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-:दावत:-

                                                                   

     

   "यार, थोड़ा जल्दी तैयार हो जाओ न, भूख के मारे प्राण निकले जा रहे हैं।" -कुछ झुंझलाते हुए मैंने कहा।

   "दो दिन का उपवास करने के लिए मैंने कहा था आपसे? तैयार होने में लेडीज़ को तो टाइम लगता ही है। आधे घंटे से कह रही हूँ कि पांच मिनट में तैयार हो रही हूँ और तुम हो कि जल्दी मचाये जा रहे हो। कम्बख़्त ढंग की साड़ी तो दिखे।" -वार्डरॉब में लटकी साड़ियों पर से नज़र हटा कर श्रीमती जी ने मेरी ओर आँखें तरेरीं।

  अलमारी में रखी पचासों साड़ियों में से उनको कोई ढंग की साड़ी नज़र नहीं आ रही थी, इसका तो मेरे पास भी क्या इलाज था? गले में लटकी टाई को थोड़ा लूज़ करते हुए मैं कुर्सी पर बैठ गया। अभी तक तो साड़ी का चुनाव ही नहीं कर सकी हैं श्रीमती जी! साड़ी पसंद आने के बाद तैयार होने में और फिर तैयार हो कर शीशे में हर एंगल से दस-बीस बार निहारने में कम से कम एक घंटा तो और लगेगा ही उनको, यह मैं जानता था।

  आधे-पौन घंटे बाद जब मैंने देखा कि अभी भी उनका मेक-अप तो बाकी ही है तो मैंने धीरे-से उन्हें मज़ाक में चेताया- "ऐसा न हो कि हम लोग इतनी देर से पहुँचें कि मेज़बान हमसे बोले, 'खाना तो ख़त्म हो गया है, अब तो आप बर्तन मांजो।'... हा हा हा।"

 "हँसूँ मैं?" -खा जाने वाली नज़रों से देखा मेरी तरफ और फिर जवाब का इन्तज़ार किये बिना वह अपने चेहरे पर पाउडर लपेड़ने में व्यस्त हो गईं। इधर मैं अपने विचारों में खो गया।

   कुछ दो-तीन माह पहले की बात है। मेरे एक घनिष्ठ मित्र के कारण शहर के एक बड़े रईस, प्रीतम दास जी से मेरा परिचय हो गया था। संयोग से मेरी नौकरी ऐसे विभाग में थी जहाँ प्रीतम दास जी का अक्सर काम पड़ता रहता था, सो मुझसे संपर्क बनाये रखने में उनकी भी रुचि थी। उन्हीं प्रीतम दास जी के बेटे की शादी के रिसेप्शन में आज हमें जाना था। सुनने में आया था कि खाने में कोई अठारह-बीस तरह की मिठाइयाँ, दस-बारह तरह की सब्ज़ियाँ व रायते और नान, बीसियों सलाद व लच्छा-पराँठा, आदि रोटी की सात-आठ तरह की किस्मों के अलावा कई तरह के स्नैक्स उनके वहाँ के भोजों में बनते हैं और आइसक्रीम, कॉफी, वगैरह अन्य पदार्थ तो मामूली-सी बात है। कई दिनों बाद किसी दावत में शरीक होना था और मैं ठहरा ब्राह्मण, मिठाइयों का रसिया, सो छक कर माल उड़ाने के इरादे से दो दिन का उपवास कर डाला था।

  भूख से कुलबुला रहा था मैं, किन्तु श्रीमती जी से अब कुछ और कहने की हिम्मत नहीं थी, अतः ख़ामोशी से इन्तज़ार करने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था।

   अन्ततोगत्वा वह तैयार हो गईं। देर तो लगी तैयार होने में उनको, लेकिन उन्हें देखा तो आँखें उनके चेहरे से हटने का नाम ही नहीं ले रही थीं।

