आज बहुत परेशान हूँ मैं। कल तक मैं दो चपाती सुबह और एक चपाती शाम को खाता था। आज सुबह मेरी प्लेट में एक चपाती ही रखी गई। चपाती ख़त्म कर ली तो मैंने दूसरी की मांग की। पत्नी जी ने साफ़ इन्कार कर दिया, कहने लगीं- "खाना सुबह-शाम मैं बनाती हूँ। आपसे इतना भी नहीं होता कि बर्तन मांजने और झाड़ू-पौंछा में ही कुछ मदद कर दो। अब आपको दोनों समय गुज़ारे लायक मात्र एक-एक रोटी ही मिलेगी।"
बची हुई सब्ज़ी ख़त्म की और हाथ धो कर उठ खड़ा हुआ। सोच रहा हूँ कि श्रीमती जी मेरी व्यस्तता और ज़िम्मेदारियों को क्यों नहीं समझतीं। एक तरफ साहित्य की सेवा में कुछ अर्पण करना तो दूसरी तरफ फेसबुक और व्हाट्सएप्प से सम्बंधित ज़िम्मेदारियाँ निभाना। अकेली जान, आखिर क्या-क्या करूँ मैं? वह जानती हैं कि सुबह से रात तक हर समय मोबाइल और कंप्यूटर में सिर खपाता रहता हूँ, फिर भी उनका मन नहीं पसीजता।
मित्रों! आपके सिवा और कौन है, जिसे मैं अपना दुखड़ा सुनाऊँ? आप ही बताइये, आपका यह निरीह मित्र क्या करे? सुबह की मेरी दूसरी रोटी का जुगाड़ कैसे हो? पत्नी जी कोरोना के भय से मदद के लिए मेड नहीं रख पा रही हैं, इसीलिए मुसीबत का यह पहाड़ मुझ पर टूटा पड़ रहा है।
यह कोविड-19 भी ना, कोविड-1 से कोविड-18 तक को लांघ कर सीधे ही 19 की शक्ति के साथ हम सब को आतंकित कर रहा है। बेड़ा गर्क हो इसका...
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अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे 😀😀😀
जवाब देंहटाएंएक रोटी की कीमत तो समझ आई होगी जरूर। रोचक पोस्ट आदरणीय सर 🙏🙏😀😂😀😀
पहाड़ी तो ऊँची होती ही है😀।... धन्यवाद स्नेहमयी रेणु जी!
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 30 जुलाई 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअभिभूत हूँ आपके इस 'सांध्य दैनिक मुखरित मौन' के सुन्दर पटल पर अपनी रचना को आप द्वारा स्थान दिये जाने से ! मेरा आभार स्वीकारें महोदया!
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