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डायरी के पन्नों से ..."महक उठेगा ज़र्रा-ज़र्रा"

मेरा अध्ययन-काल मेरी कविताओं का स्वर्णिम काल था। मेरी उस समय की रचनाओं में से ही एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ - "महक उठेगा ज़र्रा-ज़र्रा..."

फिर अवसर नहीं मिलने वाला...

     कठिन परिश्रम और लम्बी प्रतीक्षा के बाद यदि कोई अवसर मिलता है तो समय से उसका पूरा-पूरा सदुपयोग कर लेना ही बुद्धिमानी है। इस सत्य को हर समझदार व्यक्ति जानता है पर सफलता के अहंकारवश अधिकांश व्यक्ति राह से भटक जाते हैं। सफलता की राह में बाधा बनकर कई विपरीत परिस्थितियां आती हैं लेकिन उन पर विजय प्राप्त कर अपनी राह पर निरन्तर आगे बढ़ने वाला सक्षम व्यक्ति ही इतिहास बनाता है।        हमारे समक्ष दो ऐसी हस्तियाँ हैं जिन्होंने राजनीति में चमत्कार कर दिखाया है। मैं बात कर रहा हूँ

डायरी के पन्नों से... "भीगे नयन निहार रहे हैं..."

          "भीगे नयन निहार रहे हैं"- मेरे ही द्वारा चयनित यह शीर्षक था कविता प्रतियोगिता के लिए, जब महाराजा कॉलेज, जयपुर में प्रथम वर्ष में अध्ययन के दौरान मैंने राज्यस्तरीय अंतर्महाविद्यालयीय  कविता-प्रतियोगिता आयोजित करवाई थी। मैं उस वर्ष कॉलेज की साहित्यिक परिषद 'साहित्य-समाज' का सचिव था। राज्य के कुछ स्थापित विद्यार्थी कवियों ने भी भाग लिया था उस प्रतियोगिता में। मैंने भी इस शीर्षक पर लिखी कविता में विरह-तप्त नायिका के उद्गारों को शब्दों में ढाला था। निर्णायकों द्वारा मेरी कविता सराही तो गई थी, लेकिन पुरस्कार नहीं पा सकी थी। उस समय के ख्यात विद्यार्थी-कवि 'मणि मधुकर' ने प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था।          मेरे उपनाम (तख़ल्लुस ) 'हृदयेश' (अन्य कवियों की तरह उपनाम लगाने का शौक मुझे भी चढ़ा था उन दिनों ) के साथ लिखी वह कविता मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ - ' भीगे नयन निहार रहे हैं '                तन-प्राणों से सजल स्वर, प्रियतम,तुम्हें पुकार रहे हैं।  देव! तुम्हारे सूने पथ को, भीगे नयन निह

मुझे मोक्ष नहीं चाहिए

              मोक्ष की अवधारणा कल्पना मात्र  है या वास्तविकता पर आधारित- यह विवाद का विषय तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि विवाद की सार्थकता तभी होती है जब सत्य तक पहुंचा जा सके। यद्यपि पौराणिक ग्रंथों और अन्य धर्म-शास्त्रों में इसका उल्लेख  है और इसका महात्म्य भी बताया गया है, लेकिन इसकी प्रामाणिकता इसलिए संभव नहीं हो सकी है क्योंकि यह विषय ही परालौकिक है।         ईश्वर है या नहीं है, इसका उत्तर

डायरी के पन्नों से ..."जीवन और मृत्यु"

 चलचित्र 'वक्त' के लिए आशा भोंसले की मदहोश आवाज़ में गाया गीत - 'आगे भी जाने न तू , पीछे भी जाने न तू , जो भी है बस यही इक पल है...कर ले पूरी आरज़ू !''- जिसने ध्यान से सुना है और इसके मर्म को समझा है, वह  निश्चित ही अपने जीवन के हर पल को जी रहा होगा। तो जी लो दोस्तों, अपने जीवन के हर पल को तबीयत से जी लो, क्योंकि.....अगले पल क्या होने वाला है किसी को नहीं पता ! ( ईश्वर करे सबके लिए सब-कुछ अच्छा ही हो। )     मेरी यह क्षणिका भी जीवन की क्षण-भंगुरता के कटु-सत्य को प्रदर्शित करती है।            "जीवन और मृत्यु"  सुबह का विश्वास लेकर,  शाम की आस लेकर,  आकाश में उड़ती चिड़िया,  अनायास ही,   दोपहर में   गिर पड़ी   धरती पर,  अपने पंख फड़फड़ा कर।              -----            

डायरी के पन्नों से ..."तृतीय विश्व युद्ध" -------

   तृतीय विश्व-युद्ध सम्भवतः नहीं होगा, लेकिन कुछ देश जिस तरह की गैर ज़िम्मेदाराना हरकतें कर रहे हैं, उससे एक डरावने भविष्य का संकेत मिल रहा है। यदि अनहोनी होती ही है तो परिणाम क्या होगा? इसी कल्पना की उपज है मेरी यह कविता...!

डायरी के पन्नों से ... "ईर्ष्या"

     कोई यदि किसी दूसरे के अधिकार की जगह पर स्थापित हो जाये तो उसके प्रति क्रोध, आक्रोश, दुःख, घृणा, ईर्ष्या या बदले की भावना या ऐसी ही कोई अन्य प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। ऐसा ही एक भाव मेरी इस क्षणिका में...!           "ईर्ष्या"   नींद पलकों को छूकर चली जाती है, हर रात जब वह आती है, क्योंकि- दिल में बसी हुई तुम्हारी तस्वीर, उसे मेरी आँखों में नज़र आती है।      -----   ki