   "अब वहाँ जा कर खाना खाना है या मुझे खाओगे, कब तक यूँ ही देखते रहोगे मुझे?" -कृत्रिम रोष के साथ वह बोलीं।

 "पहले तो खाना ही खाऊँगा महोदया जी!" -मैं मुस्कराया।

  "अच्छा-अच्छा, चलो भी अब। इस उम्र में भी शरारत सूझती रहती है आपको तो!" -मुझे दरवाज़े की ओर ठेलते हुए बोलीं श्रीमती जी।

  हमारी कार सड़क पर दौड़ रही थी और मेरे पेट में चूहे कूद रहे थे। खैर, पहुँचे हम रिसेप्शन में। बिना नाम लिखा खाली लिफाफा जो मैं साथ लाया था, मैंने मेहमानों का स्वागत कर रहे प्रीतम दास जी की ओर बढ़ाया। शादी के समय की पारम्परिक मुस्कान के साथ यांत्रिक रूप से हाथ जोड़ कर प्रीतम दास जी ने कहा- "नहीं बन्धुवर! लिफाफा नहीं लेंगे, किसी से नहीं ले रहे हैं।"

  प्रत्युत्तर में हाथ जोड़ कर हम दोनों आगे बढ़ गये। मुझे लिफाफा खाली लाने के कारण बहुत शर्म व ग्लानि महसूस हुई। पहले पता होता कि वह लिफाफा नहीं लेंगे तो मैं लिफाफे में 1100/- रुपये रख कर लाता।

    भोजन-स्थल पर पहुँच कर प्लेट हाथ में थामे हम भी अन्य लोगों के साथ कतार में लग गये। विभिन्न पकवानों की भीड़ देख कर मुझे लगा कि कम्बख़्त प्लेट बहुत छोटी है। श्रीमती जी के कारण देरी हो जाने का सारा गुस्सा अब खाने पर उतारना था, सो पिल पड़ा मैं अपनी पसंदीदा चीज़ों पर और अपनी सामान्य क्षमता से दुगुना खा लिया। पेट जबरदस्त भर गया था। अंतिम ग्रास निगलने के बाद प्लेट रख कर मैं श्रीमती जी के पास जा कर कुर्सी पर बैठ गया, जो खाना खा लेने के बाद दस-पंद्रह मिनट से मेरी प्रतीक्षा कर रही थीं।

    बैठे-बैठे मैंने खाई गई सामग्री का अन्दाज़ लगाया तो खाद्य-पदार्थों की गुणवत्ता को देखते हुए यह कम से कम तीन हज़ार रुपये की रही होगी। अगर प्रीतम दास से कुछ और घनिष्ठता होती तो बच्चों के नाम से घर के लिए भी कुछ भोजन पैक करा लेता। बच्चे तो बाहर पढ़ रहे हैं, पर मेरा कल का इन्तज़ाम हो जाता। श्रीमती जी मेरे फूले हुए पेट की तरफ देख रही थीं और मैं डकार लेते हुए पेट पर हाथ फिरा रहा था। पेट के साथ-साथ मेरी तो आत्मा भी तृप्त हो गई थी।

  अंत में श्रीमती जी कॉफी-स्टॉल की ओर बढ़ीं। मैंने निश्चय कर लिया था, पेट में एक इंच की भी जगह नहीं बची है अतः कॉफी नहीं लूँगा कि अनायास पास ही में मौजूद आइसक्रीम-स्टॉल पर नज़र फिसली। अब, आइसक्रीम के बिना दावत का क्या मज़ा, सो दो प्लेट आइसक्रीम खाई। ओवरलोडेड ट्रक जैसी हालत हो गई थी मेरी, सो कुछ ही दूरी पर रखी कुर्सी पर जा कर अधलेटा पसर गया। इतना अधिक खा लिया था कि अब बेचैनी अनुभव कर रहा था। मुझे वास्तव में इतना नहीं खाना चाहिए था।

