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'हरे जख्म' (कहानी)



 



                                        

                                                               
                                                                               (1)

   विदिशा ने देखा, चन्दन क्लास ख़त्म होने के बाद उसके पीछे-पीछे चला आ रहा था। वह कैन्टीन की तरफ मुड़ गई। कैन्टीन में काउन्टर पर एक चाय का आर्डर कर पेमेन्ट करके वह एक टेबल पर आ गई। कैन्टीन में इस समय एक लड़का और दो लड़कियाँ एक अन्य टेबल पर बैठे हुए थे। अभी चाय आई ही थी कि सामने वाली कुर्सी पर चन्दन आकर बैठ गया। उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और चाय का सिप लेने लगी।   
   कुछ पलों की ख़ामोशी के बाद चन्दन हल्की मुस्कराहट के साथ बोला- "विदिशा, आखिर तुम मुझसे यूँ उखड़ी-उखड़ी क्यों रहती हो?"
   "आज भी तुम मेरे पीछे-पीछे यहाँ चले आये हो। तुम बार-बार मेरे पास आने का मौका क्यों ढूंढते रहते हो चन्दन?" -विदिशा ने अपना प्रश्न दागा।
   "मैंने तुम्हें आज तक नहीं बताया, लेकिन आज बता देना चाहता हूँ। विदिशा, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ, तुम्हारे बिना नहीं रह सकता। तुम समझती क्यों नहीं? तुम नहीं मानोगी तो मैं मर जाऊँगा।"
   विदिशा ने विरक्त भाव से चन्दन की ओर देखा- "हम कॉलेज में पढ़ने आये हैं। मुझे इस प्यार-व्यार में कोई रुचि  नहीं है। तुम भी अपनी पढाई में ध्यान दो और यह पागलपन छोड़ दो।"
    चाय की आखिरी सिप ले कर विदिशा अपनी कुर्सी से उठ खड़ी हुई और कैन्टीन से बाहर निकल आई। आहत चन्दन भी दो मिनट वहीं बैठे रहने के बाद बाहर निकल गया। 
   
  विदिशा कई दिनों से चन्दन के अटपटे व्यवहार को देख कर परेशान हो रही थी। क्लास में भी पढाई के दौरान कई बार वह उसकी ओर ही देखता  रहता था और आज तो उसने खुल कर अपनी मनोदशा उस पर जाहिर कर दी थी। विदिशा को आश्चर्य होता था, चन्दन किस मायने में स्वयं को उसके योग्य समझता है? पढ़ने में वह ठीकठाक है, पर कोई और विशेष योग्यता उसमें नहीं है। वह सामाजिक स्तर पर भी उसके सामने कहीं नहीं ठहरता और न ही शक्ल-सूरत के मामले में। वह असमान युगल के मध्य प्यार के फिल्मी फॉर्मूले में कतई विश्वास नहीं करती थी। वह भीलवाड़ा के एक धनाढ्य व्यवसायी शिवदयाल रस्तोगी की इकलौती पुत्री है। उसके पिता एक फ़ैक्ट्री के मालिक हैं और चन्दन एक मामूली क्लर्क का बेटा! यदि चन्दन उसके काबिल होता, तो भी वह अपनी पढाई पूरी होने के पहले इन लफड़ों में नहीं पड़ना चाहती थी। उसे इस बात की तसल्ली थी कि आज उसने सीधे-सपाट तरीके से अपनी बात उससे कह दी थी। वैसे भी वह स्पष्टवादिता व पारदर्शी आचरण में विश्वास रखती थी। अभी वह लोग कॉलेज में बी.ए. के प्रथम वर्ष में थे और अपना त्रिवर्षीय अध्ययन बिना किसी अवरोध के पूरा करने का लक्ष्य उसके दिमाग़ में था। 
    विदिशा के द्वारा समझाये जाने के बावज़ूद तीन-चार बार चन्दन ने पुनः उससे उसी तरह की बात करने का प्रयास किया और उसके आगे-पीछे मंडराना जारी रखा । यहाँ तक कि एक दिन उसका पीछा करते-करते वह उसके घर के दरवाज़े तक आ पहुँचा था। तंग आकर विदिशा ने अगले ही दिन झिड़क कर उससे कह दिया कि वह अपनी मूर्खता पर काबू रखे, अन्यथा वह प्रिंसिपल से  शिकायत कर देगी। इसके बाद चन्दन ने फिर कभी ऐसी कोशिश नहीं की और न ही उससे फिर कभी बातचीत ही की।  
    प्रथम वर्ष  परीक्षाएँ समाप्त हो गईं और लगभग एक माह के बाद परीक्षा-परिणाम भी घोषित हो गया। वह प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुई थी। अपने भीलवाड़ा शहर में ही नहीं, पूरे जिले में उसके प्राप्तांक सर्वोच्च थे। उसके मम्मी-पापा उसकी इस उपलब्धि से बहुत खुश थे। अगले सत्र में कॉलेज फिर खुल गया। दस-बारह दिन के बाद क्लासेज़ भी नियमित रूप से चालू हो गई थीं, लेकिन चन्दन कभी क्लास में दिखाई नहीं दिया। विदिशा को कुछ दिन बाद पता चला कि चन्दन के पिता की बदली शाहपुरा में हो जाने से चन्दन यहाँ से टी.सी. लेकर चला गया है।
   'चलो, पीछा छूटा उस मनोरोगी से', विदिशा ने चैन की साँस ली। 

   विदिशा एक अच्छे, सुशिक्षित व खाते-पीते परिवार की लड़की तो थी ही, रंग-रूप में भी सामान्य से कहीं अधिक सुन्दर थी। सहपाठी लड़कियाँ उसके अच्छे स्वभाव व स्पष्टवादिता के कारण उसके साथ घुल-मिल कर तो रहती थीं, किन्तु साथ ही मन ही मन हीन भावना से ग्रस्त थीं। अधिकांश लड़के विदिशा के मुकाबले अन्य लड़कियों को बहुत कम तवज्जो देते थे। यही वजह थी कि कुछ और लड़कों ने भी विदिशा के करीब आने की कई बार कोशिश की, किन्तु विदिशा ने कभी किसी को नज़दीक फटकने ही नहीं दिया। कभी-कभी कॉलेज के ही कुछ लड़के आते-जाते उस पर फब्तियाँ भी कसते थे, किन्तु वह किसी को कोई तवज्जो नहीं देती थी। वह इस सब से परेशान तो होती थी, पर जानती थी कि हर किसी की शिकायत करने से कोई लाभ नहीं होने वाला था और यह भी कि सब लोग यही तो सोचेंगे न कि ज़्यादातर लड़के उसी को क्यों छेड़ते हैं। अधिकांश लड़कियाँ इस तरह के हालात से रूबरू होती हैं और इसे सामान्य बात मान लेना ही उनकी विवशता बन जाती है। 
  
  समय निकलता रहा। विदिशा के द्वितीय वर्ष की परीक्षाएँ  समाप्त हो गई थीं। अपने पर्चे अच्छे हो जाने से विदिशा बहुत खुश थी। ग्रीष्मावकाश का समय था। सहेलियों से मिलना, उनके साथ घूमना-फिरना, यही उसकी दिनचर्या में शामिल था इन दिनों। साल-भर के कठिन परिश्रम के बाद वह अपने इस समय को अच्छी तरह से एन्जॉय करना चाहती थी। कभी वह अपनी सहेलियों के साथ कोई मूवी देखने चली जाती तो कभी गार्डन में तफरी करने। कभी अकेली ही दो-तीन कि.मी. वॉक पर चल देती थी। उसके मम्मी-पापा खुले विचारों के थे। वह कभी भी  बेटी पर व्यर्थ का अनुशासन लादने की कोशिश नहीं करते थे। वह उसे अपनी सोच और अपने निर्णय के आधार पर हर काम करने की प्रेरणा देते थे। हाँ, किसी उलझन की स्थिति में उचित दिशा-निर्देश अवश्य देते थे। विदिशा ने भी कभी अपने पेरेंट्स के विश्वास को नहीं तोड़ा।  
    आज विदिशा अपनी मम्मी से कह कर जब घर से निकल रही थी तो अपने ऑफिस में बैठे रस्तोगी जी ने पूछा- "कहाँ जा रही है बेटा?"
"मूवी देखने जा रही हूँ पापा!" -विदिशा ने जवाब दिया। 
  "कौन-सी मूवी देखने जा रही हो? अकेली जाओगी मूवी देखने?"
"आप भी न यार पापा, कमाल करते हो! अकेली क्यों जाऊँगी? नीलिमा के साथ जा रही हूँ। सुबह से ही हमारा प्रोग्राम तय है। सुशान्त की मूवी है 'दिल बेचारा', सुना है बहुत प्यारी मूवी है।" -मुस्कराते हुए विदिशा ने कहा। 
 "अच्छा बिटिया, मूवी से सीधे ही घर लौटना, देर मत करना।" -स्नेह भरी स्मित के साथ रस्तोगी जी ने कहा। 
   
  मूवी देख कर हॉल से निकलते हुए नीलिमा ने कहा- "मज़ा आ गया यार, क्या म्मूवी थी और क्या तो एक्टिंग की है सुशांत ने!"
  "हाँ यार, मस्त मूवी थी। काश! सुशान्त के साथ वो हादसा न हुआ होता। मुझे तो अभी भी बहुत दुःख होता है नीलिमा!"
  "... और आज तक पता ही नहीं चला कि उसके साथ हुआ क्या था। अब तो शायद सब-कुछ रहस्य ही रह जाएगा।" -नीलिमा के स्वर में भी वेदना थी।  
  "एनी वे, चलती हूँ यार, बाय!" 
  "ओके डिअर, बाय एण्ड गुड नाईट!" 
  विदिशा घर लौट रही थी कि घर से लगभग आधा कि.मी. पहले उसका स्कूटर पंक्चर हो गया। वह परेशान हो गई। रात के सवा नौ बज रहे थे और पंक्चर बनाने वाली कोई दुकान तो क्या, एकाध पान की दुकान के अलावा सभी दुकानें बंद हो चुकी थीं। वह किसी को फोन भी नहीं कर सकती थी क्योंकि वह अपना मोबाइल घर भूल आई थी। उसे ध्यान आया कि कुछ पचास फीट पीछे मेन रोड़ पर ही एक सरकारी प्राथमिक स्कूल है जिसके परिसर में उसका स्कूटर कुछ हद तक सुरक्षित रह सकता है। वह स्कूटी खींचते हुए पीछे लौटी और स्कूल की बाउन्ड्री के भीतर दीवार की आड़ में स्कूटी खड़ी कर, उसे लॉक कर बाहर निकली। साढ़े नौ बज गये थे। वह तेज कदमों से घर के लिए चल दी। कुछ दूरी पर दायीं ओर मुड़ने वाली सड़क उसके घर की ओर जाती थी। इस सड़क पर रात को लोगों की आवाजाही बहुत कम हो जाती थी। विदिशा ने अपनी गति और बढ़ा दी। वह उस सड़क पर बीस-पच्चीस कदम ही चली थी कि पीछे से आ रही एक बाइक की आवाज़ उसने सुनी। सड़क के किनारे चल रही विदिशा कुछ और किनारे पर चलने लगी। उसने महसूस किया कि बाइक उसके एकदम नज़दीक आ गई है। बाइक उसके पास आकर रुकी। वह पलट कर देखती, इसके पहले ही बाइक पर पीछे बैठे मास्क लगाये युवक ने उसके मुँह पर एक रुमाल दबाया। रुमाल से आती तीव्र मादक गंध से वह अपना होश खोने लगी। बेहोश होते-होते उसने देखा, बाइक चलाने वाले युवक ने हैल्मेट लगा रखा था और उसके मुँह पर भी मास्क था। तभी उसे अहसास हुआ, पीछे वाले युवक ने बाइक से उतर कर उसे थाम लिया है।... और अगले ही क्षण वह गहराइयों में डूबती चली गई। 
    रात दस बजे तक भी विदिशा घर नहीं पहुँची तो उसके मम्मी-पापा चिन्तित हो उठे। साढ़े दस बजे, तो उसकी मम्मी का धैर्य समाप्त हो गया, व्याकुल हो कर बोली- "सुनो, आप देखो न बाहर जाकर। साढ़े दस बज रहे हैं,कहाँ रह गई है बिटिया?"
 "घबराओ मत आरती! हो सकता है, उसकी सहेली के वहाँ चली गई हो। वह अपना फोन भी तो यहीं भूल गई है, पता करें भी तो कैसे?" -रस्तोगी जी ने अपेक्षाकृत शांत स्वर में कहा। 
 "फोन नहीं ले गई है पर नीलिमा के फोन से तो बात कर सकती थी। देखो जी, मेरा जी घबरा रहा है। आप कुछ तो पता करो।"
 "थोड़ी देर और देख लेते हैं, वरना कुछ तो करना ही पड़ेगा।"
  ग्यारह बज रहे थे और विदिशा अभी तक घर नहीं आई थी। अब तो रस्तोगी जी भी घबरा गये। नीलिमा विदिशा की नई-नई फ्रैंड बनी थी, अतः उसके घर का पता इन्हें मालूम नहीं था। 'जो भी हो, पुलिस को सूचना देने के अलावा कोई चारा नहीं है', विचार कर रस्तोगी जी अपनी कार निकाल कर सीधे पुलिस थाने पर पहुँचे। घर से निकलने के पहले उन्होंने पत्नी को कह दिया था कि विदिशा घर आ जाए तो उन्हें फोन से सूचित कर दें। थाने पर पहुँच कर अपना परिचय देकर उन्होंने वहाँ मौज़ूद ए.एस.आई. को अपनी बात बताई। 
   ए.एस.आई. ने FIR दर्ज नहीं की और कहा- "देखिये रस्तोगी जी, अभी थोड़ा आप इन्तज़ार कीजिये। हो सकता है आपकी बच्ची अपनी किसी सहेली के वहाँ चली गई हो, आ जाएगी सुबह तक। आप जबरदस्ती इतना परेशान हो रहे हो।"
  "नहीं, वह बिना हमें सूचित किये रात भर अपनी सहेली के वहाँ नहीं रह सकती। आप मेरी रिपोर्ट नहीं लिखना चाहते तो मैं थानेदार साहब से मिलता हूँ। मैं सुबह तक इन्तज़ार नहीं कर सकता।"
  "थानेदार साहब अपने घर पर हैं और अभी आपसे नहीं मिलेंगे। आप चाहें तो मैं पूछ कर बताता हूँ।"
  रस्तोगी जी ने सिर हिला कर सहमति दी। ए.एस.आई. ने उनके सामने ही थानेदार को कॉल किया। कॉल के बाद उसने रस्तोगी जी को बताया कि थानेदार सुबह ही मिल सकेंगे। 
  "ठीक है, कोई बात नहीं। मैं एस.पी. साहब से बात करता हूँ, वह मुझे जानते हैं।"
 "अरे श्रीमान जी, एस.पी. साहब का ट्रांसफर हो गया है। तीन दिन पहले नये एस.पी.आ गये हैं।"
  "कोई दिक्कत नहीं, मैं उनसे ही बात करता हूँ। मेहरबानी कर के उनका नम्बर दीजिये मुझे।"
 रस्तोगी जी ने बाहर निकल कर एस.पी. साहब को कॉल लगाया। 
  "हेलो कौन?" -उधर से किसी महिला की आवाज़ आई।
  "मैं रस्तोगी बोल रहा हूँ। साहब से कुछ ज़रूरी बात करनी है।"
 "आप कल सुबह बात करें।"
 "प्लीज़ अभी बात करा दीजिये, बहुत अर्जेन्सी है।" -रस्तोगी जी ने विनयपूर्वक कहा। 
  एक मिनट की ख़ामोशी के बाद फिर आवाज़ आई- "हेलो, कौन बोल रहे हैं आप?"
 "मैं रस्तोगी। आप एस.पी. साहब बोल रहे हैं?"
 "हाँ भाई, अपनी बात बताइये। अभी रात को फोन क्यों किया?"
 "जी, क्षमा चाहता हूँ इस समय तकलीफ देने के लिए। दरअसल..."
 "एक मिनट, आप अपना पूरा नाम बताइये।"
  "जी, शिवदयाल रस्तोगी।"
 "ओह, ... हाँ अब  बताओ, क्या प्रॉब्लम है?"
 रस्तोगी जी ने बताया कि उनकी बेटी विदिशा शाम छः बजे अपनी सहेली नीलिमा के साथ मूवी देखने गई थी और अभी तक घर नहीं लौटी है। एस.पी. द्वारा पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्हें नीलिमा के घर का पता मालूम नहीं है।
  सारी बात सुन कर एस.पी. ने कहा- "ठीक है, आप निश्चिन्त रहो, मैं दिखवाता हूँ। कल सुबह ग्यारह बजे मेरे
ऑफिस में आ जाओ।"
 रस्तोगी जी के पास वापस लौटने के सिवा और कोई चारा नहीं था सो घर लौट चले। कोई सम्भावना नहीं मान रहे थे, फिर भी लौटते समय वह अपने संतोष के लिए उस सिनेमा हॉल के आस-पास भी चक्कर लगा आये जिसमें मूवी 'दिल बेचारा' लगी थी। 

