रीजनल कॉलेज ऑफ एजुकेशन, अजमेर में तृतीय वर्ष के अध्ययन के दौरान लिखी गई यह कविता भी स्नेही पाठकों को अवश्य पसंद आएगी, ऐसा मानता हूँ। प्रिय पाठक-बंधुओं! प्रारम्भिक रूप से इस कविता के छः छन्द मैंने लिखे थे। कॉलेज के एक समारोह में मुझे कविता-पाठ करना था और मैं यह कविता पढने के लिए हॉल में पहली पंक्ति में बैठा अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था। तभी मेरी नज़र दायीं पंक्ति में बैठी मेरी एक जूनियर 'वसुधा टीके' पर पड़ी। इस समारोह में कुछ लड़कियां साड़ी पहन कर आई थीं, उनमें से एक वसुधा भी थी। वसुधा हरे रंग की साड़ी में बहुत सुन्दर लग रही थी। मेरे कवि-मन में शरारत के कीड़े कुलबुलाये और मैंने अपनी कविता में एक आशुरचित (तुरत रचा गया) छन्द और जोड़ दिया। नाम पुकारे जाने पर मैंने स्टेज पर जाकर यह कविता सुनाई। अब मैं अकेला खुराफाती तो था नहीं कॉलेज में, सो वसुधा से जुड़ा छन्द आते ही आगे-पीछे के कई साथी छात्र-छात्राओं की ठहाका भरी निगाहें वसुधा पर जम गईं और वसुधा थी कि शर्म से पानी-पानी! सच मानिए, वसुधा फिर भी मुझ पर नाराज़ नहीं हुई, बहुत भली लड़की थी वह! (नोट :- आशुरचित छन्द को गहरे