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डायरी के पन्नों से ... 'नई रचना'

पेश हैं मेरी दो नई रचनायें मेरे दोस्तों...  बेवफ़ा तेरी बेवफ़ाई  का,                                 कब तुझसे हमने शिकवा किया है, उम्मीदेवफ़ा में जिए जायेंगे क़यामत तक,                                 गर ज़िन्दगी ने हमें धोखा न दिया।                          -------------         आरज़ू हो तुम, मेरी चाहत हो, दिल का इक अरमान हो तुम।         ज़र्रा  नहीं  हो, सितारा नहीं  हो,  मेरे लिए, मेरी जां हो तुम। 

अहंकार क्यों झलकने लगता है?

     सन् 2016 में रियो  डि जेनेरियो में  ग्रीष्मकालीन   ओलम्पिक में  बैडमिंटन के फाइनल में  अपने जीवट खेल के बावजूद भी स्पेन की  कैरोलिना मैरिन से हारने के बाद भारतीय स्टार खिलाड़ी पी.वी.सिन्धु ने 

आप 'पन्ना धाय' को जानते हैं...?

      'पन्ना धाय' राजस्थान में ही नहीं, सम्पूर्ण भारत में गर्व और श्रद्धा से लिया जाने वाला वह नाम है जिसके समकक्ष विश्व में कोई भी नाम बौना हो जाता है जब चर्चा होती है स्वामिभक्ति व त्याग की।       पन्ना धाय, एक माता, जिसने राजद्रोही बनवीर के सम्मुख अपने स्वामी-पुत्र (राजकुमार उदय सिंह) की रक्षा हेतु अपने ही पुत्र को मरने के लिए प्रस्तुत कर दिया। ऐसा उदहारण विश्व में न कभी इससे पहले देखा गया है और सम्भवतः न ही कभी देखा जा सकेगा। भारतीय इतिहास को जानने वाले महानुभाव इस पवित्र नाम से अपरिचित नहीं हो सकते, अतः मेरा यह आलेख 'पन्ना धाय' से अनभिज्ञ जिज्ञासु व्यक्तियों के लिए केवल पठनीय ही नहीं होगा, अपितु वह उस महान अलौकिक आत्मा का परिचय पाकर स्वयं को धन्य भी समझेंगे।       यहाँ, मेरे शहर उदयपुर में गोवर्धन सागर तलैया किनारे  सन् 1914 में निर्मित एक भवन में पन्ना धाय की गाथा कहती स्थायी प्रदर्शनी स्थापित की गई है। इस प्रकोष्ठ में पन्ना धाय से सम्बंधित एक डॉक्यूमेंट्री मूवी भी प्रदर्शित की जाती है। कल मैंने वहाँ जाकर पन्ना धाय को पुनः जानने का प्रयास किया, जबकि उस देवी की

डायरी के पन्नों से ..."नदी और किनारा"

मन में गुँथी वैचारिक श्रृंखला ही कभी-कभी शब्दों में ढ़ल कर कविता का रूप ले लेती है - मेरे कॉलेज के दिनों की उपज है यह कविता भी ...सम्भवतः आप में से भी कुछ लोगों ने जीया होगा इन क्षणों को!

डायरी के पन्नों से ..."उसकी दीपावली"

कविता की अन्तिम दो पंक्तियों में निहित भाव के लिए समस्त कवि-बन्धुओं से क्षमायाचना के साथ प्रस्तुत है मेरी डायरी के पन्नों से एक और अध्ययनकालीन रचना - "उसकी दीपावली"                                                                  

कल फिर बलात्कार हुआ...

       कल ही की तो बात है। कल प्रातः मैं अपने घर के अहाते में बैठा चाय की सिप लेता हुआ अखबार की ख़बरें टटोल रहा था कि अचानक वह हादसा हो गया।           एक तीखी चुभन मैंने अपने पाँव के टखने पर महसूस की। देखने पर मैंने पाया कि एक डरावना, मटमैला काला मच्छर मेरे पाँव की चमड़ी में अपना डंक गड़ाए बैठा था। मेरी इच्छा और सहमति के बिना हो रहे इस बलात्कार को देखकर मेरा खून खौल उठा और मैंने निशाना साधकर उस पर अपने दायें हाथ के पंजे से प्रहार कर दिया। बचकर उड़ने का प्रयास करने के बावज़ूद वह बच नहीं सका और घायल हो कर नीचे गिर पड़ा।          इस घटनाक्रम के दौरान दूसरे हाथ में पकड़े चाय के  कप से कुछ बूँदें अखबार के पृष्ठ पर गिरीं। आम वक्त होता तो  उन अदद अमृत-बूंदों के व्यर्थ नष्ट होने का शोक मनाता, लेकिन उस समय मेरे लिए अधिक महत्वपूर्ण था धरती पर गिरे उस आततायी को पकड़ना। मैंने चाय का कप टेबल पर रखकर उस घायल दुष्ट को पकड़ कर उठाया और बाएं हाथ की हथेली पर रखा। मेरी निगाहों में उसके प्रति घृणा और क्रोध था पर फिर भी मेरे मन के विवेक ने कहा कि कानून हाथ में लेना ठीक नहीं है। फिर विवेक ने ही इसका प्रत

डायरी के पन्नों से ..."कविता मैं कैसे लिखूं"

       डॉ. प्रियंका (हैदराबाद) के साथ हुए हादसे के बाद आज दि. 5-12-2019 को मैंने चार नवरचित पंक्तियाँ मेरी इस पूर्व -प्रकाशित कविता में और जोड़ी हैं।...    दामिनी का बस में बलात्कार और फिर निर्मम हत्या, मासूम प्रद्युम्न की विद्या के मंदिर (विद्यालय ) में क्रूरतापूर्ण हत्या, धर्मांध और भोले-भाले लोगों को अपने जाल में फंसाकर व्यभिचार का नंगा तांडव करने वाले 'राम-रहीम' जैसे बाबा ...और ऐसे अनाचारों के प्रति धृतराष्ट्रीय नज़रिया रखने वाले, अपने राजनैतिक स्वार्थ के चलते इन्हें पोषित करने वाले, राजनेताओं को जब मैं देखता हूँ तो मन अपने-आप से पूछता है- जिसे देवभूमि कहा जाता था, क्या यही वह राम और कृष्ण की धरती है?     ...इस सबसे प्रेरित हैं मेरे यह उद्गार..."कविता मैं कैसे लिखूं"       दामिनी  की चीख अभी  भी, गूंजती  हवाओं  में, प्रद्युम्न  की मासूम  तड़पन, कौंधती  निगाहों में, नींद में  कुछ  चैन पाऊं, वो  ख्वाब नहीं  मिलते, कविता  मैं  कैसे  लिखूं, अलफ़ाज़ नहीं  मिलते। डॉक्टर को अपवित्र किया,जला दिया हैवानों ने, हर बस्ती को नर्क बनाया,कुछ पागल शैतानों ने।  लहू