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संदेश

'परिवर्तन' (लघुकथा)

                  X-पार्टी की पराजय के बाद एक सप्ताह पहले Y-पार्टी की सरकार बन गई थी।    X-पार्टी का कार्यकर्त्ता (अपनी ही पार्टी के एक छुटभैये नेता से)- "भाई साहब, एक बहुत ज़रूरी काम आन पड़ा है। ज़रा नेता जी से आपकी सिफारिश करवानी थी।" छुटभैया- "सॉरी भाई, आत्मा की आवाज़ पर अभी तीन दिन पहले मैंने Y-पार्टी जॉइन कर ली है। अब मेरी बात तुम्हारी X-पार्टी में कोई नहीं मानने वाला।"  "अरे भाई साहब, Y-पार्टी के नेता जी से ही तो सिफारिश करनी है। मैं भी Y-पार्टी में ही हूँ, कल मैंने भी इस पार्टी की सदस्यता ले ली थी। X-पार्टी में तो मेरा दम घुट रहा था।"                                                                              *****

'मेरी दूसरी रोटी?'

                         आज बहुत परेशान हूँ मैं। कल तक मैं दो चपाती सुबह और एक चपाती शाम को खाता था। आज सुबह मेरी प्लेट में एक चपाती ही रखी गई। चपाती ख़त्म कर ली तो मैंने दूसरी की मांग की। पत्नी जी ने साफ़ इन्कार कर दिया, कहने लगीं- "खाना सुबह-शाम मैं बनाती हूँ। आपसे इतना भी नहीं होता कि बर्तन मांजने और झाड़ू-पौंछा में ही कुछ मदद कर दो। अब आपको दोनों समय गुज़ारे लायक मात्र एक-एक रोटी ही मिलेगी।"   बची हुई सब्ज़ी ख़त्म की और हाथ धो कर उठ खड़ा हुआ। सोच रहा हूँ कि श्रीमती जी मेरी  व्यस्तता और ज़िम्मेदारियों को क्यों नहीं समझतीं। एक तरफ साहित्य की सेवा में कुछ अर्पण करना तो दूसरी तरफ फेसबुक और व्हाट्सएप्प से सम्बंधित ज़िम्मेदारियाँ निभाना। अकेली जान, आखिर क्या-क्या करूँ मैं? वह जानती हैं कि सुबह से रात तक हर समय मोबाइल और कंप्यूटर में सिर खपाता रहता हूँ, फिर भी उनका मन नहीं पसीजता।     मित्रों! आपके सिवा और कौन है, जिसे मैं अपना दुखड़ा सुनाऊँ? आप ही बताइये, आपका यह निरीह मित्र क्या करे? सुबह की मेरी दूसरी रोटी का जुगाड़ कैसे हो? पत्नी जी कोरोना के भय से मदद के लिए मेड नहीं रख पा रही हैं, इस

'नकली दवा के नासमझ निर्माताओं- एक उद्बोधन'

                                                                        नकली दवा के नासमझ निर्माताओं,   निवेदन है कि सिरदर्द या छोटी-मोटी अन्य बीमारियों के लिए तुम लोग नकली दवा बना कर बाज़ार में बिकवा देते हो और कई स्तरों पर कमीशन बाँट कर अपनी जेबें लबालब भर लेते हो, यहाँ तक तो फिर भी चल जाता है, किन्तु कृपा कर के गम्भीर बीमारियों के मामलों में जनता पर थोड़ा रहम किया करो। सोचो भाई, नकली दवा या इंजेक्शन का इस्तेमाल करने से कोई काल के गाल में समा जायगा तो उसके परिवार पर क्या गुज़रेगी? यदि घर में वह इकलौता कमाने वाला हुआ तब तो उसके समूचे परिवार की बर्बादी निश्चित हो जाएगी न! सोचो भाई सोचो, अगर तुम्हारी नकली ड्रग से किसी मासूम की जान चली गई तो उसकी माँ की आँखों से बह रहे आँसुओं को कौन सुखा पायेगा? उसके पिता की बेबस निगाहों को तसल्ली कौन देगा? उसकी बहन किसके हाथ में राखी बांधेगी? यदि तुम्हारे ही  मासूम बच्चे की जान ऐसी ही किसी ड्रग के प्रयोग से चली गई तो तुम पर क्या बीतेगी?  मैंने तो यहाँ तक सुना है कि पूरे विश्व में प्रलय ला रही कोरोना महामारी के इस जटिल समय में तुम लोग रेमडेसिविर और वैक्सीन

'क्या पुरुष स्वभावतः क्रूर है?'

                                          इन दिनों कतिपय लेखिकाओं की कुछ ऐसी रचनाओं की बाढ़-सी आ गई है जिनसे प्रतीत होता है जैसे  महिला-वर्ग एक सर्वहारा वर्ग है। अधिकांश रचनाओं में उन्हें शोषित व पुरुष-वर्ग को शोषक के रूप में प्रक्षेपित किया जा रहा है। उन रचनाओं को पढता हूँ, किन्तु कितना भी अच्छा लिखा गया हो, यथासम्भव अपनी टिप्पणी देने से परहेज करता हूँ। उन रचनाओं को पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि महिलाओं के सभी कष्टों का मूल पुरुष मात्र है। कुछ लेखिकाएँ निरन्तर किसी प्रताड़ित महिला के संपर्क में रही हों, ऐसा भी सम्भव है। उन रचनाओं में स्त्रियों को निरीह गाय व पुरुषों को क्रूर भेड़िये का प्रतीक बना दिया जाता है। कहीं-कहीं तो उनमें आक्रोश इस कदर नज़र आता है जैसे स्त्रियों को पुरुष का वज़ूद ही स्वीकार्य न हो। मन व्यथित हो उठता है यह सब देख कर!    हमें मनन करना होगा कि क्या सच में ही पुरुष स्वभाव से इतना आक्रान्ता है?    स्त्री विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है, पुरुष के सहयोग से जीवन की उत्पत्ति की कारक है, वाहक है। अपने हर रूप में वह स्नेह व प्रेम के साथ ही शक्ति का अजस्र स्रोत है। वह स्वयं को