                                                                               (2)

   घर पहुँच कर बेसब्री से इन्तज़ार कर रही अपनी पत्नी को उन्होंने अभी तक की जानकारी दी। रात भर दोनों पति-पत्नी कोशिश कर के भी सो नहीं सके। 
   सुबह जल्दी ही दोनों स्नान-ध्यान से निवृत हो गये। पौने आठ बजे थानेदार ने रस्तोगी जी को फोन से सूचित किया कि एस.पी. साहब ने उनके घर पर तुरंत बुलाया है। थानेदार ने एस.पी. साहब के घर का पता भी फोन पर ही बता दिया। आशंका से ग्रस्त रस्तोगी जी पाँच मिनट में तैयार हो कर निकल गये। 
   स्लिप भिजवाते ही एस.पी. साहब ने उन्हें अपने ड्रॉइंग रूम में बुला लिया। रस्तोगी जी के नमस्कार का जवाब देकर एस.पी. साहब ने मुस्कराते हुए उन्हें अपने सामने सोफे पर बैठने का इशारा करते हुए कहा- “आओ शिब्बू!”

रस्तोगी जी चौंके- “आप मुझे जानते हैं?”

“तुम दयानंद डिग्री कॉलेज में पढ़े हो न?”

“हाँ, लेकिन...”

"नौकरी करते हो या कोई बिज़नेस?"

"यहाँ शहर में मेरी एक छोटी-सी फ़ैक्ट्री है, प्लास्टिक पाइप का मैनफैक्चरिंग का काम है।"

“अरे यार, तुमने मुझे नहीं पहचाना, लेकिन मुझे तो तुम्हारी आवाज़ सुनते ही अंदाज़ा लग गया था और फिर पूरा नाम जानकर तो कन्फर्म ही हो गया था कि यह तुम हो। मैं तो कल ही तुम्हें यहाँ बुला लेता, लेकिन मैं उस समय ड्रिंक ले रहा था और तुम ठहरे संत आदमी, इसीलिए नहीं बुलाया।"

रस्तोगी जी एस.पी. साहब का मुँह ताक रहे थे।

“अबे मैं विजेन्द्र सिंह... तुम्हारा क्लास फेलो!”

“अरे विजेन्द्र तुम? तुम एस.पी. बन गये यार?” -रस्तोगी जी चौंक कर उठ खड़े हुए।  

“हाँ भाई, हमारी किस्मत में तो चाकरी लिखी थी, वरना तुम्हारी तरह उद्योगपति नहीं बनते?” – मुस्करा कर एस.पी. विजेन्द्र सिंह जवाब दिया और रस्तोगी जी के पास आकर उन्हें गले लगा लिया।

पुनः अपनी जगह पर बैठते हुए विजेन्द्र सिंह ने कहा- “यार, बच्ची के बारे में जान कर आश्चर्य और दुःख हुआ। मैंने कल रात को ही थानेदार को फोन कर दिया था और उन्होंने अपने स्टाफ को रात को ही शहर में सब तरफ भेज दिया था। तीन हिस्ट्रीशीटर्स को उनके घरों से रात को ही उठवा कर थाने में ले आये थे, लेकिन उनसे कुछ भी पता नहीं चला। अभी भी थाने से दो आदमियों को फिर भेजा है।... अब तुम एक काम करो। मैं एक सिपाही को तुम्हारे घर भेजता हूँ। तुम उसे बच्ची का एक ताजा फोटो दे देना, ताकि तलाशी में बेहतरी हो सके।"
  तब तक चाय आ  गई थी। रस्तोगी जी ने जल्दी-जल्दी चाय पी। 
  बच्ची की चिंता से परेशान थे अतः उन्होंने और कोई बात नहीं की, खड़े हो कर केवल इतना ही कहा- "ठीक है विजेन्द्र, मैं चिन्तित तो बहुत हूँ पर जब तुम हो तो अब कुछ न कुछ करोगे ही।... और हाँ, भाभी से मिलने भी बाद में आऊँगा जल्दी ही। मैं फोटो भिजवाता हूँ।"
 रस्तोगी जी एस.पी. से विदा लेकर घर पहुँचे। सुखद आश्चर्य के साथ उन्होंने विदिशा को घर में कुर्सी पर बैठे देखा।  
 "अरे बेटा, कहाँ थी तू ? कितने परेशान हो गये थे हम! क्या हुआ, कहाँ गई थी हमें बिना बताये?" -विदिशा को कुर्सी से उठा अपने सीने से लगाये रस्तोगी जी बेतहाशा बोले जा रहे थे, लेकिन उन्होंने अब तक उसके चेहरे को ध्यान से देखा तक नहीं था। विदिशा के मुँह से एक शब्द भी नहीं सुना तो अपने से अलग कर उसे ध्यान से देखा। विदिशा का चेहरा निस्तेज हो रहा था। शायद बहुत अधिक रो लेने से उसकी आँखें रक्तिम होकर पथरा गई थीं। रस्तोगी जी अज्ञात भय से काँप कर पीछे हटे। अब उनकी नज़र आरती पर पड़ी। वह निश्चल, मूक दीवार के सहारे खड़ी हुई थ। उनका विवर्ण चेहरा देख कर वह तेजी से उनकी तरफ बढ़े और उन्हें झकझोरते हुए काँपती आवाज़ में पूछा- "बोलो आरती, विदिशा कुछ बोल क्यों नहीं रही है, हुआ क्या है?"

    आरती वैसे ही खड़ी रही। रस्तोगी जी को अपनी तरफ देखते देखा तो जवाब न देकर रोने लगी। 
 "आरती! कुछ तो बोलो, क्या हुआ है?
 "शिव जी, विदिशा...।" -आरती इतना ही कह सकीं और फिर फफक उठीं।  
 "विदिशा क्या... आरती? क्या हुआ विदिशा को, बताओ तो!" -रस्तोगी जी की बेचैनी बढ़ गई थी। 
  आरती रस्तोगी जी को हाथ पकड़ कर दूसरे कमरे में ले गईं और बताया कि रात को स्कूटर ख़राब हो जाने से विदिशा पैदल घर आ रही थी तो रास्ते में दो अनजान लड़के उसे बेहोश कर कहीं ले गये। सुबह पाँच बजे जब वह होश में आई तो उसने खुद को शहर से तीन कि.मी. दूर एक पहाड़ीनुमा स्थान के बीच एक गड्ढ़े में पाया। वह अपनी अस्त-व्यस्त दशा देख कर समझ गई थी कि उसके साथ रेप हुआ है। उसने बताया कि आधा घंटा तो वह वहीं बैठी रोती रही, फिर स्वयं को संयत कर उठी और स्कूल पहुँची, जहाँ वह रात को स्कूटी रख कर गई थी।   स्कूटी वहीं पड़ी थी। स्कूटी लेकर वह घर आई। 
   रस्तोगी जी, जो अब तक यह सब यंत्रवत सुनते रहे थे, गहन विषाद में डूबे दीवान पर बैठ गये। आरती समस्त दुखद गाथा कह कर वापस बेटी के पास आ गई। 
  वेदनाजनित मौन का यह परिवेश घर के दरवाज़े की घंटी बजने के साथ समाप्त हुआ। रस्तोगी जी ने पोर्च में आ कर देखा, एक सिपाही खड़ा था। वह समझ गये कि एस.पी. के आदेशानुसार वह विदिशा का फोटो लेने आया है। सिपाही कुछ कहता, इसके पहले ही उन्होंने कहा- "साहब से बोल देना कि बच्ची उसकी सहेली के वहाँ थी और अब घर आ गई है। मैं भी उनसे बाद में बात कर लूँगा।"
 सिपाही नमस्कार कर लौट गया। रस्तोगी जी भीतर आ गये। 

   रस्तोगी जी व आरती दोनों ने दिन-भर गहन विचार-विमर्श किया और निर्णय लिया कि वह इस मामले में पुलिस में शिकायत नहीं करेंगे। विदिशा को माँ से पता चला तो उसने इस निर्णय पर ऐतराज़ किया। 
 आरती ने उसे समझाने की कोशिश की- "बेटा विदिशा, जो अनहोनी होनी थी सो हो गई, लेकिन अब तुम्हारे भविष्य के बारे में तो सोचना पड़ेगा न! पुलिस में रिपोर्ट लिखवाएँगे तो बात फैलेगी। सोचो कितनी बदनामी होगी? अच्छी जगह तुम्हारी शादी करना मुमकिन नहीं हो सकेगा।"
"तो क्या मम्मी, हम गुनहगार को यूँ ही बच कर जाने देंगे? उसे उसके किये की सज़ा नहीं दिलवाएँगे? इससे तो ऐसे लोगों का हौसला और बढ़ेगा। आज जो मेरे साथ हुआ है, कल किसी और के साथ होगा। नहीं मम्मी, हमें उसके खिलाफ़ केस करना ही होगा।" -विदिशा ने दृढ़ता से प्रतिरोध किया। आरती ने उस समय कोई जवाब नहीं दिया। 
  आज रस्तोगी जी घर पर ही थे। शाम को आरती ने रस्तोगी जी को बताया कि विदिशा पुलिस में शिकायत दर्ज़ कराने की ज़िद कर रही है तो वह बहुत नाराज़ हुए व विदिशा को बुला कर कहा- "विदिशा, यह कैसी मूर्खता है? हम कोई रिपोर्ट दर्ज़ नहीं कराएँगे और यह बात फाइनल है। सब कुछ भूल कर नॉर्मल हो जाओ। किसी को भी हमें कुछ नहीं बताना है। अगले साल जब तुम्हारा ग्रेजुएशन हो जाएगा, किसी अच्छी जगह तुम्हारी शादी करवा देंगे।"
 विदिशा ने रिपोर्ट नहीं करने की बात पर कोई प्रतिवाद नहीं करते हुए कहा- "ठीक है पापा, जैसी आप लोगों की मर्जी, किन्तु एक बात पक्की है कि मैं शादी-वादी नहीं करूँगी।"... और विदिशा उठ कर अपने कमरे में  चली गई। 
  विदिशा ने यूँ ही नहीं कह दिया था कि वह शादी नहीं करेगी, अपितु उसने मन में ऐसा निश्चय भी कर  लिया था। उसके साथ हुई त्रासदी ने उसके मन में पुरुष जाति के प्रति वितृष्णा व आक्रोश भर दिया था। रस्तोगी जी व आरती ने उसकी इस बात को अधिक महत्त्व नहीं दिया और निर्णय भविष्य पर छोड़ दिया। 
  विदिशा अब हर वक्त उदास ही दिखाई देती थी। रस्तोगी जी और आरती कई दिनों तक विदिशा के चेहरे पर मुस्कान देखने को तरस गये थे। 
 कहते हैं कि समय हर पीड़ा की औषधि होती है। कुछ दिन तो विदिशा के लिए ही नहीं, उसके माता-पिता के लिए भी दुःसाध्य रहे, लेकिन धीरे-धीरे सब-कुछ सामान्य होता चला गया। 
  तीनों ने इस दुर्घटना की किसी को हवा भी नहीं लगने दी। रस्तोगी जी ने पुलिस को और विशेषतः एस.पी. साहब को बड़े  कौशल से इत्मीनान दिला दिया था कि उनकी बेटी एक सहेली के घर रुक गई थी, सो बात उस स्तर पर भी ख़त्म हो गई। 

