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बँटवारा (लघुकथा)

केशव अपने कार्यालय से थका-मांदा घर आया था। पत्नी अभी तक उसकी किटी पार्टी से नहीं लौटी थी। बच्चे भी घर पर नहीं थे। चाय पीने का बहुत मन था उसका, किन्तु हिम्मत नहीं हुई कि खुद चाय बना कर पी ले। मेज पर अपना मोबाइल रख कर वहाँ पड़ी एक पत्रिका उठा कर ड्रॉइंग रूम में ही आराम कुर्सी पर बैठ गया और बेमन से पत्रिका के पन्ने पलटने लगा। एक छोटी-सी कहानी पर उसकी नज़र पड़ी, तो उसे पढ़ने लगा। एक परिवार के छोटे-छोटे भाई-बहनों की कहानी थी वह। कुछ पंक्तियाँ पढ़ कर ही उसका मन भीग-सा गया। बचपन की स्मृतियाँ मस्तिष्क में उभरने लगीं।   'मैं और छोटा भाई माधव एक-दूसरे से कितना प्यार करते थे? कितनी ही बार आपस में झगड़ भी लेते थे, किन्तु किसी तीसरे की इतनी हिम्मत नहीं होती थी कि दोनों में से किसी के साथ चूँ भी कर जाए। दोनों भाई कभी आपस में एक-दूसरे के हिस्से की चीज़ में से कुछ भाग हथिया लेते तो कभी अपना हिस्सा भी ख़ुशी-ख़ुशी दे देते थे। ... और आज! आज हम एक-दूसरे को आँखों देखा नहीं सुहाते। दोनों की पत्नियों के आपसी झगड़ों से परिवार टूट गया। दो वर्ष हो गये, माधव पापा के साथ रहता है और मैं उनसे अलग। पापा के साथ काम करते रह

क्या वाक़ई में...?

        एक समाचार के अनुसार सरकारी योजना-  योजना तो अच्छी है, लेकिन किसी ईमानदार अधिकारी (अगर कोई हो तो) को नियुक्त किया जाकर उसे निर्देश दिया जाना चाहिए कि वह सप्ताह में कम से कम एक-दो बार इन प्राणियों से पूछ ले कि क्या वाक़ई में इन्हें यह सब मिल रहा है 😜 ।

मुरझाये फूल (कहानी)

राजकीय बाल गृह में अफरातफरी मच गई थी। बाल गृह की महिला सहायिका ने बाल कल्याण अधिकारी के आने की सूचना चपरासी से मिलते ही अधीक्षक-कक्ष में जा कर अधीक्षक को बताया। अधीक्षक ने कुछ कागज़ात इधर-उधर छिपाये और शीघ्रता से अधिकारी जी की अगवानी हेतु कक्ष से बाहर निकले।  अधिकारी के समक्ष झुक कर नमस्कार करते हुए अधीक्षक ने स्वागत किया- "पधारिये, स्वागत है श्रीमान!"  "धन्यवाद! मैं, बृज गोपाल, बाल कल्याण अधिकारी! मेरी यह नई पोस्टिंग है। कैसा चल रहा है काम-काज?" "बस सर, अच्छा ही चल रहा है आपकी कृपा से। आइये, ऑफिस में पधारिये।" -चेहरे पर स्निग्ध मुस्कराहट ला कर अधीक्षक बोले।  अधीक्षक के साथ कार्यालय में आ कर बृज गोपाल ने चारों ओर नज़र घुमा कर देखा। दो-तीन मिनट की औपचारिक बातचीत के बाद उन्होंने बाल गृह से सम्बन्धित कुछ फाइल्स मंगवा कर देखीं। ऑफिस-रिकॉर्ड के अनुसार अधीक्षक के अलावा बाल गृह में एक महिला व एक कर्मचारी सहायक के रूप में कार्य करते थे। एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी था, जो चौकीदारी का दायित्व भी निभाता था। बाल गृह में कुल 28 बच्चे थे। अधीक्षक-कक्ष के अलावा बारह कमरे और

'महत्त्वहीन' (कहानी)

