी हो चुका था और दुत्कारे जाने पर सामान्यतः वह किसी ओर के पास जाकर याचना करता था, लेकिन अभी तो उसे इतनी भूख लग रही थी कि यहाँ से निराश नहीं लौटना चाहता था। कातर भाव से उसने उस महिला से पुनः प्रार्थना की- "मुझे बहुत भूख लगी है, सुबह से कुछ नहीं खाया, मुझ पर दया करो।" महिला ने तिरस्कार भरी एक नज़र उस पर डाली और मुंह फेर लिया।

तभी उस परिवार के छोटे लड़के ने अपनी मम्मी को बताया कि उससे अब नहीं खाया जा रहा है और यह कह कर कचौरी के बचे हुए टुकड़े उसने कुछ दूरी पर फेंक दिये। पास में ही खड़ा जीभ लपलपाता एक कुता उस फेंके हुए खाद्य-पदार्थ की ओर लपका। उतनी ही फुर्ती से कलुआ भी झपटा और अँधेरे में पड़े कचोरी के एक बड़े टुकड़े को उठा लिया।

कुत्ता गुर्राया... कलुआ डर कर कुछ पीछे हटा, लेकिन कचोरी का टुकड़ा उसके हाथ से नहीं छूटा। कुत्ते ने दो पल कलुआ पर नज़र जमाई और फिर पलट कर 'कू- कू' की आवाज़ करते हुए अपने हिस्से के छोटे टुकड़े को चबाने लगा।

...शायद कुत्ते को कलुआ की भूख की गहनता का अहसास हो गया था।

 

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