एक और प्रस्तुति मित्रों... पलकों की छाया में सुन्दर, आँखों का यह नील सरोवर। इन नयनों से जाने कितने, दीवानों ने प्यार किया। देवलोक से आने वाली, परियों ने अभिसार किया। कुछ गर्व से, कुछ शर्म से, छा जाती लाली मुख पर। "पलकों की..." सांझ हुई जब दीप जले, वीराने भी चमक उठे। दम भर को लौ टिकी नहीं कुछ ऊपर जब नयन उठे। पलकें उठ, झुक जाती हैं, कुछ कह देने को तत्पर। "पलकों की..." जब भी पलकें उठ जाती हैं, वक्त वहीं रुक जाता है। हँस उठती हैं दीवारें भी, ज़र्रा ज़र्रा मुस्काता है। किन्तु प्रलय भी हो जाता, देखें जब तिरछी होकर। "पलकों की..." पलकों की कोरों से शायद, बादल ने श्यामलता पाई। शायद इनको निरख-निरख, फूलों में