भूमिका:- कुछ दिन पहले कुछ पुराने कागज़ात ढूँढ़ने के दौरान मुझे अनायास ही कॉलेज के दिनों में लिखी अपनी कहानी 'महत्त्वहीन' की हस्तलिखित प्रति मिल गई, जिसे उस समय आयोजित अन्तर महाविद्यालय कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला था। मुझे कहानी का मूल कथानक तो अभी तक स्मरण था, किन्तु कहानी की उस समय की मौलिकता को स्मृति के आधार पर यथावत् लिख पाना मेरे लिए सम्भवतः दुष्कर कार्य था। अपनी उस हस्तलिखित प्रति में आंशिक सुधार कर के मैंने उस रचना को यह नया रूप दिया। अपने बालपन व किशोरावस्था में जिन अभावों व जीवन की दुरूहताओं से मैं रूबरू हुआ था, उन परिस्थितियों ने मुझे तब से ही कुछ अधिक संवेदनशील बना दिया था और उसके चलते अपने आस-पास व समाज में जो कुछ भी घटित होता था, उसे गहनता से देखने-समझने की प्रवृत्ति अनायास ही मुझमें पनपती चली गई। शनैः-शनैः भावनाएँ शब्दों का आकार ले कर कहानियों में बदलती चली गईं। मेरी अन्य कहानियों की तरह यह कहानी भी ऐसी ही एक भावनात्मक उपज है। मानवीय दुर्बलता, स्वार्थपरता एवं सामाजिक विवशता की भावनाओं के इर्द-गिर्द बुनी मेरी यह कहानी ‘महत्त्वहीन’ भी मेरी उसी तात्कालिक

'एक पत्र दोस्तों के नाम'

     मेरे प्यारे दोस्तों, मैं अपने एक सहयोगी राजनैतिक मित्र के साथ मिल कर पिछले एक माह से एक नई राजनैतिक पार्टी बनाने की क़वायद कर रहा था। आपको जान कर खुशी होगी कि हम अपने इस अभियान में सफल हो गए हैं, खुशी होनी भी चाहिए😊। न केवल पार्टी की संरचना को मूर्त रूप दिया जा चुका है, अपितु इसका नामकरण भी किया जा चुका है।   मित्रों, हमारी इस नई राष्ट्रीय पार्टी का नाम है- 'अवापा'! कैसा लगा आपको हमारी पार्टी का नाम, बताइयेगा अवश्य। हमारी पार्टी का मुख्य उद्देश्य देशसेवा तो है ही, एक और महत्वपूर्ण उद्देश्य यह भी है कि जो राजनेता देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत हैं, जिन्हें अन्य पार्टियों द्वारा तिरस्कृत किया गया है, उचित अवसर नहीं दिया गया है, उन्हें हमारी इस पार्टी में सही स्थान दिया जाए। हाँ, सही समझा आपने! यदि आप में से किसी भी शख़्स को किसी पार्टी से निराशा हासिल हुई है तो आपका स्वागत करेगी हमारी यह नई पार्टी, आपके जीवन में नई आशा का संचार करेगी।     कल के अखबार में निम्नांकित समाचार जब मैंने देखा तो सिद्धू जी की राजनीतिगत पीड़ा देख मन विह्वल हो उठा।                 मैं सिद्धू जी को भी आमन

'परिवर्तन' (लघुकथा)

                  X-पार्टी की पराजय के बाद एक सप्ताह पहले Y-पार्टी की सरकार बन गई थी।    X-पार्टी का कार्यकर्त्ता (अपनी ही पार्टी के एक छुटभैये नेता से)- "भाई साहब, एक बहुत ज़रूरी काम आन पड़ा है। ज़रा नेता जी से आपकी सिफारिश करवानी थी।" छुटभैया- "सॉरी भाई, आत्मा की आवाज़ पर अभी तीन दिन पहले मैंने Y-पार्टी जॉइन कर ली है। अब मेरी बात तुम्हारी X-पार्टी में कोई नहीं मानने वाला।"  "अरे भाई साहब, Y-पार्टी के नेता जी से ही तो सिफारिश करनी है। मैं भी Y-पार्टी में ही हूँ, कल मैंने भी इस पार्टी की सदस्यता ले ली थी। X-पार्टी में तो मेरा दम घुट रहा था।"                                                                              *****

'नकली दवा के नासमझ निर्माताओं- एक उद्बोधन'