  श्रीमती जी की कॉफी ख़त्म होने के बाद जैसे-तैसे हम घर पहुँचे। पेट में भार ज़्यादा हो जाने से मुझे बेहद परेशानी हो रही थी।

   रात को मैं ढंग से सो नहीं सका। अगले दिन मेरी हालत और बिगड़ गई, ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ी सो अलग! अजीर्ण हो जाने से ज़बरदस्त बेचैनी हो रही थी। न लेटा जा रहा था, न ही बैठा जा रहा था। कम्बख़्त वॉमिट भी नहीं हो रहा था कि कुछ आराम मिल पाता। रात होते-होते बुखार भी हो आया। अब तो मेरे साथ ही श्रीमती जी भी परेशान हो उठीं। उन्होंने हमारे फैमिली डॉक्टर को फोन कर दिया।

    मैं एक मध्यमवर्गीय शहरी हूँ, किन्तु अक्सर चिकित्सा-सहायता की ज़रुरत हो आती है, इसलिए हमारा एक फ़ैमिली डॉक्टर भी है। डॉक्टर साहब बहुत ही संजीदा और व्यावहारिक व्यक्ति हैं। फोन मिलते ही वह घर आ गये। श्रीमती जी ने इतने परेशान स्वरों में बात की थी कि आते ही सबसे पहले तो थर्मामीटर निकाल कर मेरा टेम्परेचर लिया, फिर बोले- "100. 8 डिग्री बुखार है। यह अचानक तबियत कैसे ख़राब कर ली शर्मा जी? आपका पेट तो मटका बना हुआ है। क्या खा लिया ऐसा आपने?" -कहते हुए उन्होंने मेरे पेट को दबा कर देखा।

 "अरे, कुछ भी तो नहीं डॉक्टर साहब! कल एक रिसेप्शन में गये थे हम लोग। आप तो जानते ही हैं कि बाहर का खाना मुझे कुछ कम ही सूट करता है, तो हो गई तबीयत ख़राब।"

"हा हा हा... लगता है जम कर माल उड़ाया है। चलिए, जो हुआ सो हुआ। दरअसल जबरदस्त अपच हो गया है आपको। मैं एक इंजेक्शन तो अभी लगा देता हूँ और बाकी दवाइयाँ लिख देता हूँ जो आप को एक सप्ताह तक लेनी होंगी।... और हाँ, आपको पूरा आराम भी करना होगा।"

  "डॉक्टर साहब, कोई ज़्यादा समस्या तो नहीं है न?" -श्रीमती जी ने चिन्तित  हो कर पूछा।

  "नहीं-नहीं, ठीक हो जाएँगे, चिंता की कोई बात नहीं है। बस, आप इन्हें नियमित रूप से दवाई दें।" -डॉक्टर साहब ने सान्त्वना दी।


 “डॉक्टर साहब, तीन दिन बाद एक और रिसेप्शन है। अगर तबीयत कुछ ठीक हो जाए तो क्या मैं उस भोज में शरीक़ हो सकता हूँ?” -सहसा याद आ गया तो मैंने पूछ लिया। 


 श्रीमती जी ने मेरी और घूर कर देखा। डॉक्टर साहब ने कोई जवाब नहीं दिया और चले गये। दोनों की प्रतिक्रिया देख कर मुझे आश्चर्य हुआ। डॉक्टर से पूछ कर मैंने कोई गुनाह तो नहीं किया था, आखिर सेहत से जुड़ा मामला था। 


 स्वस्थ होने के बाद मैंने हिसाब लगाया, दवाइयों में कुल साढ़े आठ हज़ार रुपये खर्च हो गए थे।

  मैंने जो यह भुगता, उसके बाद तो मैंने अपने सभी दोस्तों और मिलने वालों को सचेत कर दिया है कि यदि ऐसे अनावश्यक खर्च से बचना है तो ध्यान रखें कि कभी भी किसी दावत में जाएँ तो खाने में थोड़ा संयम रखें। (मैं भले ही भविष्य में भी संयम न रख पाऊँ।)

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