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वसुधैव कुटुम्बकम् 'व्यंग्य लघुकथा'

                                                                   
                                                                                 



आज रविवार था, सो बाबू चुन्नी लाल जी शहर के चौपाटी वाले बगीचे में अपने परिवार को घुमाने लाए थे। कुछ देर इधर-उधर घूमने के बाद अचानक उन्हें बगीचे के किनारे पान की दूकान पर माधव जी खड़े दिखाई दे गए।

माधव जी पहले इनके मोहल्ले में ही रहा करते थे, लेकिन अब दूसरे मोहल्ले में चले गए थे। तथाकथित समाज-सेवा का जूनून था माधव जी को, तो पूरे मोहल्ले के लोगों से अच्छा संपर्क रखते थे। मोहल्ले की कमेटी के स्वयंभू मुखिया भी बन गए थे। मोहल्ले के विकास के लिए चन्दा उगाहा करते थे और उस चंदे से समाज-सेवा कम और स्वयं की सेवा अधिक किया करते थे। वह कड़वा किसी से नहीं बोलते थे, किन्तु किस से कैसे निपटना है, भली-भांति जानते थे। वाकपटु होने के साथ कुछ दबंग प्रवृत्ति के भी थे, अतः किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि उनसे चंदे का हिसाब मांग सके। एक चुन्नी लाल जी ही थे, जो उनसे कुछ कहने में झिझक नहीं रखते थे। चुन्नी लाल जी उनसे संपर्क करने का प्रयास पहले भी कर चुके थे, लेकिन उन  महाशय से मिलना अभी तक संभव नहीं हो सका था। 

आज देखा माधव जी को, तो चुन्नी लाल जी का दिमाग घूम गया, 'मोहल्ले के कुत्ते लोगों की दी रोटी खाते हैं, तो मोहल्ले को छोड़ कर कहीं नहीं जाते और रात को अजनबियों पर भौंक कर अपना कर्तव्य निभाते हैं। यह महाशय तो ऐसे गायब हुए, जैसे गधे के सिर से सींग। मोहल्ले के चंदे से नहीं के बराबर ही सही, कुछ तो काम करते थे और अब तो सारा ही हजम कर गए। आज खबर लेता हूँ बच्चू की', मन में कहते हुए अपनी पत्नी व बच्चों को एक बैन्च पर बैठाया और चल दिये उनकी ओर। 

"कैसे हो माधव जी? अब तो दूज के चाँद हो गए हो, दिखते ही नहीं कभी। न ही कभी पलट कर अपने पुराने मोहल्ले में आये।" -उनके पास जाते ही शुरू हो गए चुन्नी लाल जी। 

"अरे भाई, चुन्नी जी, आप यहाँ?... यहाँ कैसे?" 

"बस जैसे आप आये हैं, मैं भी आया हूँ।"

"अच्छा-अच्छा! पान खाओगे?"

"नहीं, धन्यवाद! ... हाँ माधव जी, आप तो जानते ही हो, मैं लपेट कर बात करना नहीं जानता, सो सीधे ही काम की बात पर आता हूँ।" -चुन्नी लाल जी ने सपाट स्वर में कहा। 

कुछ बेरुखी के साथ माधव जी ने प्रश्नवाचक दृष्टि उन पर डाली। 

"मोहल्ला छोड़ते वक्त मोहल्ले की कमेटी में न तो आपने चंदे के पैसे की बचत जमा कराई और  न ही चंदे का हिसाब बताया। मोहल्ले वाले जानना चाहते हैं हिसाब।" -चुन्नी लाल जी ने बेसाख्ता कह दिया। 

"ओह, तो उनका नुमाइंदा बन कर आये हो। अरे भाई, कैसी छोटी बात कर दी आपने? मैं जो कुछ लेता था, सारा मोहल्ले पर ही तो खपा देता था।... और थोड़ा कुछ बचा भी होगा तो इधर सेवा में लगा दिया, जहाँ अब रहता हूँ। इस मोहल्ले या उस मोहल्ले में कोई फ़र्क नहीं मानता मैं तो। सब अपने ही तो भाई हैं।" -माधव जी ने वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श दर्शाया। 

इस घाघ आदमी को क्या जवाब दिया जाये, यह सोच ही रहे थे चुन्नी लाल जी कि तभी माधव जी ने अपना हाथ उनके कन्धे पर रखते हुए अपना प्रवचन आगे बढ़ाया- "अरे भाई, हम तो समाज-सेवा कर रहे हैं। आपने देश-सेवा करने वाले नेताओं को नहीं देखा? जनता अपनी पसंदीदा पार्टी के उम्मीदवार को वोट देकर चुनती है और वही नेता जीतने के बाद बहुमत लाने वाली दूसरी पार्टी को अपना समर्थन देकर उसमें शामिल हो जाता है। दूसरी पार्टी भी उसको माला पहना कर हाथों-हाथ स्वीकार करती है और ऊँचा ओहदा भी देती है। पार्टी-वार्टी मायने नहीं रखती उनके लिए, उन्हें तो देश-सेवा करनी होती है। ख़ैर छोडो, आपकी समझ में नहीं आएँगी यह बातें।... और हाँ, मोहल्ले वालों को मेरा याद करना अवश्य कहना।" -माधव जी अपनी बात पूरी कर बिना जवाब का इंतज़ार किये चलते बने। 

... और सिर खुजलाते चुन्नी लाल जी अपने परिवार के पास लौट चले। 

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टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर रविवार 06 फ़रवरी 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  2. सब समाजसेवी ऐसे ही होते हैं । आखिर वो भी तो समाज का हिस्सा हैं न ।अपनी सेवा भी तो समाज की ही सेवा है न ।
    बहुत खूब।

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  3. वाह महोदया, सटीक प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद!

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