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संदेश

वसुधैव कुटुम्बकम् 'व्यंग्य लघुकथा'

                                                                                                                                                      आज रविवार था, सो बाबू चुन्नी लाल जी शहर के चौपाटी वाले बगीचे में अपने परिवार को घुमाने लाए थे। कुछ देर इधर-उधर घूमने के बाद अचानक उन्हें बगीचे के किनारे पान की दूकान पर माधव जी खड़े दिखाई दे गए। माधव जी पहले इनके मोहल्ले में ही रहा करते थे, लेकिन अब दूसरे मोहल्ले में चले गए थे। तथाकथित समाज-सेवा का जूनून था माधव जी को, तो पूरे मोहल्ले के लोगों से अच्छा संपर्क रखते थे। मोहल्ले की कमेटी के स्वयंभू मुखिया भी बन गए थे। मोहल्ले के विकास के लिए चन्दा उगाहा करते थे और उस चंदे से समाज-सेवा कम और स्वयं की सेवा अधिक किया करते थे। वह कड़वा किसी से नहीं बोलते थे, किन्तु किस से कैसे निपटना है, भली-भांति जानते थे। वाकपटु होने के साथ कुछ दबंग प्रवृत्ति के भी थे, अतः किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि उनसे चंदे का हिसाब मांग सके। एक चुन्नी लाल जी ही थे, जो उनसे कुछ कहने में झिझक नहीं रखते थे। चुन्नी लाल जी उनसे संपर्क करने का प्रयास पहले भी कर चुके थे, लेकिन उ

इन्तहा (कहानी)

                                                                                                                                                                    "एक तो रास्ता इतना ख़राब, ऊपर से अंधेरे में बाइक की हैडलाइट के सहारे चलना... तौबा-तौबा! यार अनिरुद्ध! अब और कितना दूर है तुम्हारा माधोपुर?" -बाइक पर पीछे बैठे डॉ. आलोक सिन्हा ने हल्की झुंझलाहट के साथ अपने मित्र से पूछा। "बस, एक किलोमीटर दूर है अब तो। पहुँचने को ही हैं हम लोग।" -सड़क पर नज़र गड़ाए डॉ. अनिरुद्ध ने जवाब दिया।  माधोपुर पहुँचे दोनों मित्र, तो रात के साढ़े आठ बज रहे थे। अपने चाचा पण्डित गोरख नाथ की तबीयत ख़राब होने की ख़बर मिलने से अनिरुद्ध अपने घनिष्ठ मित्र  डॉ. अलोक को साथ लेकर यहाँ आया था। पण्डित जी के घर पहुँच कर बाइक एक ओर खड़ी कर के अनिरुद्ध ने दरवाजा खटखटाते हुए आवाज़ लगाई- "चाचाजी!"  लगभग 65 वर्षीय बुज़ुर्ग महिला ने दरवाजा खोला- "आओ बेटा, भीतर आ जाओ।" पहले अनिरुद्ध और फिर आलोक ने उनके पाँव छूए। दोनों के भीतर आने पर कमरे में एक ओर रखे तख़्ते पर दरी बिछा कर वृद्धा ने उन्हें इशार

'सिलसिला' (रुबाई)

                                                                                                                                 न तुम्हारे हो सके हम, न किसी और ने थामा हमको, ताउम्र मुन्तशिर रहे हम, ऐसा सिलसिला दे दिया तुमने!  कभी कहा करते थे तुम, हमें इश्क करना नहीं आता, तुम्हें तो इल्म ही नहीं, कितने आशिक पढ़ा दिये हमने!  ***** मुन्तशिर = बिखरा-बिखरा  इल्म = जानकारी 

संवेदना

   कदम-कदम पर जब हम अपने चारों ओर एक-दूसरे को लूटने-खसोटने की प्रवृत्ति देख रहे हैं, तो ऐसे में इस तरह के दृष्टान्त गर्मी की कड़ी धूप में आकाश में अचानक छा गये घनेरे बादल से मिलने वाले सुकून का अहसास कराते हैं। मैं चाहूँगा कि पाठक मेरा मंतव्य समझने के लिए सन्दर्भ के रूप में अख़बार से मेरे द्वारा लिए संलग्न चित्र में उपलब्ध तथ्य का अवलोकन करें। एक ओर वह इन्सान है, जिसने एक व्यक्ति के देहान्त के बाद उससे अस्सी हज़ार रुपये में गिरवी लिये मकान पर अपना अधिकार कर उसकी पत्नी सोनिया वाघेला को परिवार सहित सड़क पर  बेसहारा भटकने के लिए छोड़ दिया और दूसरी ओर वह दिनेश भाई, जिन्होंने उस पीड़ित महिला की स्थिति जान कर अपनी संस्था एवं वाघेला-समाज के लोगों की मदद से सेवाभावी लोगों से चन्दा एकत्र कर आवश्यक धन जुटाया और उस परिवार का  घर वापस दिलवाया। धन्य है यह महात्मा, जिसने अपने नेतृत्व में अन्य सहयोगियों को भी मदद के लिए उत्साहित कर यह पुण्य कार्य किया।  सोनिया बेन घरबदर होने के बाद छः माह से फुटपाथ पर रह कर कबाड़ बीन कर अपने चार बच्चों के साथ गुज़र-बसर कर रही थी। इस लम्बी अवधि में कई और लोग भी उस महिला के हा