  विदिशा का इस साल बी. ए. का अंतिम वर्ष था। उसने इस वर्ष भी कठिन परिश्रम किया, किन्तु परीक्षा के बाद जब परिणाम आया तो उसने मात्र तरेपन प्रतिशत अंक प्राप्त किये थे। पिछले दोनों वर्षों में वह प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुई थी, किन्तु इस वर्ष के परिणाम ने उसका प्रतिशत बिगाड़ दिया था। उसका तीन वर्षों का औसत अब सत्तावन प्रतिशत के करीब रह गया था। परिणाम आने के बाद कई दिनों तक उसका मूड ख़राब ही रहा। घर से कुछ ही दूरी पर स्थित पार्क में वह सहेली नीलिमा के साथ अक्सर शाम का वक्त बिताती व अपने परीक्षा-परिणाम के असंतोष को हल्का करने का प्रयास करती थी। आज भी वह उसके साथ पार्क में एक बैंच पर बैठी बतिया रही थी और सामने कुण्ड में लगे फ़व्वारे को देखने का लुत्फ़ भी उठा रही थी। दोनों को यहाँ आये कुछ ही देर हुई थी कि नीलिमा का छोटा भाई किसी काम से उसे बुलाने आ गया। 
 "चलती हूँ यार, तू भी उठ रही  है या बैठेगी अभी?" -नीलिमा ने पूछा उससे। 
  विदिशा का मन नहीं था अभी घर लौटने का, बोली- "देखती हूँ, शायद बैठूँगी अभी थोड़ी देर।"
नीलिमा चली गई। विदिशा फ़व्वारे में ऊपर उठती पानी की नन्ही धाराओं को देख रही थी और सोच रही थी, 'क्या नियति है पानी की इन बूंदों की? धारा के साथ ऊपर उठती हैं और पुनः नीचे आ गिरती हैं। धारा के साथ ऊपर
चढ़ना और वापस गिर जाना, एक उद्देश्यविहीन गति है इनकी। शायद मेरा जीवन भी कुछ ऐसा ही हो गया है, दिशाविहीन-सा। जो फ़व्वारा अभी तक उसके सुकून का कारण बन रहा था, अनायास ही उसने उसके मन में बेचैनी भर दी। शोकार्त हो वह शून्य में ताकने लगी। 
 अचानक वह चौंक पड़ी। 
"हेलो विदिशा, कैसी हो?" - निकट आकर किसी ने पूछा था। 
 विदिशा को आवाज़ कुछ परिचित-सी लगी। उसने मुड़ कर देखा, उसका पुराना सहपाठी चन्दन था। 
"मैं यहाँ बैंच पर बैठ सकता हूँ?" -चन्दन ने औपचारिकता दिखाते हुए पूछा। 
 "हाँ, बैठो चन्दन! यहाँ कैसे? कब आये यहाँ?" -विदिशा ने थोड़ा खिसकते हुए प्रतिप्रश्न किया। 
 चन्दन- "कल ही आया हूँ। आज यहाँ पार्क में  टहलने आया था तो तुम दिखाई दे गईं। सोच रहा था, बात करूँ, न करूँ? कहीं तुम्हारी पुरानी नाराज़गी न जाग जाए। फिर हिम्मत कर ही ली। तुम रोज़ यहाँ टहलने आती हो?"
 चेहरे पर जबरन मुस्कराहट लाते हुए विदिशा बोली- "हाँ तक़रीबन रोज़! कहाँ ठहरे हो? कैसे आये इधर?"
 चन्दन- "आर.ए.एस. की तैयारी कर रहा हूँ। मेरे एक फ़्रेन्ड से कुछ स्टडी मटेरियल लेने आया हूँ।"
विदिशा- "रिज़ल्ट क्या रहा तुम्हारा इस साल?"
"फर्स्ट डिवीजन आ गया यार तुक्के में। तुमने फटकार दिया था मुझे, तो थोड़ी तकलीफ हुई थी। बस इसके बाद स्टडीज़ में मन लगाया।" -मुस्करा कर चन्दन ने बताया। 
 "बधाई चन्दन! अच्छा लगा तुम्हारी प्रोग्रेस देख कर।" -बुझे स्वर में विदिशा ने कहा। उसे अपनी परफॉरमेंस का ख़याल हो आया था। 
 चन्दन कुछ और कहता-पूछता, उसके पहले ही विदिशा वहाँ से उठते हुए पुनः बोली- "मुझे जाना होगा चन्दन, काफी देर हो गई है मुझे यहाँ आये।"
"ठीक है, मैं परसों लौटूंगा वापस। अगर समय मिला तो फिर मिलूँगा।" -चन्दन भी उठ खड़ा हुआ। 
  विदिशा घर लौटते हुए सोच रही थी, 'अच्छा हुआ जो मैं निकल ली वहाँ से, अगर वह मेरे रिज़ल्ट के बारे में पूछ लेता तो कितनी हेठी होती मेरी!'
  अगले दिन विदिशा ने नीलिमा को दोपहर में कॉल किया- "नीलिमा, आज मैं पार्क में नहीं आऊँगी। मेरा इन्तज़ार मत करना।"
 "क्यों?"
"यूँ ही यार! कल तेरे जाने के बाद अचानक ही चन्दन आ गया था पार्क में। हो सकता है, आज फिर बोर करने आ जाए।"
"अरे विदिशा, तू भी ना! आ भी गया वह, तो अपना क्या लेगा? उसके लिए हम अपनी शाम बिगाड़ेंगे क्या? सुन, तू आ रही है। मैं इन्तज़ार करुँगी तेरा।" -उधर से नीलिमा ने फोन काट दिया था। 
 'ठीक ही तो कहती है नीलिमा। उसके कारण हम क्यों अपना रूटीन डिस्टर्ब करें, जाऊँगी मैं', सोचा विदिशा ने। 

                                                                             (3)

  शाम को वह लगभग रोज़ के समय पार्क में पहुँची। नीलिमा अभी तक नहीं आई थी। दस-पन्द्रह मिनट बाद किसी के अपने पास आने की आहट आई तो 'कितनी देर कर दी यार तूने!', कहते हुए उसने पीछे की ओर देखा- नीलिमा नहीं, चन्दन खड़ा था। 
 "तो तुम्हें विश्वास था कि मैं आऊँगा।' -चन्दन ने मुस्करा कर कहा। 
"नहीं-नहीं, मैंने समझा, नीलिमा आई है।"
"ओह, तुम्हारी पक्की सहेली, नीलिमा!", कहते हुए वह बेतकल्लुफ़ी के साथ विदिशा के पास बैंच पर बैठ गया। 
विदिशा कुछ प्रतिक्रिया दे, इसके पहले ही चन्दन पुनः बोला- "कल लौट रहा हूँ तो सोचा आज एक बार और मिल लूँ तुमसे!"
विदिशा अब भी खामोश रही तो चन्दन ने एक बार और कोशिश की- "यदि मेरा यहाँ आना तुम्हें अच्छा नहीं लगा है तो मैं चला जाता हूँ विदिशा! अब मैं पहले वाला चन्दन नहीं रहा। एक हैल्दी रिलेशनशिप तो रख ही सकते हैं न हम लोग, लेकिन यदि यह भी गवारा नहीं तुम्हें तो ठीक है, मैं चलता हूँ।".... और चन्दन उठ खड़ा हुआ। 
"नहीं चन्दन, तुम बुरा न मानो। दरअसल आज मेरा मूड कुछ ठीक नहीं है। बैठो तुम!" -विदिशा ने स्थिति को सामान्य बनाने की कोशिश करते हुए कहा। वह अकारण ही उसे अपमानित करना नहीं चाहती थी। उसके यह कहने के साथ ही नीलिमा भी वहाँ पहुँच गई थी। उसके आ जाने से विदिशा कुछ सहज हुई, बोली- बहुत देर कर दी नीलिमा!", फिर चन्दन की तरफ देख कर पुनः नीलिमा से कहा- "चन्दन से मिलो। दो दिन से आया हुआ है यहाँ।"
"हेलो चन्दन, कैसे हो ?" -नीलिमा ने हाथ आगे बढ़ाया। 
हाथ मिला कर चन्दन ने मुस्कराते हुए जवाब दिया- "बस यार, अच्छा हूँ। यहाँ पार्क में आया था तो विदिशा को देख कर बात करने बैठ गया। अब तुम नहीं आई थी तो तब तक इसकी बोरियत भी तो कम करनी थी।"
 दोनों हँस पड़े तो विदिशा भी साथ देने के लिए मुस्करा दी। कुछ देर की इधर-उधर की बातों के बाद चन्दन दोनों से विदा ले कर वहाँ से चला गया। 
 चन्दन के जाने के बाद विदिशा ने कहा- "यार तू ठीक मौके से आ गई, वरना तो यह बोर कर देता। चल, दो चक्कर लगा लेते हैं पार्क में।"
"अरे विदिशा, तूने इस बिचारे को अभी तक माफ़  नहीं किया? तू तो जानती ही है कि मैंने स्टेट सर्विसेज़ के लिए तैयारी शुरू की है। चन्दन भी इसी की तैयारी कर रहा है, सो हमारी कभी-कभी फोन पर बात हो जाती है। बन्दा अब काफी स्मार्ट हो गया है और हाँ, पहले से कुछ संजीदा भी।" -टहलते के लिए उठते हुए नीलिमा बोली। 
"चल ठीक है यार, हुआ करे।  मुझे इस सबसे कोई मतलब नहीं। बता, तेरी तैयारी कैसी चल रही है?"
 "ठीक ही चल रही है। पास हो गए तो ठीक, नहीं भी हुए तो भूखों तो नहीं ही मरेंगे यार! कुछ और नौकरी कर लेंगे, वरना जो ले जायेगा, वह तो खिलायेगा ही न!" -कह कर नीलिमा अपनी बात पर स्वयं ही हँस दी। 
 विदिशा हँस न सकी, विरक्त स्वर में बोली- "यह परवश होने की मानसिकता हमारी स्त्री-जाति में पता नहीं कब तक रहेगी? इस युग में भी हम अपना स्वाभिमान जगा नहीं पाए तो हमारा पढ़ना-लिखना व्यर्थ है।" 
 "छोड़ न यह अभिमान-स्वाभिमान की बात! सच्चाई के धरातल पर जीना सीख विदिशा! यह जो 'नारी शक्ति का रूप है', 'नारी देवी है, वंदनीय है', जैसे स्लोगन हैं न, वह 'महिला दिवस' जैसे अवसरों पर औरतों को भरमाने के लिए पुरुषों द्वारा रचे गये चोचले हैं। क्या हम नहीं जानतीं, सही मायने में महिलाओं को कितनी तवज्जो देता है यह पुरुष नाम का प्राणी!" -अब नीलिमा की आवाज़ में भी तल्खी उभर आई थी। 
 "तो फिर स्वावलम्बी होने का प्रयास तो हमें करना ही होगा न, ताकि ज़रुरत पड़ने पर भूखों मरने की नौबत तो कम-से-कम न ही आये और 'वह तो खिलायेगा ही' जैसी बात न सोचनी पड़े, जिसमें आत्मविश्वास की भावना कम व परवशता की अधिक है।"
"हाँ बाबा हाँ, मैं समझ गई प्रोफ़ेसर साहिबा!"
 इस बार दोनों ही मुस्करा दीं। दो चक्कर पूरे होने के बाद दोनों ने एक-दूसरे से विदा ली। 
 घर पहुँची विदिशा, तो उसके मम्मी-पापा डिनर टेबल पर उसका इंतज़ार कर रहे थे। 
 "अरे, आज खाना इतनी जल्दी?" -विदिशा ने आश्चर्य से पूछा। 
"हाँ बेटा, आज तेरे पापा एक अच्छी मूवी की डी.वी.डी. लाये हैं। जल्दी खाना खा लें, फिर मूवी देखेंगे।"
"वाओ, कौन-सी मूवी है?"
"तेरे फेवरेट देवगन की मूवी है 'सिंघम'! चल, हाथ-पैर धो कर जल्दी से आजा।" -मुस्कराते हुए इस बार रस्तोगी जी ने जवाब दिया। 
 विदिशा ने अभी तक यह मूवी नहीं देखी थी। जल्दी से तैयार हो कर वह डिनर के लिए आ गई। डिनर के बाद तीनों मूवी देखने लगे। 
 मूवी में नायिका 'काव्या' का चरित्र और नायक 'सिंघम' की बहादुरी विदिशा के आकर्षण के मुख्य बिंदु बन गये।   मूवी देखने के बाद उसके मन में हर अन्याय का प्रतिकार करने की भावना और बलवती  हो गई। यह उम्र ही ऐसी होती है जब फिल्मों के नायक-नायिका में युवा-वर्ग अपना अक्स देखता है।  

  समय के साथ विदिशा सामान्य तो होने लगी थी, किन्तु इस वर्ष वह कोई और पढ़ाई करना नहीं चाहती थी। रस्तोगी जी चाहते थे कि विदिशा या तो एमबीए कर ले या उनके व्यवसाय में सहयोग करे, किन्तु विदिशा ने कह दिया कि वह अगले साल सोचेगी इस विषय में। वह और उनकी पत्नी आरती विदिशा की हर इच्छा में उसके साथ खड़े थे, सो उन्होंने भी उसके निश्चय को अपनी सहमति दे दी। 
  सुबह-शाम विदिशा घर के कामों में अपनी मम्मी की मदद कर देती थी। दिन में उपन्यास, विशेषकर जासूसी उपन्यास पढ़ना व शामें अक्सर अपनी सहेली के साथ पार्क में गुज़ारना भी इन दिनों की उसकी दिनचर्या में शामिल था।
  एक शाम विदिशा घर की छत पर टहलती हुई मोबाइल से गाने सुन रही थी। वर्षा का मौसम निकल चुका था। हल्की गुलाबी ठण्ड इन दिनों रातों को खुशनुमा बनाने लगी थी। अभी साँझ होने जा रही थी। आकाश में पक्षी-वृन्द दूर क्षितिज से अपने घरोंदों की ओर लौट रहे थे। कभी बादलों के नीचे तो कभी बादलों के पार छिपते चल रहे नन्हे पंछियों को मुग्ध-भाव से देखे जा रही थी विदिशा। अचानक गाने आने बंद हो गये और उसका फोन घनघना उठा। उसने फोन ऑन किया। 
 "हेलो!... अरे तुम! ... हाँ, बोलो चन्दन! कैसे फोन किया?"
 "देखो विदिशा, मेरी बात ध्यान से सुनना... और हाँ, पूरी बात सुने बिना फोन मत काटना।"
"लेकिन चन्दन ..."
"मैंने कहा न विदिशा, प्लीज़ मेरी पूरी बात सुनो।" -विदिशा की बात काट कर चन्दन ने अपनी बात जारी रखी- "विदिशा, मेरा आर.ए, एस, परीक्षा की 'एकाउंट्स सर्विसेज़' में सेलेक्शन हो गया है। कुछ दिन बाद ट्रेनिंग में जाना होगा मुझे, लेकिन उससे पहले कुछ अहम् फैसला मुझे अपनी ज़िन्दगी का करना है। देखो यार, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ। अभी तक तुम्हें भुला नहीं पाया हूँ और शायद ज़िन्दगी में कभी भुला नहीं सकूँगा। मैंने खुद को प्रूव कर दिया है और अब शायद तुम्हारे काबिल भी हो गया हूँ। प्लीज़ मेरे प्यार को स्वीकार करो, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।"
एक साँस में कह गया था चन्दन। विदिशा ने सुना सब-कुछ, लेकिन कुछ नहीं बोली। 
"विदिशा, खामोश मत रहो, कुछ बोलो प्लीज़! मैं मर जाऊँगा अगर तुमने मना किया तो!" -पुनः उधर से चन्दन ने विनती के स्वर में कहा। 
 "चन्दन, मैंने शादी नहीं करने का फैसला किया है। तुमसे ही नहीं, मैं किसी से भी शादी नहीं करूँगी।"
"ऐसा मत कहो विदिशा! ज़िन्दगी का फैसला यूँ नहीं लिया जाता। मैं तुम्हारा अच्छा जीवन-साथी बन कर दिखाऊँगा। मैं कल फिर इसी समय तुम्हें कॉल करूँगा। तुम एक बार और सोच लो। मेरे लिए तुम्हें अपना फैसला बदलना ही होगा। मैं तीन साल से तुम्हारी 'हाँ' का इन्तज़ार कर रहा हूँ।"
  विदिशा कुछ जवाब देती, उसके पहले ही चन्दन ने फोन काट दिया था। 

