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समाधान खोजना ही होगा...


     "सब्जी लेने साइकिल पर बाज़ार  जा रही एक सत्रह वर्षीय लड़की से कार में बैठे कुछ मनचलों ने छेड़छाड़ की, विरोध करने पर उसे खींच कर एक ओर ले जाने की कोशिश की और फिर शोर मचाने पर उन बदमाशों ने
उस पर पैट्रोल छिड़क कर आग लगा दी। जलती हुई लड़की चीखते-चीखते अपने घर तक पहुंची जहाँ परिवार को सारा वाक़या बताने के बाद उसने अंतिम सांस ली" - यह अखबार की कल की खबर थी।
      शादी के चार दिन बाद दूल्हा-दुल्हन व दूल्हे की दादी पास बैठ कर गिफ्ट-पैक खोल रहे थे कि एक गिफ्ट-पैक को खोलते समय उसमें विस्फोट हुआ जिससे दूल्हे व उसकी दादी की मौत हो गई और दुल्हन गंभीर रूप से घायल हो गई - तीन दिन पहले की खबर।
      माँ ने अपने किशोर बच्चे को मोबाइल पर ज्यादा समय गुज़ारने के लिए कड़ी डांट पिलाई और उसको दी गई कुछ सुविधाओं में कटौती कर दी तो आक्रोशित हो लड़के ने माँ व छोटी बहिन की हत्या कर दी - पांच-सात दिन पहले की खबर।
      जमीन-विवाद में भाई ने भाई की हत्या कर दी। अपने प्रेमी के साथ मिलकर विवाहिता ने अपने पति की हत्या कर दी। एक स्कूली बच्चे ने छोटी कक्षा के एक मासूम बच्चे की हत्या महज़ इसलिए कर दी कि इसके कारण स्कूल में छुट्टी हो जाएगी। एक महिला ने अपने प्रेमी के साथ संबंधों में बाधक होने से अपने ही पुत्र की हत्या कर दी। पचास रुपये के लेन-देन के मामूली विवाद में बात बढ़ने पर एक युवक ने दूसरे की हत्या कर दी।
      दामिनी-बलात्कार व हत्याकांड की क्रूरतम घटना के बाद जब-तब ऐसे ही नृशंस बलात्कार व हत्याकांड होते चले आ रहे हैं।
      नित्य प्रतिदिन ऐसी ही कई घटनाएं अखबार की सुर्खियां बन रही हैं और अब तो शायद लोगों को भी यह सब-कुछ सामान्य-सा लगने लगा है। हाँ, कभी-कभार कुछ लोग पुलिस व सरकार को जरूर कोस लेते हैं तो कुछ लोग लम्बी सांस लेकर कह पड़ते हैं- 'क्या ज़माना आ गया है! कहीं कोई सुरक्षित नहीं है।'
      जी हाँ, वाक़ई, कहीं कोई सुरक्षित नहीं है। अपराधियों में नैतिकता का स्तर तो निम्नतम दर्जे तक पहुंच ही चुका है, अब उन्हें समाज और क़ानून से भी भय नहीं लगता। स्वच्छंद और भोगवादी संस्कृति इतनी आकर्षक लगने लगी है कि पशुता की किसी भी सीमा तक जाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। ऐसे लोगों के रक्त में ही विकृति आ गई है। महापुरुषों के जीवन-आदर्श और सन्तों के उपदेश भी इनके लिए अर्थहीन हो गए हैं।
     अब प्रश्न यह उठता है कि जनता का सभ्य और सुसंस्कृत तबका क्या जीना छोड़ दे या कदम-कदम पर समाज में मौज़ूद बहशी भेड़ियों के आतंक के साये में डर-डर कर सांस लेता रहे ?
     उपरोक्त दोनों ही स्थितियां भयावह हैं। इससे पहले कि दरिन्दगी मानवता को पूर्ण रूप से नष्ट कर दे, इंसान को जीना अभिशाप लगने लगे, समाधान खोजना ही होगा।
     धर्म, राजनीति और निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर मानवता की रक्षा के लिए बुद्धिजीवियों (राजनीतिज्ञों से कोई भी अपेक्षा व्यर्थ है) को संगठित होकर इस पर मनन करना होगा। सद्बुद्धि-युवाओं को दुष्ट शक्तियों के प्रतिकार के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति से आगे आना होगा।
     आवश्यक है कि जब तक दुष्टता और क्रूरता को पनपने से रोकने वाले टीके का अविष्कार  नहीं हो जाये जो पोलियो के टीके की तरह बचपन में ही मनुष्य को लगाया जा सके, तब तक समाज में मौजूद राक्षसों को क्रूरतम सजा से दण्डित करने हेतु क़ानून में उचित संशोधन करने के लिए सरकार को बाध्य किया जाय। 

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