ओमिक्रॉन

             कितना सुन्दर नाम है 'ओमिक्रॉन'! पढ़-सुन कर लगता है, जैसे किसी अच्छे ब्रैण्ड का मोबाइल या कम्प्यूटर हो, लेकिन कम्बख़्त है यह एक दुखदायी वायरस!... बेड़ा गर्क हो इस मुँहजले बहरूपिये जीवाणु का😞😠! *****

पड़ोसी की बदहाली (व्यंग्य लेख)

           पता नहीं, आप क्रिकेट के मैदान में रन कैसे बना लेते थे इमरान साहब! सियासत के मैदान पर तो आप लगातार क्लीन बोल्ड हो रहे हो। वैसे तो आपके मुल्क के अभी तक के सभी हुक्मरान उल्टी खोपड़ी के ही देखने में आए हैं। आप लोगों की हालत ऐसे आदमी जैसी है जिसके पास एक बीवी को खिलाने की औकात नहीं है और दो-तीन निकाह के लिये उतावला रहता है। तो, बड़े मियां, मानोगे मेरी एक सलाह? मौके का फायदा उठा कर ज़बरदस्ती कब्जाया POK लौटा दो हमारे भारत को। वैसे भी कड़की भुगत रहा इन्सान अपने घर की चीजें बेच कर अपनी ज़रूरतें पूरी करने को मजबूर हो जाता है। ... और फिर POK तो आपका अपना माल भी नहीं है, देर-सवेर हम वापस ले ही लेंगे आपसे। एक बात और कहूँ आप बुरा न मानें तो! देखिये, अमेरिका ने आपको घास डालनी बन्द कर दी है और आपको भी अच्छे-से पता है कि आपका वो गोद लिया पापा है न, क्या नाम है उसका, हाँ याद आया, 'चीन', तो वह तो मतलब का यार है आपका।...अब मुझे ही कुछ करना पड़ेगा आपके लिए! भुखमरी के आपके इन हालात में मैं आपको बमुश्किल दो-तीन हज़ार रुपये की अदद मदद कर सकता हूँ। सौ-पाँचसौ की बढ़ोतरी और भी करता, मगर क्या करूँ पें

लैंडमार्क (लघुकथा)

मेरा पुराना मित्र विकास एक साल पहले इस शहर में आया था। मैं भी उससे तीन माह पहले ही यहाँ आया था। उसके आने की सूचना मिलने के कुछ ही दिन बाद उससे फोन पर बात कर उसके घर का पता पूछा, तो उसने चहकते हुए जवाब दिया था- "अरे वाह, तो आखिर तुम आ रहे हो! यार, मैं तो ज़बरदस्त व्यस्तता के कारण तुम से मिलने नहीं आ पाया, पर तुम तो मिलने आ सकते थे न!" "क्या बताऊँ दोस्त? कोरोना की आफत ने घर से बाहर निकलना ही दुश्वार कर दिया है, फिर भी आज हिम्मत कर रहा हूँ। तुम अपने घर का पता तो बताओ।" -मैंने कहा था।  "गली का नाम तो मुझे ठीक से याद नहीं है, लेकिन तुम ऐसा करना कि जनरल हॉस्पिटल तक आने वाली सड़क पर सीधे चले आना। हॉस्पिटल से आधा किलो मीटर पहले सड़क पर दो बड़े गड्ढे दिखाई देंगे। बड़ा वाला गड्ढा तो सड़क के एक किनारे पर है और दूसरा उससे छोटा वाला सड़क के बीचोंबीच दिखाई देगा। तो बस, बड़े गड्ढे के पास वाली गली में बायीं तरफ छः मकान छोड़ कर सातवें  मकान में रहता हूँ। मकान मालिक का नाम राजपाल सिंह है। समझ गये न?" मेरे लिए भी यह शहर नया ही था। मैं उसके बताये पते पर बिना कठिनाई के पहुँच गया था क्य