'रात्रि-कर्फ्यू'

                                                                      हमारे देश के कुछ प्रांतों के कुछ शहरों में कोरोना में हो रही बढ़ोतरी के कारण रात्रि का कर्फ्यू लगाया गया है। नहीं समझ में आ रहा कि रात्रि-कर्फ्यू का औचित्य क्या है? अब कर्फ्यू है तो आधी रात को बाहर जा कर देख भी तो नहीं सकते कि कौन-कौन सी दुकानें, सब्जी मंडियाँ व सिनेमा हॉल रात-भर खुले रहने लगे हैं या फिर लोग झुण्ड बना कर सड़कों पर कीर्तन कर रहे हैं। सरकार या प्रशासन, कोई भी जनता को इस रात्रि-कर्फ्यू का औचित्य या उपयोगिता नहीं बता रहा है।     जैसा कि टीवी में देखते हैं, दिन के समय पूरे देश में सड़कों पर, सब्जी मंडियों में और बाज़ारों में लोगों की रेलमपेल लगी रहती है। न तो लोगों के मध्य दो गज की दूरी होती है और न हर शख़्स ने मास्क पहना हुआ होता है। प्रशासन यह देख नहीं पाता, इसे रोक नहीं पाता। प्रशासन को लगता है, हमारे देश की जनता समझदार है, स्व-अनुशासित है। प्रशासन की इसमें शायद कोई ग़लती नहीं है क्योंकि यह देखने के लिए कि कोई कर्फ्यू तोड़ तो नहीं रहा है, वह रात को जागता है, परिणामतः दिन में उसे सोना पड़ता है। दिन-प्रतिदिन कोर

'गीता-ज्ञान' (लघुकथा)

                                                तीन दिन पहले की ही बात है, जब मैंने गुरुवार को सुबह-सुबह चाय पीते वक्त अख़बार में चन्द्र  प्रकाश के बेटे अवधेश का चयन राजस्थान की रणजी टीम में हो जाने की खबर पढ़ी थी। मुझे यह तो पता था कि अवधेश क्रिकेट का बहुत अच्छा खिलाड़ी है, किन्तु प्रतिस्पर्धा व वर्तमान सिफारिशी दौर में बिना लाग-लपेट वाले किसी बन्दे का चयन हो जाना इतना सहज भी नहीं होता। चंद्र प्रकाश एक निहायत सज्जन किस्म का व्यक्ति है और उसका बेटा अवधेश भी खेलने के अलावा क्रिकेट-राजनीति से कोई वास्ता नहीं रखता था, अत; उसका चयन मेरे लिए आश्चर्य का कारण बन रहा था। बहरहाल उसका चयन हुआ है, यह तो सच था ही, सो मैंने चाय के बाद फोन कर के बाप-बेटा दोनों को बधाई दे दी थी।    फोन पर तो उन्हें बधाई दे दी थी, किन्तु मैं चन्दर (चंद्र प्रकाश को मैं 'चन्दर' कहता हूँ😊) के चेहरे पर ख़ुशी की रेखाएँ देखने को आतुर था। ख़ुशी में जब वह मुस्कराता है, तो बहुत अच्छा लगता है। सोचा- 'आज चन्दर के घर जा कर एक बार और बधाई दे आता हूँ, कई दिनों से मिलना नहीं हुआ है तो मिलना भी हो जाएगा और गप-शप भी हो जाएगी।

'अदावत' (कहानी)

     किसी खड़खड़ के चलते अहमद की नींद अचानक खुल गई। आँखें मलते हुए उसने उठ कर देखा, कमरे में बेभान सो रही उसकी बेगम रशीदा के अलावा और कोई नहीं था। घड़ी में देखा, रात के दो बज रहे थे। धीमे क़दमों से वह खिड़की की ओर बढ़ा और बाहर निगाह डाली तो चौंक पड़ा, पड़ोसी कासिम की खिड़की अधखुली थी। उसे ताज्जुब हुआ, 'कासिम का परिवार ईद मनाने के लिए दो दिन के लिए आज ही अपने गाँव गया है और वह लोग अपनी सभी खिड़कियाँ बंद कर के गये थे, फिर इनकी खिड़की खुली कैसे पड़ी है?' ध्यान से सुनने की कोशिश की तो आहिस्ता-आहिस्ता बोलने की आवाज़ भी उसे सुनाई दी। कुछ ही देर में कासिम के कमरे में दो पल के लिए एक रोशनी झपकी। 'शायद मोबाइल की टॉर्च की रोशनी थी',अहमद ने अंदाज़ लगाया। वह समझ गया, कासिम के घर में चोर घुस आये हैं। चाँदनी रात थी और कासिम के घर के पीछे से आ रही बादलों में छिपे चाँद की रोशनी दोनों मकानों के बीच के गलियारे को हल्का-सा रोशन कर रही थी, लेकिन कासिम के कमरे में रोशनी नहीं के बराबर थी।     वह यूँ ही खिड़की के पास खड़ा देख रहा था कि उसे एक इन्सानी साया कासिम की खिड़की के भीतर नज़र आया। अहमद को केवल उसकी आकृ