                                                                        नकली दवा के नासमझ निर्माताओं,   निवेदन है कि सिरदर्द या छोटी-मोटी अन्य बीमारियों के लिए तुम लोग नकली दवा बना कर बाज़ार में बिकवा देते हो और कई स्तरों पर कमीशन बाँट कर अपनी जेबें लबालब भर लेते हो, यहाँ तक तो फिर भी चल जाता है, किन्तु कृपा कर के गम्भीर बीमारियों के मामलों में जनता पर थोड़ा रहम किया करो। सोचो भाई, नकली दवा या इंजेक्शन का इस्तेमाल करने से कोई काल के गाल में समा जायगा तो उसके परिवार पर क्या गुज़रेगी? यदि घर में वह इकलौता कमाने वाला हुआ तब तो उसके समूचे परिवार की बर्बादी निश्चित हो जाएगी न! सोचो भाई सोचो, अगर तुम्हारी नकली ड्रग से किसी मासूम की जान चली गई तो उसकी माँ की आँखों से बह रहे आँसुओं को कौन सुखा पायेगा? उसके पिता की बेबस निगाहों को तसल्ली कौन देगा? उसकी बहन किसके हाथ में राखी बांधेगी? यदि तुम्हारे ही  मासूम बच्चे की जान ऐसी ही किसी ड्रग के प्रयोग से चली गई तो तुम पर क्या बीतेगी?  मैंने तो यहाँ तक सुना है कि पूरे विश्व में प्रलय ला रही कोरोना महामारी के इस जटिल समय में तुम लोग रेमडेसिविर और वैक्सीन

आत्मबोध (कहानी)

                                                                           घर से बाहर आ कर आयुषी सड़क पर पहुँची और एक ऑटो रिक्शा को आवाज़ दी। ऑटो के पास में आने पर वह आदर्श नगर चलने को कह उसमें बैठ गई। आदर्श नगर यहाँ से करीब अठारह कि.मी. दूर था। ऑटो चलने लगा। ऑटो में लगी सी.डी. से गाना आ रहा था- 'जाने वाले, हो सके तो लौट के आना...'   "उफ़्फ़, चेंज करो यह गाना।" -वह झुंझलाई व धीरे-से बुदबुदाई, 'नहीं आना मुझे लौट के।'   "इतना तो अच्छा गाना है मैडम!" -ऑटो वाले ने बिना मुँह फेरे आश्चर्य से कहा।    "देखो, चेंज नहीं कर सकते तो बन्द कर दो इसे, मुझे नहीं सुनना यह गाना।"   ऑटो वाले ने गाना बदल दिया। नया गाना आने लगा- 'आजा, तुझको पुकारे मेरा प्यार..।'     गाना सुन कर आयुषी का मन खिल उठा। 'हाँ, आ रही हूँ तुम्हारे पास', मन ही मन मुस्करा दी वह।     गाना चल रहा था और वह खो गई उसके जीवन के उस  घटनाक्रम के चक्र में, जिसने उसके जीवन में हलचल मचा दी थी।    निखिल आलोक का दोस्त था। आलोक के ऑफिस में जॉब लगने कारण लगभग चार माह पहले ही वह इस शहर मे

-:दावत:-

                                                                             "यार, थोड़ा जल्दी तैयार हो जाओ न, भूख के मारे प्राण निकले जा रहे हैं।" -कुछ झुंझलाते हुए मैंने कहा।    "दो दिन का उपवास करने के लिए मैंने कहा था आपसे? तैयार होने में लेडीज़ को तो टाइम लगता ही है। आधे घंटे से कह रही हूँ कि पांच मिनट में तैयार हो रही हूँ और तुम हो कि जल्दी मचाये जा रहे हो। कम्बख़्त ढंग की साड़ी तो दिखे।" -वार्डरॉब में लटकी साड़ियों पर से नज़र हटा कर श्रीमती जी ने मेरी ओर आँखें तरेरीं।   अलमारी में रखी पचासों साड़ियों में से उनको कोई ढंग की साड़ी नज़र नहीं आ रही थी, इसका तो मेरे पास भी क्या इलाज था? गले में लटकी टाई को थोड़ा लूज़ करते हुए मैं कुर्सी पर बैठ गया। अभी तक तो साड़ी का चुनाव ही नहीं कर सकी हैं श्रीमती जी! साड़ी पसंद आने के बाद तैयार होने में और फिर तैयार हो कर शीशे में हर एंगल से दस-बीस बार निहारने में कम से कम एक घंटा तो और लगेगा ही उनको, यह मैं जानता था।   आधे-पौन घंटे बाद जब मैंने देखा कि अभी भी उनका मेक-अप तो बाकी ही है तो मैंने धीरे-से उन्हें मज़ाक में चेताया- "ऐस