   विदिशा छत से उतर कर नीचे आई। उसने देखा, मम्मी खाना बना रही है तो वह सीधी अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर लेट गई। पिछले दो वर्षों से घर की मेड उसकी सास की लम्बी बीमारी के कारण अवकाश पर थी तो घर के झाड़ू-पौंछे के लिए तो आरती ने एक सहयोगी बाई रखी थी, किन्तु खाना वह स्वयं ही बनाती थी। विदिशा के दिमाग में चन्दन के शब्द गूँज रहे थे। 'लेकिन मैं क्यों सोच रही हूँ उसके बारे में? जब मैंने शादी नहीं करने का निश्चय कर ही लिया है तो फिर उसकी बातें क्यों दिमाग़ से हट नहीं रही हैं?', उसके विवेक ने उसे झकझोरा। वह कोशिश करने लगी कि अपने मस्तिष्क में विचारहीनता लाए, लेकिन रह-रह कर वही सब बातें उसे बेचैन करने लगीं। 'विदिशा, जब वह तुझे इतना प्यार करता है, तो तू इतनी रिजिड क्यों हो रही है? इतना प्यार करने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है। छोड़ पुरुषों के प्रति इतनी घृणा को, सब एक-से तो नहीं होते। अपना ले उसे! कैसे गुज़ार सकेगी लम्बी ज़िन्दगी? सोच विदिशा, सोच!', उसके मन ने कहा। 
 'लेकिन, अगर मैं मान भी लूँ उसकी बात तो क्या अपने साथ हुए हादसे को  उससे छिपा सकूँगी? नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकती। मैं किसी को धोखा नहीं दे सकती। यदि... यदि उसे सच बता दूँ तो क्या वह मुझे स्वीकार कर सकेगा? नहीं, वह स्वीकार नहीं करेगा।' असमंजस में पड़ गयी वह। 
  सहसा उसके मन ने उसकी उलझन सुलझा दी- 'तो फिर तू उससे सब-कुछ साफ-साफ कह दे। वह खुद ही अपने-आप को पीछे खींच लेगा और तेरी उलझन ख़त्म!'
 मनीषा ने अपने सिर को झटका और निश्चय कर लिया कि यदि कल चन्दन का फोन आया तो वह अपना सच उसे बता देगी। 
 
 अगले दिन शाम को फिर चन्दन का कॉल आया। विदिशा समय साध कर आज भी छत पर आ गई थी। उसे अपना ही व्यवहार अजीब-सा लग रहा था। 'मैं क्यों उतावली हो रही हूँ उसके फोन के लिए? क्या उसकी ओर झुकाव होने लगा है मेरा?... नहीं', सिर को हल्के से झटक कर उसने मोबाइल ऑन किया। 
"हेलो!"
"मैं, चन्दन!" -दूसरी तरफ से आवाज़ आई। 
"हाँ, बोलो।"
"क्या सोचा तुमने?"
विदिशा कुछ सेकण्ड के लिए चुप रही। 
"तो तुम्हारी ख़ामोशी को तुम्हारी 'हाँ' समझूँ न विदिशा?"
"चन्दन, मुझे तुमसे कुछ कहना है। तुम तो जानते हो, मैं अपने सभी फ्रेंड्स के साथ ट्रांसपेरेन्ट रही हूँ। कुछ भी किसी से भी छिपाना मुझे पसंद नहीं है।" -विदिशा दो क्षण के लिए रुकी। 
"हाँ विदिशा, कहती रहो। अपनी बात पूरी करो।"
"चन्दन, अभी कुछ डेढ़ साल पहले मेरा रेप हुआ था। मैं जान भी नहीं सकी कि कौन थे वह हैवान!" - कह कर विदिशा चुप हो गई। एक मिनट के लिए चन्दन की तरफ से भी ख़ामोशी रही। 
"मैं फोन बंद करती हूँ।" -चन्दन की चुप्पी देख कर विदिशा बोली। 
"नहीं विदिशा, फोन मत काटना। मैं दरअसल हतप्रभ हो गया था सुन कर। कितना बुरा हुआ तुम्हारे साथ! मुझे पता लग जाए उस दुष्ट का तो ज़िंदा नहीं छोड़ूँगा उसे।"
"मेरे परिवार में किसी ने किसी को भी नहीं बताया है यह। तुम किसी को यह बता भी दोगे तो कोई विश्वास नहीं कर सकेगा, इसलिए मुझे चिंता नहीं है। कह दूँगी कि तुम्हारे प्रस्ताव को ठुकरा दिया इसलिए बदनाम कर रहे हो। तुम्हें इसलिए बताया ताकि तुम्हारा प्यार का भूत भाग जाये।"
"गलत सोचती हो विदिशा! प्रथम तो मैं इतना कमीना नहीं कि तुम्हें बदनाम करने का कभी सपने में भी सोचूँ।... और विदिशा मेरा प्यार इतना भी छिछला नहीं कि निर्दोष होते हुए भी तुम्हें अपनाने में संकोच करूँ। सच कहूँ तो तुम्हारे सच को तुम्हारे मुँह से सुनने के बाद मेरा तुम्हारे प्रति प्यार और सम्मान और अधिक बढ़ गया है। मैं तुमसे जल्दी ही शादी भी करना चाहता हूँ।"
विदिशा खामोश रही, नहीं समझ पा रही थी कि क्या प्रतिक्रिया दे। जो कुछ कहा चन्दन ने, उसकी सोच से परे था। 
"बोलो विदिशा! क्या तुम मेरा प्रस्ताव स्वीकार नहीं करोगी। प्लीज़, मेरे प्यार को मत ठुकराओ। मैं तुम्हें सच में बहुत प्यार करता हूँ।"
"मुझे कुछ समय दो चन्दन! मैं अभी कुछ नहीं कह सकती।"
"मैं तुम्हें तीन दिन बाद कॉल करूँगा। तुम तब तक अच्छी तरह सोच लो विदिशा! मुझे कोई जल्दी नहीं है।" -चन्दन ने कॉल काट दी। 
     
                                                                            (4)

   तीन दिन निकल गये। विदिशा दो दिनों तक कुछ अन्यमनस्क-सी रही थी। रस्तोगी जी तो इन दिनों व्यवसाय के सिलसिले में कहीं बाहर गये थे, लेकिन आरती जान रही थी कि विदिशा  इन दिनों कुछ अधिक गंभीर रहने लगी है। 
"क्या बात है बेटा, तुम आजकल कुछ परेशान लग रही हो। क्या बात है, बताओ मुझे।" -उसने विदिशा से पूछा। 
"हाँ मम्मी, मैं बताना चाह रही थी आपको, बस पशोपेश में थी थोड़ी। वह चन्दन याद है आपको? मेरे साथ पढ़ता था और कुछ परेशान थी मैं उसके कारण। एक बार मैंने आपको बताया था, आपको याद हो तो!"
"हाँ-हाँ, अच्छे-से याद है। क्या हुआ चन्दन को?"
"कुछ नहीं, आजकल मुझसे बात कर रहा है और मुझसे शादी करना चाहता है।" -एक स्वर में बोल पड़ी विदिशा।"
"और तुम? क्या तुम पसंद करती हो उसे? तुम्हें तो नापसन्द था न वह।"
"हाँ मम्मी, तब की बात और थी। अब हालात बदल गये हैं। उसे...।"
"लेकिन उसे कभी पता चल गया कि तुम्हारे साथ क्या गुज़रा है, तब क्या होगा?
"अरे पूरी बात तो सुनो मम्मी, उसे सब कुछ बता दिया है मैंने। वह फिर भी मुझसे शादी करना चाहता है।"
"क्या कह रही हो? सब कुछ बता दिया? हे ईश्वर!... बेटा, दुनिया भावुकता से नहीं चलती है। अगर सच में कहीं तुमने उससे शादी कर ली और कभी इस बात को ले कर उसने तुम्हें ताना मारा, उल्टा-सुल्टा कुछ कहा तो बर्दाश्त कर सकोगी तुम? नहीं, मैं सहमति नहीं दूँगी तुम्हें।"
"नहीं मम्मा! अच्छा लड़का है वह। इन दिनों करीब से जान सकी हूँ उसे। बहुत सोचा मैंने और अब इस निर्णय पर पहुँची हूँ कि उससे अच्छा और प्यार करने वाला कोई और लड़का मुझे नहीं मिल सकेगा। बस मेरी पसंद को आपका और पापा का आशीर्वाद मिल जाए।" 
विदिशा ने अब तक चन्दन के साथ हुई बातें भी संक्षेप में मम्मी को बता दीं। 
"जैसा तुम ठीक समझो बिटिया। तुम समझदार हो। अगर सोच ही लिया है तो ईश्वर सब अच्छा करे।" -आरती ने अपनी तरफ से एक तरह से स्वीकृति दे दी। 
  आज फिर चन्दन का फोन आने की सम्भावना थी क्योंकि उसके कहे अनुसार आज चौथा दिन था। विदिशा शाम को छत पर चली आई और फोन की प्रतीक्षा में टहलने लगी। कुछ ही देर में फोन बज उठा। 
"हेलो!" -विदिशा ने कॉल ली। 
"कैसी हो विदिशा?"
"ठीक हूँ। तुम कैसे हो?"
"मैं तो तब ठीक महसूस करूंगा, जब तुम हाँ कह दोगी।" -छूटते ही चन्दन बोला। 
"हाँ बाबा, हाँ। अब बोलो।" -बरबस ही हँस पड़ी विदिशा। उसके स्वभाव में बनावटीपन था ही नहीं। 
"यह हुई न बात डिअर!" -चन्दन की खिली-खिली आवाज़ आई। 
अब तो दोनों के बीच प्यार की बातों का सिलसिला चल पड़ा। एक घंटे तक बात चलती रही। बात ख़त्म होने पर विदिशा को आश्चर्य हो रहा था, कैसे वह उसके साथ इतनी खुल गई थी। 
  अपने कमरे में आई तो उसका चेहरा ख़ुशी से चमक रहा था। आरती भी खुश थी, कई दिनों बाद उसने विदिशा को इतना खुश देखा था। 
 रस्तोगी जी के घर लौटने पर आरती ने सारी बात उन्हें कह सुनाई। सुन कर वह खुश थे कि चलो विदिशा शादी के लिए राजी तो हुई। 'लड़का विदिशा को चाहता है, अच्छा जॉब भी मिल जाएगा उसे।... इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है!', सोचा उन्होंने। 

 अब तो हर दो या तीन दिन में चन्दन का कॉल आ जाता या विदिशा ही अपनी तरफ से कर देती। उधर चन्दन अपनी ट्रेनिंग ले रहा था और साथ ही साथ दोनों का प्यार फोन पर परवान चढ़ रहा था। विदिशा के मम्मी-पापा दोनों की शादी के लिए सहमत हो गये थे और उधर चन्दन के परिवार को तो कोई ऐतराज़ था ही नहीं, बस एक बार होने वाले समधी-परिवार व लड़की को देख लेना ज़रूर चाहते थे। चन्दन के पापा शिव किशोर गंगवाल शाहपुरा में एक सरकारी स्कूल में क्लर्क थे। चन्दन उनकी इकलौती संतान था। एक अच्छे परिवार में बेटे का रिश्ता होने जा रहा है, यह जान कर वह बहुत आल्हादित थे। 
  चन्दन की ट्रेनिंग पूरी हुई और उसकी नियुक्ति चित्तौड़गढ़ में आबकारी विभाग में सहायक लेखाधिकारी पद पर हो गई। उसने वाहन-ऋण ले कर एक कार भी खरीद ली। अब उसके माता-पिता उसकी शादी कर देना चाहते थे। 
  अच्छा मुहूर्त देख कर रस्तोगी जी से सहमति ले कर एक दिन शिव किशोर जी अपनी पत्नी सुजाता व बेटे चन्दन के साथ उनके घर जा पहुँचे। डोरबैल की आवाज़ पर रस्तोगी जी बाहर आये और अनुमान लगा लिया कि गंगवाल-परिवार है। 
  "आइये गंगवाल साहब, स्वागत है आप सब का!" -रस्तोगी जी ने प्रसन्नतापूर्वक अगवानी की और सबको भीतर ले आये। 
 "जी, धन्यवाद! कई दिनों से सोच रहे थे आपसे मिलने का। आपकी अनुमति मिली तो आज प्रोग्राम बना ही लिया।"
 "सौभाग्य हमारा भाई साहब!", रस्तोगी जी बोले और फिर आरती को ड्राइंग रूम में बुलाने के लिए आवाज़ लगाई- "अरे आरती, इधर आओ, देखो तो कौन आया है।"
 "जी, अभी आई।" कहती हुई आरती ड्रॉइंग रूम में आई और "पधारिये" कह कर दोनों पति-पत्नी को नमस्कार किया। शिव किशोर जी व सुजाता ने खड़े हो कर नमस्कार का जवाब दिया। 
 विदिशा अपने बैडरूम में थी। आरती ने कुछ देर के आपसी परिचय व औपचारिक बातचीत के बाद भीतर जा कर विदिशा को चाय-नाश्ता तैयार कर के ड्रॉइंग रूम में लाने की हिदायत दी और वापस लौट आई।  
  कुछ ही देर में विदिशा चाय-नाश्ता ले कर आ गई। विदिशा को ड्राइंग रूम में प्रवेश करते समय सुजाता ने देखा तो उसकी तो आँखें ही फटी रह गईं, 'हे भगवान, इतनी सुन्दर लड़की!' ड्रॉइंग रूम की भव्यता देख कर तो तीनों पहले ही अवाक् रह गये थे। सुजाता अपने व बेटे के भाग्य पर मन-ही -मन इठला रही थी, 'कितना जलेंगी, जब देरानी-जेठानी बहू को देखेंगी, बड़ा मज़ा आएगा।'  
 आरती ने विदिशा को भी यहीं बैठने को कहा। आपस में बातें हुई, कुछ बातें विदिशा की रुचि के बारे में भी पूछी सुजाता ने। विदिशा के वाक्-चातुर्य व सलीकेदार व्यवहार से मन्त्र-मुग्ध हो गये थे शिव किशोर जी और सुजाता। चन्दन भी अपने भावी सास-श्वसुर को अपनी बातों से एवं भावी जीवन की योजनाओं के विषय में बता कर प्रभावित करने में सफल रहा। 
  शिव किशोर जी ने वार्तालाप समाप्त होने पर रस्तोगी परिवार से लौटने की अनुमति चाही तो रस्तोगी जी ने मेहमानों से भोजन करने के बाद जाने का आग्रह किया। 
   लौटते समय गंगवाल जी व सुजाता बहुत खुश थे तो चन्दन कार ड्राइव करते समय मन ही मन भविष्य का ताना-बाना बुन रहा था। उसकी ख़ुशी का तो पारावार ही नहीं रहा था, आखिर विदिशा को पाने की पुरानी मुराद जो पूरी हो रही थी। वह विदिशा के विचारों में इस क़दर खो गया था कि उसकी कार सामने से तेज गति से आ रहे एक ट्रक से टकरा ही जाती, अगर समय रहते गंगवाल जी ने उसे चेता नहीं दिया होता। अन्ततोगत्वा वह लोग सकुशल घर पहुँच गये।
 
