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वैचारिक दोगलापन



   सर्वप्रथम तो मैं अपने मित्रों को यह बता दूँ कि मेरे कई मित्र भाजपा से हैं तो कई कॉन्ग्रेस से। मैं यह भी बताना चाहता हूँ कि AAP के किसी छोटे-बड़े नेता से मेरा दूर-दूर तक कोई परिचय नहीं है जब कि मैं केजरीवाल का unconditional समर्थक हूँ।
  अब मैं आपसे कल का वाकया share करना चाहता हूँ। कल रात मैं अपने एक मित्र के घर भोजन पर गया था। यहाँ, यह बताना असन्दर्भित नहीं होगा कि मेरे यह मित्र एक अन्य पार्टी से प्रतिबद्धता के कारण केजरीवाल को हद दर्जे तक नापसंद करते हैं। खैर, भोजन के बाद मित्र के आग्रह पर मैं कुछ देर वहीँ रुका हुआ था कि तभी उन्होंने TV ऑन कर दिया। 'color' चैनल पर 'बालिका-वधू' का एपिसोड दिखाया जा रहा था।   कल के एपिसोड में इस कहानी के एक प्रमुख पात्र, डॉ जगदीश को चुनाव में खड़ा होता दिखाया गया है।
   डॉ जगदीश को उनके गांव/शहर वालों ने राजनीति में पहली बार उतारा है ताकि स्वच्छ राजनीति के जरिये क्षेत्र का विकास हो सके। उसके विरुद्ध खड़ा है राजनीति के दांव-पेच में माहिर एक पुराना खिलाड़ी जो येन-केन-प्रकारेण चुनावी जंग को जीतना चाहता है। बीच-बीच में बात भी कर रहे हम दोनों मित्र छोटे परदे से अचानक आई शोर-शराबे की आवाज़ सुनकर उसकी ओर मुखातिब हुए। देखते हैं कि भाषण दे रहे डॉ जगदीश पर विपक्ष के कुछ लोगों ने नारे लगाते हुए पथराव शुरू कर दिया। तुरत ही दूसरे दृश्य में कुछ दूरी पर ओट में खड़े विपक्षी नेता को दिखाया गया जिसकी आँखों में कुटिल मुस्कराहट थी।
मेरे मित्र ने हिकारत भरी नज़रों से उस खलनायक को देखते हुए अपना कमेन्ट दागा-  'इस स्साले को तो चुनाव हारना ही चाहिए।'
  TV से नज़रें हटाते हुए मैंने कहा-  'भाई, फिर तुम केजरीवाल के ख़िलाफ़ क्यों हो ? क्या सब ऐशो-आराम छोड़कर वह स्वच्छ राजनीति करने नहीं आये हैं ? उन पर, उनके नेताओं और वॉलंटियर्स पर  जिस तरह से हमले हो रहे हैं क्या वह सब बहशीपन नहीं है ?'
  सर खुजाते हुए मित्र बोला-  'TV की कहानी और राजनीति दोनों अलग चीज़ हैं भइये। और फिर.…केजरीवाल तो भगोड़ा है, पल्टू है।'
 तल्ख़ निगाहों से मैंने मित्र को घूरा-  'केजरीवाल को तो परिस्थितिवश कुछ फैसले बदलने पड़े थे, अपने आदर्श और सिद्धांत के लिए CM जैसे पद को त्याग दिया था। तुम और तुम्हारे जैसे अन्य लोग अपनी आत्मा की आवाज़, अपने आदर्शों से भाग रहे हो। सच कहूँ तो तुममें न तो आत्मा है न आदर्श। सत्ता-लोलुप नेताओं के अंधे अनुयायी हो तुम ! अनाचार, अराजकता और गुण्डागर्दी को राजनीति का पर्याय बना दिया है तुम्हारे नेताओं और उनके अनुयायियों ने। फिल्मों में, TV में, जहाँ तुम जैसे लोग नायक की जय-जयकार करते हैं, वास्तविक जीवन में खलनायकों के तलवे चाटते हैं। क्या यह वैचारिक और नैतिक दोगलापन नहीं है?'
 मेरा मित्र निरुत्तर कमरे के फर्श की ओर देख रहा था।

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