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लैंडमार्क (लघुकथा)

मेरा पुराना मित्र विकास एक साल पहले इस शहर में आया था। मैं भी उससे तीन माह पहले ही यहाँ आया था। उसके आने की सूचना मिलने के कुछ ही दिन बाद उससे फोन पर बात कर उसके घर का पता पूछा, तो उसने चहकते हुए जवाब दिया था- "अरे वाह, तो आखिर तुम आ रहे हो! यार, मैं तो ज़बरदस्त व्यस्तता के कारण तुम से मिलने नहीं आ पाया, पर तुम तो मिलने आ सकते थे न!"

"क्या बताऊँ दोस्त? कोरोना की आफत ने घर से बाहर निकलना ही दुश्वार कर दिया है, फिर भी आज हिम्मत कर रहा हूँ। तुम अपने घर का पता तो बताओ।" -मैंने कहा था। 

"गली का नाम तो मुझे ठीक से याद नहीं है, लेकिन तुम ऐसा करना कि जनरल हॉस्पिटल तक आने वाली सड़क पर सीधे चले आना। हॉस्पिटल से आधा किलो मीटर पहले सड़क पर दो बड़े गड्ढे दिखाई देंगे। बड़ा वाला गड्ढा तो सड़क के एक किनारे पर है और दूसरा उससे छोटा वाला सड़क के बीचोंबीच दिखाई देगा। तो बस, बड़े गड्ढे के पास वाली गली में बायीं तरफ छः मकान छोड़ कर सातवें  मकान में रहता हूँ। मकान मालिक का नाम राजपाल सिंह है। समझ गये न?"

मेरे लिए भी यह शहर नया ही था। मैं उसके बताये पते पर बिना कठिनाई के पहुँच गया था क्योंकि उसके द्वारा बताया गया लैंडमार्क (गड्ढे) आसानी से मिल गया था। खूब गपशप मारी हम दोनों ने, बहुत मज़ा आया था। उसने जो कुछ बताया उसके हिसाब से वाक़ई उसे बिलकुल समय नहीं मिलता था। अपनी कम्पनी के किसी बहुत बड़े और उलझे हुए प्रोजेक्ट पर काम कर रहा था वह।

... तो कोरोना का असर कुछ काम होने पर आज एक साल बाद फिर उससे मिलने की इच्छा हो आई। उसका पता फिर से पूछना ज़रूरी था, क्योंकि उसकी गली के आस-पास चार-पाँच गलियाँ थीं, सो उसके वाली गली का पता कैसे चलता? एक साल बाद अब वह गड्ढे तो मौजूद होंगे नहीं।... और फिर हो सकता है, उसने अपना मकान ही बदल लिया हो। फोन लगा कर पता पूछा तो बोला- "अरे भाई, आये तो थे तुम मेरे घर, दुबारा क्यों पूछ रहे हो?"

"अच्छा, तो तुम उसी मकान में रह रहे हो? लेकिन तुम्हारी गली पहचानूँगा कैसे, वह गड्ढे तो होंगे नहीं अब तक?"

"नहीं यार, वह गड्ढे अभी भी मौजूद हैं और पहले से कुछ और बड़े हो गए हैं। तुम्हें गली ढूंढने में बिल्कुल परेशानी नहीं होगी। वैसे मेरे वाली गली का नाम रणछोड़ गली है।… पर हाँ, जरा सावधानी से आना। पिछले एक साल में चार-पांच लोग उन गड्ढों में गिर कर ज़ख़्मी हो चुके हैं और एक बेचारा तो मर ही गया था" -उसकी आवाज़ में दर्द सिमट आया था। 

मैं समझ नहीं पा रहा था कि उक्त गड्ढों वाले लैंडमार्क को अभी तक यथावत् कायम रखने के लिए नगर निगम का शुक्रिया अदा करूँ या…?

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टिप्पणियाँ

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (18 -10-2021 ) को 'श्वेत केश तजुर्बे के, काले केश उमंग' (चर्चा अंक 4221) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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    उत्तर
    1. बहुत आभार यादव साहब, अवश्य उपस्थित होऊँगा।

      हटाएं
  2. सरकारी काम पर बहुत सुंदर कटाक्ष।

    जवाब देंहटाएं

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