   दोनों परिवारों में हुई बातचीत के अनुसार अगले तीन माह में शादी संपन्न करने पर सहमति बनी थी। तदनुसार दोनों परिवार शादी की तैयारियों में जुट गये। रस्तोगी जी ने आरती के परामर्श के अनुसार विदिशा के लिए कपड़े व आभूषण आर्डर कर के समय से तैयार करवा लिये। निमंत्रण-कार्ड छप कर आते ही रस्तोगी जी ने विवाह सम्बन्धी समस्त प्रबन्धन के लिए एक प्रतिष्ठित इवेन्ट मैनेजमेंट कम्पनी को नियुक्त कर दिया गया। 
   विवाह का दिन आ गया। विवाह-आयोजन स्थल रस्तोगी जी के घर से दो कि.मी. दूर एक वाटिका में रखा गया था। लगभग ठीक समय पर चन्दन की बारात आ पहुँची। इकलौती बेटी थी विदिशा, सो बारात की खूब आवभगत की गई। शादी भी धूमधाम के साथ सम्पन्न हुई। सभी मेहमान व बाराती वैवाहिक इन्तजामों से बेहद खुश थे। 

   लेन-देन के मसले पर रस्तोगी जी द्वारा पूछने पर गंगवाल जी ने कह दिया कि उन्हें दहेज़ के रूप में कुछ भी नहीं चाहिए, क्योंकि चन्दन ने विवाह की बात तय होते ही अपने माता-पिता को स्पष्ट कह दिया था- 'दहेज़ के सम्बन्ध में  कोई बात नहीं की जायगी। यदि लड़की वाले अपनी लड़की को कुछ देते हैं तो उनकी इच्छा की बात है, अन्यथा हम लोग कोई मांग नहीं रखेंगे।' गंगवाल जी बेटे की बात से सहमत थे, किन्तु सुजाता को यह बात कुछ कम पसन्द आई थी। उसका सोचना था, 'बेटा अच्छी पोस्ट पर है और लड़की वालों की हैसियत भी अच्छी है, तो अपनी तरफ से कुछ तो डिमांड करना बनता है और फिर हमारे समाज में तो ऐसा रिवाज भी है। यह क्या कि खाली हाथ हिलाते चले आये, आखिर हमारी भी कुछ इज्ज़त है'. लेकिन चन्दन के आगे उनकी एक न चली। 
  रस्तोगी जी ने अगले दिन भोजन के बाद विदाई के समय के कुछ पहले आगे हो कर फिर पूछा कि उन लोगों की कोई मांग हो तो निःसंकोच  बताएँ, किन्तु गंगवाल जी ने दृढता से इन्कार कर दिया, बोले- "रस्तोगी साहब, विदिशा आज से हमारी भी बिटिया है। हम इसे बहू नहीं, बल्कि बेटी मान कर ले जा रहे हैं। आप कुछ भी अन्यथा नहीं सोचें।"
  रस्तोगी जी यह सुन कर गद्गद हो उठे। समधी जी से इतनी सरलता की उम्मीद नहीं थी, उनके दोनों हाथ अपने हाथों में थाम कर स्नेहादरित स्वर में बोले- "यह आपका बड़प्पन ही है गंगवाल जी, जो आप इतनी अच्छी बात सोच और कह रहे हैं। अब से विदिशा आपकी बहू भी है और बेटी भी। हमारे इस कलेजे के टुकड़े को प्यार और अच्छी सम्भाल के साथ रखेंगे आप लोग, हमें पूरा विश्वास है। फिर भीआप कुछ इशारा कर देते तो हमें अच्छा लगता। विदिशा हमारी इकलौती ही बेटी तो है।"
  सुजाता रस्तोगी जी के इतना कहने से कुछ उत्साहित हुई। सोचा, जब समधी जी इतना आग्रह कर रहे हैं तो स्वीकार करना अनुचित नहीं होगा, कहने लगीं- "अब आप इतना... "
 गंगवाल जी अपनी पत्नी की मंशा समझ गये। वह नहीं चाहते थे कि सुजाता ऐसा कुछ कह दे जो चन्दन को नागवार गुजरे, तुरंत सुजाता की बात सम्हालते हुए रस्तोगी जी की ओर उन्मुख हुए-" सही तो कह रही हैं सुजाता। अब आप इतना आग्रह मत कीजिए कि हमें कष्ट पहुँचे।"
 सुजाता ने पति की ओर देखा और फिर रस्तोगी जी से बोली- "हाँ समधी ही, हम कुछ भी स्वीकार नहीं करेंगे।"
 सुजाता की बात सुन कर भावविभोर हुई आरती ने आगे बढ़ा कर सुजाता को गले लगा लिया- "आज से विदिशा आप की हो गई है समधन जी, ध्यान रखियेगा इसका! राजकुमारी की तरह रही है वह अब तक। कभी इससे गलती हो जाय तो बच्ची समझ का माफ़ कर दीजियेगा।"
 "समधन नहीं, मुझे तो सुजाता ही कहें आप। हम दोनों भी आपस में बहनें हुई अब से।... और हाँ, विदिशा की आप बिलकुल चिंता न करें। आपकी राजकुमारी अब हमारे यहाँ रानी बन कर रहेगी।" -सुजाता ने भी अपना मन सहज बना लिया था।  
 विदिशा ने आगे बढ़ कर माता-पिता के चरण-स्पर्श किये। आरती अब तक स्वयं को दृढ रखे हुए थी पर अब उनकी रुलाई फूट पड़ी। रस्तोगी जी भी अपने अश्रु रोक नहीं पाए। दोनों ने अपनी प्यारी बिटिया को गले लगा लिया। विदिशा की आँखों से भी आँसू झर -झर बह रहे थे। वातावरण एकबारगी गम्भीर हो उठा। कुछ द्रवित -सी हो रही सुजाता ने चेहरे पर मुस्कराहट ला कर विदिशा से कहा- "बेटा, रोते नहीं हैं। तुम अपने नये मम्मी-पापा के साथ ही तो आ रही हो।... और फिर तुम जब भी चाहो आती रहना यहाँ। हम लोगों का तो एक ही घर है और तुम्हारे तो दो-दो घर हो गये हैं।"
 रस्तोगी जी व गंगवाल जी के साथ ही चन्दन भी मुस्करा दिया। सुजाता की चुहल ने माहौल को पुनः हल्का कर दिया था। 
  विदिशा व गंगवाल-परिवार को भेंट में दिया गया सब सामान रस्तोगी जी ने अपनी फैक्ट्री के एक मिनी ट्रक में लदवा कर बारात के साथ रवाना कर विदाई की परम्परा पूरी की। 
  फूल-मालाओं से सजी-धजी चन्दन की कार में दूल्हा-दुल्हन सवार हुए व गंगवाल जी व सुजाता के साथ बाराती हँसते-गाते बस में सवार हो गये। सब के व्यवस्थित बैठ जाने के बाद आगे-आगे कार, उसके पीछे ट्रक व सबसे पीछे बारातियों की बस रवाना हुई। 
  यात्रा की दूरी बहुत कम थी सो बीच में कहीं भी रुकने की ज़रुरत महसूस नहीं हो रही थी। उतरती गर्मी का मौसम था और आसमान में आज बादल छाये हुए थे, तो कुछ अधिक परेशानी महसूस नहीं हो रही थी। महिलाएँ वैवाहिक गीत गाने में मस्त थीं और पुरुष खिड़कियों से यदा-कदा सिर बाहर निकाल कर  बाहर का नज़ारा ले कर समय निकाल रहे थे। 

                                                                                 (5)

  शाम साढ़े पाँच बजे तक बारात शाहपुरा सकुशल पहुँच गई। 
 तीन दिन शाहपुरा अपनी ससुराल में रही विदिशा। उसे अपने ताई-ताया ससुर व चाची-चाचा ससुर एवं अन्य कुछ सम्बन्धियों से तोहफे भी मिले। सबसे बड़ा तोहफा तो यह रहा कि सब ने उसकी सुन्दरता की भरपूर प्रशंसा की। इस तोहफे से उससे अधिक ख़ुशी तो चन्दन और सुजाता को हुई। उसके चाचा ससुर की पंद्रह वर्षीया बेटी ने तो यह टिप्पणी तक कर दी कि भाभी तो माधुरी दीक्षित से भी ज़्यादा सुन्दर हैं। विदिशा पहली बार उसकी बात पर लजा गई। 
  
ससुराल में विदिशा के आने के दूसरे दिन उसकी सुहागरात भी मुक़र्रर की गई थी। उस दिन विदिशा के हाथ से शगुन की खीर बनवाई गई। इसके अलावा उससे घर का कोई काम नहीं करवाया गया। दिन में वह घर की रानी थी और रात को केवल चन्दन की। अगले दो दिन का समय भी विदिशा के लिए खुशनुमा रहा। घर में सभी का व्यवहार ऐसा था कि उसे लग ही नहीं रहा था कि वह अपना घर छोड़ कर किसी नये घर में आई है। 
 
 आज विदिशा का ससुराल में चौथा दिन था। उसके पापा पगफेरे के लिए उसे लेने आये थे। सुजाता ने रस्तोगी जी का भरपूर स्वागत किया। रस्तोगी जी ने भेंट के लिए लाये हुए मेवे व मिठाइयों के पैकेट सुपुर्द किये। चन्दन आज सुबह ही चित्तौड़ ड्यूटी पर चला गया था। गंगवाल जी भी स्कूल गये हुए थे। सुजाता ने भोजन करने के लिए आग्रह किया तो रस्तोगी जी ने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार किया- "मैं भोजन कर के आया हूँ और जल्दी ही हम जाना भी चाहेंगे। हम चाहते थे कि विदिशा के साथ चन्दन भी दो दिन के लिए मेरे साथ आते, किन्तु वह तो चित्तौड़ निकल गये हैं।"
  "जी समधी जी, ज़रूरी होने से उसे आज जाना पड़ा। मैंने तो एक सप्ताह की छुट्टी ले ली थी। आपके आने की सूचना दे दी है, सो गंगवाल जी भी हाफ डे ले कर अभी आने वाले ही हैं।"
 विदिशा चाय-नाश्ता ले कर आई ही थी कि दरवाजे की घंटी बजी। 
 "लो आ गये यह भी।" -सुजाता ने दरवाज़ा खोलते हुए कहा।  
 दोनों समधियों ने एक दूसरे की कुशल-क्षेम पूछने के बाद सब के साथ चाय ली। 
  रस्तोगी जी चाय ख़त्म करने के बाद विदा ले कर बाहर आये और कार में बैठ कर विदिशा की प्रतीक्षा करने लगे। 
 विदिशा ने तैयारी कर ही रखी थी, पांच मिनट में ही अपना बैग ले कर बाहर आई और अपने सास-श्वसुर के पाँव छू कर कार में बैठ गई। गंगवाल जी व सुजाता ने पहले हाथ जोड़े व बाद में हाथ हिला कर दोनों को विदा किया। 

  रास्ते में पिता-पुत्री के मध्य बातचीत का विषय यही रहा कि विदिशा के तीन दिन ससुराल में कैसे बीते और यह कि सबका व्यवहार उसके प्रति कैसा रहा। विदिशा ने बताया कि वह यहाँ अच्छे-से रही और सभी ने उसे बहुत प्यार दिया। रस्तोगी जी यह सब जान कर बहुत आश्वस्त हुए। 
  आरती बड़ी बेसब्री से बेटी का इंतज़ार कर रही थी। जैसे ही कार पोर्च में पहुँची, आरती लगभग भागती हुई बाहर आई और विदिशा को कार से बाहर निकलते ही अपनी बाँहों में बाँध लिया व इस तरह उसके माथे व कपोलों को चूमने लगी गोया युगों बाद विदिशा घर आई हो। विदिशा भी एक चूजे की तरह माँ से लिपट गई। 
 "अरे भीतर भी चलोगे या दोनों अपना सारा प्यार यहीं उंडेल दोगी?" -मन ही मन हर्षाते हुए रस्तोगी ने कृत्रिम रोष दिखाया।
 "हाँ जी, आपको क्या मतलब? हम माँ-बेटी के बीच बोलने वाले आप कौन होते हो?"  -मुस्कराई आरती। 
 मंद-मंद मुस्कराते हुए रस्तोगी जी घर के भीतर आये और पीछे-पीछे माँ-बेटी भी। 
 दोनों भीतर आ कर एक घंटे तक बतियाती रहीं, तो रस्तोगी जी ने मुस्कराते हुए व्यंग्य किया- "तुम लोगों के लिए पहले पानी लाऊँ या सीधे ही चाय बना कर लाऊँ?"
  "अरे, सॉरी पापा, मैं लाती हूँ न!" -विदिशा ने उठने का उपक्रम किया। 
 "नहीं रे, इतने दिन बाद आई है, तू क्यों बनाएगी, मैं जाती हूँ। तब तक तू अपने पापा से बात कर।" -आरती ने उठ कर विदिशा के कंधे पर हाथ रख कर थपथपाया और किचन की ओर चल दी। 
 विदिशा से उसके पिछले तीन दिन के ससुराल के अनुभव जान कर आरती बहुत खुश थी। बेटी के जीवन में उसकी खुशियों पर छाया दुर्भाग्य का बादल अब छँट चुका था, यह उसके लिए संतोष का सबब था। 
   
