Skip to main content

संघ-प्रमुख मोहन भागवत का बयान

     कभी दूर का रिश्ता भी नहीं रहा मेरा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से। इस संगठन से जुड़े लोग बतौर आदर्श, देश एवम् हिन्दुत्व के प्रति निष्ठावान हैं, इस धारणा के पोषण के अलावा कभी इनके कार्य-कलापों को जानने-समझने का प्रयास मैंने नहीं किया है। मैं आज कहने जा रहा हूँ संघ के प्रमुख, मोहन भागवत के हालिया बयान के विषय में, जिसने अनावश्यक ही लम्बी-चौड़ी राजनैतिक बहस
 को जन्म दे दिया है। पक्ष-विपक्ष के लोग तो इस वाक़ये का फायदा उठाकर अपनी रोटी सेंक ही रहे हैं, कुछ बुद्धिजीवी भी भागवत के कथन की आलोचना करने से नहीं चूक रहे हैं। आज के प्रतिष्ठित दैनिक समाचार-पत्र 'राजस्थान पत्रिका' के सम्पादकीय में भी इस सम्बन्ध में काफी-कुछ कहा जाकर भागवत के बयान के औचित्य पर सवाल उठाया गया है।
    भागवत ने कुछ ऐसा कहा था- 'देश के लिए सैनिक तैयार करने में छः-सात माह लगते हैं, यदि देश का संविधान इजाजत दे और सरकार चाहे तो संघ के स्वयंसेवक तीन दिन में देश के लिए तैयार हो सकते हैं।'
    इस कथन पर प्रतिक्रिया में कहा जा रहा है कि यह कथन देश के सैनिकों का अपमान है और यह कि क्या स्वयंसेवक सीमा पर जाकर लाठी चलाएंगे, क्या उन्हें युद्धक हथियारों का प्रशिक्षण प्राप्त है?
    आलोचकों ने सम्भवतः भागवत के कथन का शाब्दिक अर्थ अपने प्रयोजनार्थ ले लिया है। जहाँ तक मैंने उनके मन्तव्य को समझा है, वह कहना चाहते हैं कि स्वयंसेवक साहसी, सामर्थ्यवान, उच्च मनोबल से युक्त, संघ के अनुशासित एवम् समर्पित कार्यकर्ता हैं जो इस प्रकार की सेवा के लिए उपलब्ध हो सकते हैं, जब कभी भी ऐसी ज़रुरत हो। इसके लिए तत्पर होकर  कार्यशील होने में उन्हें दो-तीन दिन ही लगेंगे।
    मैं समझता हूँ, भागवत के कथन में अनौचित्यपूर्ण कुछ भी नहीं है, यदि निर्लिप्त भाव से इसका मनन किया जाये। जहाँ तक सैन्य योग्यता (war skill) का प्रश्न है, उसके लिए आवश्यक प्रशिक्षण उन स्वयंसेवकों को दिया जा सकता है, यदि ऐसी सेवा के लिए चयन का पात्र उन्हें समझा जाये।


                 


Comments

Popular posts from this blog

बेटी (कहानी)

  “अरे राधिका, तुम अभी तक अपने घर नहीं गईं?” घर की बुज़ुर्ग महिला ने बरामदे में आ कर राधिका से पूछा। राधिका इस घर में झाड़ू-पौंछा व बर्तन मांजने का काम करती थी।  “जी माँजी, बस निकल ही रही हूँ। आज बर्तन कुछ ज़्यादा थे और सिर में दर्द भी हो रहा था, सो थोड़ी देर लग गई।” -राधिका ने अपने हाथ के आखिरी बर्तन को धो कर टोकरी में रखते हुए जवाब दिया।  “अरे, तो पहले क्यों नहीं बताया। मैं तुमसे कुछ ज़रूरी बर्तन ही मंजवा लेती। बाकी के बर्तन कल मंज जाते।” “कोई बात नहीं, अब तो काम हो ही गया है। जाती हूँ अब।”- राधिका खड़े हो कर अपने कपडे ठीक करते हुए बोली। अपने काम से राधिका ने इस परिवार के लोगों में अपनी अच्छी साख बना ली थी और बदले में उसे उनसे अच्छा बर्ताव मिल रहा था। इस घर में काम करने के अलावा वह प्राइमरी के कुछ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाती थी। ट्यूशन पढ़ने बच्चे उसके घर आते थे और उनके आने का समय हो रहा था, अतः राधिका तेज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। चार माह की गर्भवती राधिका असीमपुर की घनी बस्ती के एक मकान में छोटे-छोटे दो कमरों में किराये पर रहती थी। मकान-मालकिन श्यामा देवी एक धर्मप्राण, नेक महिल...

तन्हाई (ग़ज़ल)

मेरी एक नई पेशकश दोस्तों --- तन्हाई मौसम बेरहम देखे, दरख़्त फिर भी ज़िन्दा है, बदन इसका मगर कुछ खोखला हो गया है।   बहार आएगी कभी,  ये  भरोसा  नहीं  रहा, पतझड़ का आलम  बहुत लम्बा हो गया है।   रहनुमाई बागवां की, अब कुछ करे तो करे, सब्र  का  सिलसिला  बेइन्तहां  हो  गया  है।    या तो मैं हूँ, या फिर मेरी  ख़ामोशी  है यहाँ, सूना - सूना  सा   मेरा   जहां  हो  गया  है।  यूँ  तो उनकी  महफ़िल में  रौनक़ बहुत है, 'हृदयेश' लेकिन  फिर भी तन्हा  हो गया है।                          *****  

दलित वर्ग - सामाजिक सोच व चेतना

     'दलित वर्ग एवं सामाजिक सोच'- संवेदनशील यह मुद्दा मेरे आज के आलेख का विषय है।  मेरा मानना है कि दलित वर्ग स्वयं अपनी ही मानसिकता से पीड़ित है। आरक्षण तथा अन्य सभी साधन- सुविधाओं का अपेक्षाकृत अधिक उपभोग कर रहा दलित वर्ग अब वंचित कहाँ रह गया है? हाँ, कतिपय राजनेता अवश्य उन्हें स्वार्थवश भ्रमित करते रहते हैं। जहाँ तक आरक्षण का प्रश्न है, कुछ बुद्धिजीवी दलित भी अब तो आरक्षण जैसी व्यवस्थाओं को अनुचित मानने लगे हैं। आरक्षण के विषय में कहा जा सकता है कि यह एक विवादग्रस्त बिन्दु है। लेकिन इस सम्बन्ध में दलित व सवर्ण समाज तथा राजनीतिज्ञ, यदि मिल-बैठ कर, निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर कुछ विवेकपूर्ण दृष्टि अपनाएँ तो सम्भवतः विकास में समानता की स्थिति आने तक चरणबद्ध तरीके से आरक्षण में कमी की जा कर अंततः उसे समाप्त किया जा सकता है।  दलित वर्ग एवं सवर्ण समाज, दोनों को ही अभी तक की अपनी संकीर्ण सोच के दायरे से बाहर निकलना होगा। सवर्णों में कोई अपराधी मनोवृत्ति का अथवा विक्षिप्त व्यक्ति ही दलितों के प्रति किसी तरह का भेद-भाव करता है। भेदभाव करने वाला व्यक्ति निश्चित रूप स...