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कहाँ है राजनीति में शुचिता ?



  धर्म-निरपेक्षता को सभी राजनैतिक दल अपने-अपने ढंग से परिभाषित करते रहे हैं। आज कोई भी दल ऐसा नहीं है जो धर्म और जाति के उन्माद को अपनी सफलता की सीढ़ी बनाने से परहेज रखता हो, तिस पर दावा प्रत्येक के द्वारा यही किया जाता है कि एक मात्र वही दल धर्म-निरपेक्षता का हिमायती है। इनके स्वार्थ की वेदी पर धर्म, सत्य और विश्वास,यहाँ तक कि मानवता की भी  बलि चढ़ा दी गई है। कुछ जिम्मेदार किस्म का  मीडिया, देश-समाज के प्रबुद्ध-जन और सुलझे हुए चंद राजनीतिज्ञ कितना ही क्यों न धिक्कारें, वर्त्तमान निर्लज्ज राजनेताओं के कानों पर जूं नहीं रेंगती। 
अभी हाल ही श्रीमती सोनिया गांधी ने मुस्लिम धार्मिक नेता बुखारी से संपर्क कर मुस्लिम समुदाय का समर्थन कॉन्ग्रेस के पक्ष में चाहा। क्या कॉन्ग्रेस का हिन्दू मतदाता इस कारण कॉन्ग्रेस से विमुख नहीं होगा ? इसी तरह जब बीजेपी हिंदुओं के ध्रुवीकरण की दिशा में काम करती है तो क्या मुस्लिम मतदाता उससे विमुख नहीं होगा ? यह कैसी राजनीति है जिसमे दोनों सम्प्रदायों के मध्य खाई खोदने का काम दोनों हो दलों के नेता निरंतर किये जा रहे हैं। इसका कैसा भयावह परिणाम होगा, इसका क्या कोई अनुमान इन्हें नहीं है ? 
   क्या इस तरह की राजनीति एक प्रकार का आतंकवाद नहीं है ?
अपनी स्वार्थ-पूर्ति के लिए राजनैतिक दल दूसरे दल के अपराधी  और सन्दिग्ध चरित्र वाले नेताओं को हाथों-हाथ ले रहे हैं। एक दल का ऐसा नेता विपक्षी दल में स्वागत के साथ स्वीकार्य कैसे हो जाता है ? क्या स्वीकार करने वाला दल 'गंगा' है जिसमें मिलकर गन्दा नाला भी गंगा का स्वच्छ जल बन जाता है ( वैसे गंदे पानी के नालों के मिलने से अब तो गंगा भी प्रदूषित हो चुकी है )? 
 इमरान मसूद के विष-वमन के बाद श्रीमती वसुंधरा राजे तथा अमित शाह जैसे नेताओं ने जो प्रतिक्रिया दिखाई, वह भी स्वीकार्य तो नहीं है न ? लोगों की समझ में क्यों नहीं आता कि काट लेने पर पागल कुत्ते का इलाज किया जाता है, गोली तभी मारी जानी चाहिए जब उसका पागलपन लाइलाज हो जाये।
 हर कोई छिछला नेता अपने समर्थकों की प्रशंसा पाने के लिए, भीड़ की तालियाँ बटोरने के लिए कुछ भी अनर्गल कह देता है और उसके द्वारा कही गई बेहूदा बकवास को बाद में उसके दल का साथी घुमा-फिरा कर उसका अर्थ बदल देने का प्रयास करता है जैसे कि सुनने वाले अक्ल-विहीन ही हैं।
   इधर नवोदित, लेकिन स्थापित राजनैतिक दल 'AAP' समलैंगिकों को वैधानिक दर्जा दिलवाने की बात कर रहा है। इनकी स्वच्छता को राजनीति ने कैसे डस लिया ?
     तो मित्रों, न तो राजनैतिक दल के नाम के आधार पर और न ही इनके घोषणापत्रों के छलावों में आकर हमें वोट देना चाहिए, हम वोट दें तो केवल और केवल ऐसे उम्मीदवार को दें जो अपेक्षाकृत ईमानदार और चरित्रवान हो। 

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