   चार दिन विदिशा ने अपने पीहर में जिस तरह से बिताये वह शायद उसके अब तक के जीवन का सबसे सुखद समय था। उसे उसके मम्मी-पापा वैसे ही बहुत प्यार करते थे, किन्तु इन दिनों जो प्यार उनसे उसे मिला, उसकी बात ही कुछ और थी। रस्तोगी जी और आरती इस बात से बहुत खुश और संतुष्ट थे कि उनकी बेटी को ससुराल में बहुत प्यार और सम्मान मिला था। जो दर्द विदिशा के साथ हुए हादसे ने उन्हें दिया था, उससे वह अब उबर चुके थे। पहले विदिशा के द्वारा शादी नहीं करने का फैसला और फिर अनायास ही अपना फैसला बदल कर अपने जीवन-साथी का स्वयं चुनाव कर उन्हें सूचित करना, सब-कुछ एक फ़िल्मी कहानी की तरह घटा था। विदिशा की पसंद इतनी सही सिद्ध हुई, यह देख वह बहुत सन्तुष्ट थे। 
 विदिशा अब खिली-खिली रहने लगी थी। यहाँ आ कर वह हिरणी की तरह कुलांचे भर रही थी। 
  इस बीच उसकी सहेली नीलिमा उससे मिलने आयी। सोफे पर विदिशा के पास बैठी नीलिमा ने बताया कि तीन माह बाद उसकी भी शादी होने वाली है। उसने विदिशा से अपनी शादी में आने का वादा चाहा तो हँसते हुए विदिशा ने कहा- "अरे बुद्धू, यह भी कोई कहने की बात है? अपनी प्यारी सहेली की शादी हो और मैं उसमें शरीक न होऊँ, यह मुमकिन है क्या भला?"
  नीलिमा के द्वारा पूछे जाने पर उसने अपने ससुराल के अनुभव भी उससे शेयर किये। 
 "यह सब तो ठीक है। चन्दन जीजू के साथ के सारे अनुभव भी तो बता। क्या-क्या हुआ, बता न!" -चंचल स्वर में एक आँख मींच कर नीलिमा ने पूछा। 
 "धत् पागल! जो कुछ बताने लायक था, बता दिया। बाकी तू तीन महीने बाद खुद जान लेगी।" -विदिशा ने शरमाते हुए जवाब दिया। 
  "अरे, तुम बातों से ही सहेली का पेट भर दोगी या कुछ चाय-नाश्ता भी कराओगी। चलो, कुछ ले जाओ उसके लिए।" -भीतर से आरती ने आवाज़ दी। 
 विदिशा भीतर जाने को खड़ी होने लगी तो उसे कोहनी मार कर नीलिमा बोली- "अरे यार, आंटी ने बीच में ही सारा मज़ा किरकिरा कर दिया।" 
  विदिशा मुस्करा कर किचन की ओर चल दी। 
  चाय-नाश्ते के बाद नीलिमा पुनः उससे शादी में आने का वादा ले कर चली गई। 
 रविवार के दिन चन्दन विदिशा को लेने आया। पूरे परिवार ने उसकी खूब आवभगत की। रविवार का दिन ठीक नहीं होना बता कर उसे एक दिन के लिए रोक लिया। 
  अगले दिन दोपहर का खाना खाने के बाद विदा होने का समय आया। विदिशा ने ममी-पापा के पाँव छूए तो आरती उसे गले लगाते हुए भावुक हो उठी, चन्दन से बोली- "मेरी बेटी का खूब ख्याल रखना चन्दन बेटा! जब भी वह यहाँ आना चाहे, तुम ले कर आ जाना।"
 "हाँ, मम्मी जी, आप बिलकुल चिंता न करें। देखना आप, यह आने के लिए कहेगी ही नहीं।" -मुस्कराते हुए चन्दन ने जवाब दिया और विदिशा के लिए कार का दरवाज़ा खोला। 
  "अगर ऐसा कहते हो तो मैं यहीं रुक जाती हूँ।" -शर्मा कर कार का दरवाज़ा वापस बंद करते हुए विदिशा बोली। 
 "नहीं बाबा नहीं, चलो अब। आज का हाफ डे तो अटेंड करने दो मुझे।" -पुनः कार का दरवाज़ा खोल कर चन्दन हँसा। 
   दोनों की आपसी चुहल देख रस्तोगी-दम्पति मुस्करा दिये। 
  चन्दन और विदिशा कार में बैठ कर रवाना हो गये। कुछ दूर हो चले थे कि विदिशा की नज़र माइल स्टोन पर पड़ी। चौंक कर उसने चन्दन से पूछा- "अरे , किधर जा रहे हैं हम? यह तो चित्तौड़ का रास्ता है।"
 "हाँ, हम चित्तौड़ ही जा रहे हैं। मैंने मम्मी से कह दिया था कि हम सीधे ही चित्तौड़ जाएँगे और वीकेंड में शाहपुरा आ जायेंगे।"
 "लेकिन मेरा सामान तो वहीं पड़ा है, क्या करूँगी उसके बिना?"
 "शाहपुरा से लेता आया हूँ। मम्मी ने तुम्हारी ज़रुरत का सारा सामान डिक्की में रख दिया है, चिंता न करो।" 
 विदिशा ने संतोष की साँस ली और अपना सिर पीछे सीट पर टिका कर आँखें मूँद ली। उसको शीघ्र ही झपकी आ गई। चन्दन एकाग्र-चित्त कार चलाता रहा। 
  चित्तौड़ पहुँच कर चन्दन ने विनायक कॉम्प्लेक्स के पोर्च में विदिशा को कार से उतारा और कार पार्क करने के लिए पार्किंग कीओर गया। विदिशा ने देखा, कॉम्प्लेक्स के परकोटे का भीतरी भाग बहुत खूबसूरत था। बाउंड्री वॉल के किनारे-किनारे एक पंक्ति में कुछ-कुछ दूरी पर बड़े पेड़ थे और प्रत्येक दो पेड़ों के मध्य पाँच-पाँच छोटे ऑर्नामेंटल पौधे लगे हुए थे। इस पंक्ति के आगे के भाग में तीन फ़ीट चौड़ी क्यारी थी जो पंक्ति के साथ निरन्तर चल रही थी। इस क्यारी में छोटे-छोटे पौधों में रंग-बिरंगे सुन्दर फूल खिले हुए थे। एक तरफ बच्चों का छोटा पार्क था, जिसमें बच्चों के खेलने के विभिन्न संसाधन थे और मध्य में एक छोटे कुण्ड में स्थित फाउण्टेन में सुन्दर फव्वारा चल रहा था। कुछ बच्चे वहाँ खेल रहे थे। एक ओर काम्प्लेक्स भवन से लगा हुआ जिम था। विदिशा मुग्ध भाव से चारों ओर देख रही थी। तभी चन्दन विदिशा के सामान के साथ लौटा और थर्ड फ्लोर स्थित अपने फ्लैट के लिए एलिवेटर (लिफ़्ट) की तरफ विदिशा को ले चला। फ्लैट में प्रवेश के बाद सामान एक तरफ रख कर चन्दन ने बताया, पहले वह एक अन्य फ्लैट में रहता था और तीन दिन पहले ही यह नया टू बीएचके फ्लैट लिया है। विदिशा ने देखा फ्लैट बड़ा तो था ही, सभी आधुनिक सुविधाओं से युक्त भी था। यह फ्लैट अन्य फ्लैट्स से कुछ दूरी पर भी था, सो प्राइवेसी भी थी। उसने प्रशंसा भरी निगाहों से चन्दन की आँखों में देखा और मुग्ध भाव से मुस्करा दी। चन्दन ने आगे बढ़ कर उसे अपने आगोश में ले लिया और उसके होठों पर गहरे चुम्बन की मोहर लगा दी। विदिशा भी एक लतिका की तरह उससे लिपट गई। कुछ क्षण की इस मदहोशी के बाद विदिशा चन्दन को अपने से पृथक कर बोली- "अब यह बदमाशी ख़त्म करो। कुछ फ्रेश-वैश हो लें, फिर चाय पीयेंगे। मुझे बहुत तलब लग रही है।"
  चन्दन को मालूम था, चाय विदिशा की कमजोरी है। उसने व विदिशा ने विदिशा के सामान को अस्थायी रूप से आलमारी में रखा और दोनों फ्रेश होने चले गये। फ्लैट में दो वॉशरूम थे, ड्राइंग कम लिविंग रूम में एक जनरल टॉयलेट और दूसरा बैडरूम में। दूसरे वाले बैडरूम में वॉशरूम नहीं था। फ्रेश होने के बाद कपडे बदल कर चन्दन बाहर निकला और दूध के दो पैकेट खरीद कर ले आया। और सब सामान घर पर था। अदरक के भी तीन-चार टुकड़े पड़े थे। विदिशा ने बढ़िया अदरक वाली चाय बनाई और बालकनी वाले कमरे की बालकनी में बैठ कर दोनों चाय के सिप लेने लगे। 
 "चन्दन, छोड़ो न हाफ डे का चक्कर! आज पूरी छुट्टी करो न!" -मनुहार वाले ढंग से विदिशा ने चन्दन की आँखों में देखा। 
 "अब यूँ जादूई नज़र से देखोगी तो एक दिन तो क्या पूरे सप्ताह की छुट्टी ले लूँगा रानी!" -चन्दन ने चाय की अंतिम सिप ले कर शरारत के अंदाज़ में जवाब दिया। 
 "बड़े शरारती हो चन्दन तुम!" -विदिशा का स्वर भी बहका-बहका था। 
 चन्दन ने  विदिशा के हाथ से कप ले कर नीचे टेबल पर रखा और उसकी दोनों बाहें पकड़ कर कुर्सी से उठाया। विदिशा उसकी मंशा समझ गई थी, उसने कोई विरोध नहीं किया। चन्दन उसको बाँहों में थामे भीतर कमरे में ले आया। 
 रात को उन्होंने खाना बाहर लिया और करीब दस बजे घर पहुँचे। अगले दिन मंगलवार को सुबह विदिशा की नींद खुली तो सुबह के आठ बज चुके थे। वॉशरूम में जा कर वापस आई और चन्दन को जगाया- "उठो चन्दन, ऑफिस नहीं जाना क्या?"
"अभी सुबह तो होने दो यार, क्यों परेशान कर रही हो? आओ तुम भी सो जाओ।" -कहते हुए उसने विदिशा का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया। विदिशा असंतुलित हो उस पर जा गिरी। विदिशा के सम्हलने से पहले ही चन्दन ने उसे अपने सीने से लिपटा लिया। विदिशा कुछ बोल नहीं पा रही थी क्योंकि उसके होठ बुरी तरह से चन्दन के होठों की गिरफ्त में थे। स्वयं को चन्दन की इच्छा पर छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं था उसके पास। 
 आधे घंटे बाद चन्दन वॉशरूम में तैयार होने चला गया था। विदिशा ने भी पेस्ट, वगैरह कर के चाय-नाश्ता तैयार किया। चन्दन तैयार हो कर आया। दोनों ने ब्रेकफस्ट किया। 
 "जनाब, अब आपको लंच-टाइम में लंच के लिए घर आना पड़ेगा या लंच बाहर ही करना पड़ेगा। लंच तैयार कर सकूँ, इतना समय ही नहीं दिया तुमने मुझे।"- शिकायत वाले लहजे में विदिशा ने कहा। 
 "कहो तो आज भी छुट्टी ले लूँ ऑफिस से? घर में रह कर ही लंच ले लूँगा।"
 "ज़्यादा रोमांटिक मत बनो रोमियो, नौकरी से निकाल दिये जाओगे तो लंच महंगा पड़ जाएगा।" -विदिशा ने कृत्रिम रोष के साथ कहा। 
 "अच्छा बाबा, जाता हूँ। आ सका तो लंच में आ जाऊँगा। तुम्हें फोन कर के सूचना दे दूँगा नहीं आने की स्थिति होगी तो। तुम प्लीज़ मेरा इंतज़ार मत करना। चलो, बाय फॉर नाओ!"
 "बाय डिअर!"
 ... और एक फ्लाइंग किस देते हुए चन्दन बाहर निकल गया।
  स्नानादि से निवृत हो कर विदिशा पलंग पर लेटे हुए एक मासिक पत्रिका पढ़ने लगी। नाश्ता कुछ हैवी हो गया था सो उसे ज़्यादा भूख नहीं लग रही थी। पलंग पर पड़े-पड़े ही उसे नींद आने लगी। पत्रिका एक तरफ रख कर वह सो गई। खूब गहरी नींद आई उसे। जागी तब, जब उसका मोबाइल घनघनाया। चन्दन का कॉल था- "सुनो जान! मैं नहीं आ सकूँगा यार! काम ज़्यादा है, यहीं कुछ कर लूँगा। लंच तुम्हें अकेले ही करना पड़ेगा, सॉरी!"
 "नहीं, कोई बात नहीं हनी, तुम टेन्शन मत लो।"
 "चलो फिर शाम को मिलते हैं।"-चन्दन ने बात ख़त्म कर फोन काट दिया। 

                                                                                (6)

