दि. 19-12-1969 को लिखी गई थी मेरी यह कविता। यह समय वह था, जब निजलिंगप्पा के रुतबे को ध्वस्त कर इंदिरा गांधी ने अपना वर्चस्व कायम किया था। (उन दिनों 85/- रुपये मायने रखते थे।) भूतपूर्व मिनिस्टर कमिश्नर के घर तक कई बार भटका था, क्योंकि बी.ए. की परीक्षा में कई बार अटका था- कि कहीं मिल जाय नौकरी चपरासी की, कि कहीं बंध जाय तनखा पिच्यासी की। ... दरवाज़े पर- हुक्म के पाबन्द, बेवकूफ ज़्यादा, कुछ अक़लमंद, चपरासी ने साहब के बुलडॉग को धीरे से दुलार लिया, चूम कर प्यार किया; और हमारी अर्जी को हाथों में मसल कर, कुछ ऐसे दुत्कार दिया- "जाओ-जाओ, अभी साहब को...