    शाम को चन्दन घर आया तो उसके साथ उसका एक दोस्त भी साथ था।
 "विदिशा! परेश हड़पावत से मिलो, मेरा खास दोस्त! शाहपुरा में हम साथ पढ़ते थे। वहीं का रहने वाला है। इन दिनों पापा का आर्किटेक्चर कंसल्टेंसी का बिज़नेस सम्हालता है, जिसकी एक ब्रांच यहाँ चित्तौड़ में भी है।"   
"नमस्ते परेश जी! लेकिन क्या यह हमारी शादी में आये थे? मैंने तो नहीं देखा इन्हें।"
"हाँ, यह शादी में नहीं आ सका था। अपने काम के सिलसिले में अजमेर गया था, कल ही लौटा है।"
 परेश मुस्करा कर नाटकीय ढंग से चेहरे के पास हथेली लाते हुए सिर झुका कर बोला- "भाभी, शादी में नहीं आने की गुस्ताखी के लिए माफ़ी चाहता हूँ। अब आपके हाथ की चाय पी कर इसका प्रायश्चित करूँगा। हाँ, उससे पहले एक ग्लास पानी पिला दो।"
 विदिशा ने उसकी बात पर कोई उत्साह नहीं दिखाया, एक औपचारिक मुस्कान के साथ पानी लेने के लिए किचन में चली गई। ऐसा नहीं था कि अजनबियों से बात करने में वह असहज हो जाती थी, किन्तु उसे परेश का यूँ बेतकल्लुफ होना कुछ अच्छा नहीं लगा था। 
 चन्दन और परेश ड्रॉइंग रूम में रखी कुर्सियों पर बैठ गए। विदिशा ने पानी के ग्लास  उनके सामने टेबल पर रखे। 
 "तुमने लंच ले लिया था न, या पहले दो फुल्के उतार दूँ? सब्जी दोपहर की रखी पड़ी है, उसी को गर्म कर दूँगी।" -विदिशा ने चन्दन से पूछा। 
 "मैंने लंच ले लिया था विदिशा! तुम तो अभी चाय ही बना लाओ अच्छी-सी।" -चन्दन ने जवाब दिया और फिर परेश के साथ बातचीत करने लगा। 

 विदिशा चाय ले कर आई और तीनों ने साथ बैठ कर चाय पी। चन्दन ने बात का टॉपिक बदला ताकि विदिशा भी उनके साथ बातचीत में शामिल हो सके, किन्तु विदिशा केवल हाँ-हूँ करती रही और फिर यह बता कर कि उसके सिर में दर्द है, 'सॉरी' कह कर अपने बैडरूम में चली गई। 
 "उसकी तबियत सुबह से ही कुछ नर्म है यार!" -चन्दन ने बात सम्हाली। 
 दस-पंद्रह मिनट बाद परेश चला गया। 
  उसके जाने के बाद विदिशा ड्रॉइंग रूम में आ गई। चन्दन ने उसके असामान्य व्यवहार के बारे में जानकारी के लिए पूछा- "क्या बात है स्वीटी, तुम इस तरह उखड़ी-उखड़ी क्यों थी और अचानक उठ कर क्यों चली गई? तबियत तो ठीक है न तुम्हारी?"
 "चन्दन, तुम तो जानते ही हो कि मैं बिना लाग-लपेट के बात करना पसंद  करती हूँ तो तुमसे कुछ छिपाऊँगी नहीं। मुझे तुम्हारे दोस्त का ओवर स्मार्ट बनना ठीक नहीं लगा।"
 "अरे, ऐसा भी क्या कह दिया था उसने? मुझे तो कुछ भी अटपटा नहीं लगा।" -चन्दन ने एक तरह से उसकी तरफ से सफाई पेश की। 
 "तुम्हें न लगा हो, मुझे तो लगा। छोड़ो न हनी, और भी बातें हैं हमारे पास करने को।" -विदिशा ने बात का रुख बदलने के लिए कहा- "क्या लिया था लंच में तुमने?" 
 "ऑफिस की कैन्टीन से मसाला डोसा मंगवा लिया था। काफी टेस्टी बनता है वहाँ का डोसा।" -चन्दन ने बताया। 
 इसके बाद यूँ ही कुछ देर तक दोनों गप-शप करते रहे और फिर विदिशा खाना बनाने किचन में चली गई। चन्दन सब्जी साथ ले कर आया था, जिसे काटने के लिए वह भी किचन में आ गया। दोनों खाना बनाने की कवायद के साथ ही बातें भी करते जा रहे थे तो समय का पता ही नहीं चला और खाना तैयार हो गया। 
 आज ऑफिस में काम ज़्यादा होने से चन्दन कुछ थका-थका महसूस कर रहा था अतः डिनर के बाद दस-पन्द्रह मिनट टीवी देख कर दोनों सो गये।  
  गुरुवार को चन्दन ने ऑफिस जाते समय विदिशा को शाम को तैयार रहने के लिए कहा। शाम को मूवी देख कर डिनर बाहर ही लेने का कार्यक्रम रखा था उसने। 
  दोपहर में अपने बैडरूम में विदिशा आराम कर रही थी। अचानक डोरबैल बजी। उसने घड़ी देखी, तीन बज रहे थे। 'इतना जल्दी आ गये चन्दन', मन ही मन कहते हुए वह दरवाज़ा खोलने को उठी। 
  दरवाज़ा खोला तो सामने परेश को देख कर चौंक पड़ी वह!
 "आप?... चन्दन तो अभी ऑफिस में हैं। वह तो साढ़े पाँच के लगभग आते हैं।"
"अरे तो क्या हम अपनी भाभी से मिलने भी नहीं आ सकते?... और क्या हम दरवाज़े पर खड़े-खड़े ही बात करेंगे?" -कहते हुए परेश भीतर आ गया। 
 विदिशा असहज थी उसे यूँ भीतर आते देख कर, फिर भी यथासंभव अपने स्वर में संतुलन लाते हुए बोली- "नहीं-नहीं, आइये न!"
 परेश ड्रॉइंग रूम में आकर इत्मीनान से कुर्सी पर बैठ गया। 
"मैं आपके लिए पानी लाती हूँ।" -कह कर विदिशा सीधी किचन में चली गई। पानी का ग्लास परेश के सामने टेबल पर रख कर उसने कहा- "मैं चन्दन को आपके आने की सूचना दे देती हूँ, ताकि वह घर जल्दी आ जाएँ।"
 "अरे, उसकी चिन्ता न करें आप, मैंने उसे फोन पर पहले ही बता दिया है।" -चन्दन ने कहा। 
विदिशा कुछ आश्वस्त हुई। परेश के साथ अधिक बात न करनी पड़े, इस ख़याल से वह पुनः बोली- "आप बैठें, मैं आपके लिए चाय बनाती हूँ।"
  "चाय तो बाद में पी लेंगे विदिशा! यहाँ आ कर बैठो न, कुछ बात करनी है तुमसे।"
 विदिशा चौंक पड़ी। परेश का 'भाभी' की जगह उसे उसके नाम से पुकारना और आप से 'तुम' पर आ जाना, उसे असामान्य लगा। विदिशा ने फुर्ती से किचन में जा कर केतली में पानी ले कर गैस-चूल्हे पर रखा और मन ही मन मनाने लगी कि चन्दन जल्दी ही आ जाए। तभी परेश ने भीतर आ कर चूल्हे का नॉब बंद कर दिया और विदिशा कुछ समझे, उसके पहले ही उसका हाथ पकड़ कर कहा- "विदिशा, आओ न, तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।"
 किंकर्तव्यविमूढ़ विदिशा ने हल्के झटके से अपना हाथ छुड़ाया और उसके साथ ड्रॉइंग रूम में आ गई। 
 उसकी बात सुने बिना कोई चारा नहीं था, कुर्सी पर बैठ कर बोली- "हाँ, कहो क्या कहना है?"
"मैं बात को ज़्यादा खींचना पसन्द नहीं करता, इसलिए सीधे ही काम की बात पर आता हूँ।" -कह कर दो पल के लिए वह रुका। अचम्भित विदिशा उसका चेहरा देख रही थी।  
 "विदिशा, तुम्हें पता है, तुम्हारा रेप किसने किया था?"
उछल पड़ी विदिशा, कुर्सी से उठ कर लगभग चीखते हुए बोली- "क्या बकवास करते हो तुम? यह तुम से किसने कहा? मेरे साथ कोई रेप नहीं हुआ।" 
"शान्त! शान्त हो जाओ विदिशा! तुमने किसी अज्ञात के खिलाफ कोई पुलिस केस नहीं किया और न ही किसी अखबार में आया था, फिर भी मुझे पता है।... तो जाहिर सी बात है कि मैं यह बात जानता हूँ। तुम्हारे नहीं मानने से सच्चाई बदल तो नहीं सकती।" 
 विदिशा का चेहरा पीला पड़ गया। वह दुःख और आश्चर्य के साथ परेश की ओर देख रही थी और न चाहते हुए भी चाह रही थी कि वह आगे बोले।
 "तो जैसा कि मैंने अभी तुम्हें कहा था, मैं बात को ज़्यादा खींचने में विश्वास नहीं रखता, तो बताता हूँ तुम्हें। तुम्हारा रेप चन्दन ने किया था।" -परेश ने कुटिल मुस्कान के साथ खुलासा किया। 
 क्षोभ और पीड़ा से आहत विदिशा ने अपने कान बन्द कर लिए- "झूठ कह रहे हो तुम, झूठे हो तुम! चन्दन ऐसा नहीं कर सकता। वह ऐसा कैसे कर सकता है? वह तो मुझसे बहुत प्यार करता है।"... और वह सुबक पड़ी। उसका मन छलनी-छलनी हो रहा था। 
"कह दो कि यह झूठ है... उफ़ मैं नहीं सह सकती यह।" -रोते-रोते वह फिर बोली। 
"वह तुमसे बहुत प्यार करता है। इसीलिए तुम्हें पाने के लिए उसने ऐसा किया, क्योंकि तुम उसके प्यार को तवज्जो ही नहीं दे रही थी।"
विदिशा कुछ कहने की मनःस्थिति में ही नहीं थी। 
परेश ने पुनः कहा- "मैं भी उसके साथ था। उसने इस काम के लिए मेरी मदद चाही थी।"
"तो क्या तुमने भी...?" -घृणा से फुफकारते हुए विदिशा चिल्लाई। उसे लगा, शायद आज भी वह चन्दन की सहमति से यहाँ आया है। 
"नहीं, उसने मुझे तुम्हें हाथ ही नहीं लगाने दिया। उसने कहा कि बाद में वह मौका सम्हाल कर तुमसे शादी करेगा। मैं बेवकूफ़ तो उसके कहने पर बस एक पहरेदार की हैसियत से उस पहाड़ी जगह पर कुछ आड़ ले कर खड़ा था कि इस दौरान कोई आ न जाए।"
दो मिनट रुक कर परेश ने कहा- "विदिशा, यह राज़ अभी तक मेरे और चन्दन के बीच ही है और अगर तुम चाहो तो आगे भी यह राज़, राज़ ही रहेगा। बस एक बार..."
 विदिशा वैसे ही अपनी मनोदशा को सम्हाल नहीं पा रही थी, उसकी बात सुन कर बुरी तरह से चौंक पड़ी- "क्या कहना चाहते हो?"
"समझ तो गई ही होगी तुम! बस तुम एक बार मेरे साथ... ! चन्दन नहीं जान सकेगा यह। वह अपने समय से ही आएगा यहाँ। मैंने तुमसे झूठ कहा था कि मैं उसे फोन कर के आया हूँ।"
 "क्या समझा है तुमने मुझे? तुम जिसको चाहो, कह देना। तुम्हारी बात पर विश्वास कौन करेगा? तुम उसके दोस्त हो न! कमीने का दोस्त कमीना ही तो होगा। निकल जाओ यहाँ से।" -घृणा और क्रोध से बिफर कर विदिशा ने कहा। परेश ने आज उसके जख्मों को हरा कर दिया था। 
 "ग़लतफ़हमी में हो तुम! एक बात तो चन्दन भी नहीं जानता कि मैंने उस दिन तुम दोनों का वीडियो बना लिया था। इस एमएमएस का उपयोग मैं कभी भी कर सकता हूँ। दिखाऊँ तुम्हें ?" -परेश ने जेब से अपना मोबाइल निकाला। 
  उसने मोबाइल ऑन कर वीडियो निकाला और विदिशा को दिखाया। कुछ क्षणों के लिए ही वह उसे देख सकी और फिर अपनी आँखें बन्द कर लीं। उसकी समझ में आ गया था कि वह बुरी तरह फँस चुकी है। बदहवास खड़ी विदिशा का दिमाग अब सक्रिय होने लगा। आँखें खोल कर उसने परेश के हाथ से मोबाइल छीनने के लिए झपट्टा मारा, किन्तु परेश सावधान था। उसने तुरन्त हाथ पीछे खींच लिया। 
 "नादानी मत करो विदिशा, तुम्हारे लिए मेरी बात मानने के सिवाय कोई चारा नहीं है। भरोसा करो मुझ पर, आज के बाद तुम्हारे पास कभी नहीं आऊँगा और जाते समय यह वीडियो भी तुम्हारे सामने ही नष्ट कर दूंगा।"
  परेश ने अपना एक हाथ विदिशा की कमर पर रखा और उसे बैडरूम की तरफ ले जाने लगा। विदिशा ने कोई विरोध नहीं किया। बैडरूम के दरवाज़े तक पहुँचने से पहले वह एक क्षण रुकी, परेश की ओर घूम कर एक हल्की-सी स्मित दी और उसे वापस ड्रॉइंग रूम की ओर ले चली। परेश को आश्चर्य हुआ, उसने पूछा- "अब क्या हुआ?"
 "कुछ नहीं। जो कुछ उस बेशर्म चन्दन ने किया था, वैसा ही अब तुम करना चाहते हो, तो अब ऐतराज़ कर के क्या होगा। दो मिनट रुको और मुझे अपना मन बनाने दो। तुम पुरुष लोग स्त्री-मन की थाह नहीं ले सकते। बल-प्रयोग या छल, कैसे भी कर के स्त्री को पाने की चाह रखते हो। स्त्री चाहती है कि वह जिसके साथ भी संसर्ग करे, उसे दिल से स्वीकार करे। तुम्हें अपनाने से पहले मैं भी ऐसा ही कुछ चाहती हूँ।"
 परेश के लिए यह सब अप्रत्याशित था। विदिशा का यूँ समर्पण कर देना उसके लिए कल्पनातीत था। 
 "तुम बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूँ। पहले हम चाय पीयेंगे।" -विदिशा ने कहा और किचन में चली गई। 
 परेश की ख़ुशी का पारावार न था, लेकिन वह समय जाया नहीं होने देना चाहता था, बोला- "लेकिन विदिशा, ज़्यादा देर हो गई तो चन्दन के आने का समय हो जायगा। हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा।"
"उसके आने में अभी एक घंटे का समय बाकी है और वैसे भी अब मुझे उस निर्लज्ज की चिन्ता नहीं है।" -निर्भीक व सपाट स्वर में बोली विदिशा। 
 
  केतली पहले से ही चूल्हे पर रखी हुई थी।  विदिशा ने चूल्हा जलाया, ड्रॉवर खोल कर चाय का डिब्बा निकाला और फिर पीछे देख कर मुस्करा कर बोली- "मुझे मदद नहीं करोगे परेश? मैं चाय सम्हालती हूँ, इतने तुम अदरक कूट दो न!"
 "हाँ-हाँ डियर, क्यों नहीं? माय प्लेज़र!" -परेश भी मुस्कराया व किचन में आकर विदिशा के बायें खड़ा हो गया। 

                                                                             (7)


   एक फ़िल्मी धुन गुनगुनाते हुए परेश किचन प्लेटफॉर्म पर रखी अदरक को पास ही रखी नन्ही कूटनी से कूटने लगा। सहसा उसके चेहरे पर विदिशा ने अपने दाएँ हाथ में पकड़े चाकू से तीव्र प्रहार कर दिया, जो उसने चुपके से ड्रॉवर से निकाल लिया था। यह चाकू किचन के काम का था, किंतु कुछ बड़ा व पैना था। चाकू सीधा परेश की दायीं आँख में घुस गया। आँख से रक्त की धार बह निकलने के साथ ही परेश के हाथ से कूटनी छूट गई और एक चीख के साथ वह कुछ नीचे को झुक आया। विदिशा क्रोध से पागल हो रही थी। आज परेश ने उसके जख्मों को फिर से हरा कर दिया था। उसने आव देखा न ताव, चाकू से उसके गले पर एक करारा प्रहार और कर दिया। गले से झर-झर खून बहने लगा और चाकू गले में फँसा रह गया। लहरा के नीचे गिरते समय परेश ने अपने गले से चाकू निकालने का प्रयास किया, किन्तु श्वाँस नली कट जाने से वह बेहोश हो कर गिर पड़ा। चाकू गले में धँसा हुआ ही रह गया। 
  विदिशा ने अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए आक्रोशवश इतना बड़ा कदम ले तो लिया था, किन्तु अब उसके हाथ-पाँव ढीले पड़ने लगे। उसने देखा, श्वांस-नली कट जाने के कारण हवा भर जाने से परेश का चेहरा लगातार फूल कर गुब्बारा हुआ जा रहा था। डर कर वह ड्रॉइंग रूम में चली आई। करीब आधे घंटे बाद वह कुछ संतुलित हो कर खड़ी हुई व ड्रॉइंग रूम में लगे बड़े शीशे (मिरर) में स्वयं को देखा। उसने देखा उसके कपड़ों पर परेश के खून के छींटे पड़े थे। 
उसने अपने कपड़े निकाले और धोने के लिए वॉशिंग मशीन में डाल दिये। किचन में वापस जा कर देखा, परेश फर्श पर निश्चल पड़ा था। खून बह कर फर्श पर फैल गया था। परेश के गले से खून का प्रवाह अब कम हो चला था। उसने हिम्मत रख कर फर्श पर बिखरे खून को धो कर एक बाल्टी में समेट लिया। वह जानती थी कि यदि खून को नाली में बहाया तो शीघ्र ही कॉम्प्लेक्स में रहने वालों को पता लग जाएगा, अतः उसने बाल्टी को कमोड में उंडेल दिया। यह सब करने के बाद उसने स्नान किया। कपड़े पहन कर वह बैडरूम में आ कर लेट गई। परेश का क्या हुआ, वह ज़िन्दा है या मर गया, उसे कुछ पता नहीं था। 
  विदिशा की मनःस्थिति ऐसी हो गई थी कि पिछले एक घण्टे के घटना-क्रम को याद कर वह बारम्बार सिहर उठती थी। उसे अपनी हिम्मत पर आश्चर्य हो रहा था। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उसने ऐसा कुछ कर दिया है। जासूसी उपन्यास पढ़-पढ़ कर जो कुछ ज्ञान उसे मिला था, उसका प्रयोग उसने आज कर दिया था। वह पलंग से उठ खड़ी हुई और कमरे में इधर से उधर चक्कर लगाने लगी। 
  आठ-दस मिनट ही हुए होंगे कि डोरबैल बजने की आवाज़ आई। उसने दरवाजा खोला। चन्दन आ गया था। भीतर आते हुए उसने मुस्करा कर 'हाय' कहा। विदिशा ने कोई जवाब नहीं दिया और सीधी आ कर ड्राइंग रूम में कुर्सी पर बैठ गई।
  पिछ्ले एक घंटे में जो कुछ उसने किया था, न हुआ होता तो सम्भवतः विदिशा चन्दन का मुँह ही नोच लेती। परेश के साथ वह जो कुछ कर गुज़री थी, उसका ही नतीजा था कि अब उसके क्रोध में वह उग्रता नहीं रही थी। 
  विदिशा की अस्वाभाविक ख़ामोशी से असहज चन्दन अपना ऑफिस बैग टेबल पर रख कर दूसरी कुर्सी पर बैठ गया। वह कुछ कहता-पूछता, इसके पहले ही उसे सामने किचन का दरवाजा खुला होने से एक आदमी फर्श पर पड़ा हुआ दिखाई दिया।
"अरे यह क्या, यह कौन है? -कहता हुआ चन्दन तेजी से किचन में गया। परेश का चेहरा हवा भर जाने से फूल गया था। बड़ी मुश्किल से चन्दन उसे पहचान सका। उसे पहचान कर, उसके गले में चाकू धँसा देख काँपती आवाज़ में बोला- "विदिशा, क्या हो गया यह? यह कब आया, किसने मारा इसे? बताओ विदिशा, तुम खामोश क्यों हो?"
"मैंने मारा।" -संक्षिप्त जवाब दिया विदिशा ने। चन्दन विस्फारित दृष्टि से देखता रह गया उसे। नज़दीक जा कर उसने परेश के गले से चाकू खींचा। रुका हुआ खून फिर प्रवाहमान हो गया। चाकू एक तरफ रख कर उसने परेश का हाथ पकड़ कर नाड़ी देखी और विदिशा की तरफ देखा- "यह तो मर चुका है। क्यों मारा तुमने? क्यों आया था परेश यहाँ?"
"जो तुमने मेरे साथ किया था, वही काम करने आया था वह। तुमने जब किया था, तब तुम लोगों ने मुझे बेहोश कर दिया था, मगर आज मैं होश में थी।"
 झूठ बोलने से कोई फायदा होने वाला नहीं था, सहम कर चन्दन फर्श पर ही बैठ गया। 'क्या कहूँ, कैसे कहूँ, कहने को अब बचा ही क्या है, सब-कुछ उगल दिया होगा परेश ने। राजदार होने का फायदा उठाने आया होगा, तभी तो विदिशा ने उसे चाकू मारा होगा।' -यही सोचता वह घुटनों में सर छिपाये बैठा रहा। 
 कुछ देर बाद वह बोला- "दूसरी बातें बाद में हो जाएँगी विदिशा, मुझे चाहे जो सज़ा दे देना तुम! जो कुछ हो गया है पहले हमें उसके बारे में सोचना होगा। मुझे सारी बात विस्तार से बताओ, ताकि कुछ समाधान सोचा जा सके।" 
  भावनाओं के उतार-चढाव के साथ सारे घटनाक्रम का विस्तार से वर्णन करने के बाद स्थिर हो कर विदिशा ने कहा- "अब तुम पुलिस को बुला लो। मैं अपना गुनाह कबूल करना चाहती हूँ।"

"तुमने कोई गुनाह नहीं किया है, तुम पुलिस को कुछ नहीं कहोगी। मैं अच्छे से अच्छा वकील करूँगा विदिशा, तुम्हें कुछ नहीं होने दूँगा। तुम मुझे कुछ सोचने तो दो।"


"तुम जो चाहे सोचते रहो, लेकिन मैंने सोच लिया है। मैं अब तुम जैसे नीच इंसान के साथ नहीं रह सकती। तुम पुलिस को बुलाओ, नहीं तो मैं खुद थाने पर जाती हूँ।"
"मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ विदिशा! मुझे माफ़ कर दो। तुम्हें पाने के लिए ही मैंने वह गुनाह कर डाला था जो कोई भी शरीफ आदमी नहीं कर सकता।"
"तुम्हारी कोई भी चिकनी-चुपड़ी बात तुम्हारे प्रति मेरी घृणा को कम नहीं कर सकती। तुमने मेरी ज़िन्दगी को नर्क बना दिया है। स्त्री केवल एक शरीर नहीं होती, शरीर से हट कर भी वज़ूद होता है उसका। तुम क्या समझते हो, तुमने मुझे पा लिया है? तुमने हैवानियत कर के मेरे शरीर को तो पा लिया, लेकिन तुम विदिशा को कभी नहीं पा सकोगे।"
चन्दन खामोश रहा, उसकी आँखें भर आई थीं। मन व्यथित था, किन्तु वह सोचने की कोशिश कर रहा था कि इस स्थिति से कैसे उबरा जाए। 
 कुछ पल रुक कर विदिशा पुनः तीव्र स्वर में बोली- "ठीक है, मत बुलाओ पुलिस को। मैं पहले अपने मम्मी-पापा के पास जाऊँगी और फिर पुलिस के आगे सरेंडर कर दूँगी।"
 उसने आलमारी से अपना पर्स निकाला और फोन ले कर बिना कोई और सामान लिए घर से बाहर निकल आई। चन्दन चाह कर भी उसे रोक नहीं सका। विदिशा सीधी बस-स्टैण्ड पहुँची। भीलवाड़ा के लिए बस निकलने ही वाली थी। फुर्ती से टिकट ले कर वह बस में बैठ गई। 

  बस भीलवाड़ा पहुँची तो रात हो गई थी। उसने अपने आने की कोई सूचना नहीं दी थी, इसलिए ऑटो करने के अलावा कोई चारा नहीं था। ऑटो वाले को भाड़ा चुका कर घर का फाटक खोल कर भीतर गई और बैल का स्विच दबाया। 
 रस्तोगी जी ने दरवाजा खोला। विदिशा को इस समय देख कर चौंके वह और बोले- "बिटिया तू? अकेली इस समय? चन्दन कहाँ हैं?" 
"बताती हूँ पापा, पहले भीतर तो आ जाऊँ।" -अपने आँसुओं को जबरन रोक कर भीतर प्रवेश करते हुए विदिशा ने जवाब दिया। 
चिंतातुर रस्तोगी जी दरवाजा बंद कर पीछे-पीछे लौटे। उनकी अनुभवी आँखों ने भाँप लिया था कि कुछ तो गड़बड़ है। आरती अपने पति के साथ भोजन के लिए बैठने वाली थी। विदिशा को देखते ही खड़ी हो गई और उसे अपने सीने से लगा कर बोली- "विदिशा बेटा, अचानक अभी?"
आरती ने महसूस किया, विदिशा का बदन काँप रहा है। उसने झटके से विदिशा को अपने से पृथक किया तो देखा कि उसकी ऑंखें बरस रही हैं। किसी अज्ञात आशंका से ग्रस्त हो वह विदिशा को बाँह थाम कर बैडरूम में ले आई और पलंग पर बैठाया। जैसे ही आरती पास में बैठी, विदिशा उसकी गोद में सिर रख कर फूट-फूट कर रोने लगी। आरती ने अभी कुछ भी पूछना उचित नहीं समझा, चुपचाप उसकी पीठ सहलाने लगी। वह और दरवाजे पर खड़े रस्तोगी जी सोच ही नहीं पा रहे थे कि आखिर हुआ क्या है!
 पाँच-सात मिनट तक, जब विदिशा खूब रो चुकी, तो आरती ने उसे धीरे से ऊपर उठाया और उसका चेहरा अपने हाथों में ले कर बोली- "विदिशा, मुझे बता बेटा, क्या हुआ है, क्यों इतना विलाप कर रही है? अब मुझसे नहीं सहा जाता, बता बेटा!"
 "मैंने उसे मार डाला, मार डाला उसे...।" -कह कर फिर सुबकने लगी विदिशा। 
 "किसे मार डाला? क्या..आ बोल रही है तू?"
 "वो चन्दन..." -अपनी बात पूरी किये बिना वह फिर रोने लगी। 
"क्या..आ? चन्दन को मार डाला? क्या कह रही है तू? पागल हो गई है क्या?" -आरती को लगा विदिशा सन्निपातिक स्थिति में आ गई है। उसके ललाट पर हाथ रख कर देखा, किन्तु बुखार तो कतई नहीं था उसे। रस्तोगी जी भी अब तक पास में आ गये थे। विदिशा के पास बैठ कर उसका हाथ अपने हाथों में थाम कर बोले- "बिटिया, शांत हो जा और साफ-साफ बता, क्या हुआ है? क्या चन्दन को...?"
"नहीं पापा, वो चन्दन का दोस्त था- परेश। उसे मार डाला मैंने।"
"लेकिन क्यों? क्यों मारा, बता न बेटा!"
 विदिशा अब कुछ संयत होने लगी थी। अपने माँ-पापा के पास आ कर वह स्वयं को सुरक्षित व आश्वस्त महसूस कर रही थी। उसने चित्तोड़ में जो कुछ हुआ था, सिलसिलेवार कह सुनाया और फिर से रो पड़ी। आश्चर्य व दुःख के साथ सारा वाक़या सुन रहे रस्तोगी जी व आरती का चेहरा पीला पड़ा जा रहा था। उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि पटरी पर आई उनकी बेटी की ज़िन्दगी में यों तूफ़ान आ जाएगा। रस्तोगी जी ने घबरा कर पूछा- "उसका मोबाइल तो ले लिया न तूने?"     विदिशा को ध्यान आया कि वह परेश की जेब से मोबाइल निकाल लेना तो भूल ही गई थी। उसने हड़बड़ा कर रस्तोगी जी से कहा- "ओह पापा, घबराहट और जल्दी में वह मोबाइल निकाल लाना भूल गई हूँ, अब क्या होगा?"
 आरती के चेहरे पर भी चिंता की रेखाएँ उभर आईं। 
"मैं कल पुलिस के पास जा कर सारी कहानी बता कर सरेंडर तो कर ही दूंगी।... लेकिन पापा, यदि मोबाइल चन्दन ने निकाला होगा तो दो बातों का डर है। या तो वह उसे नष्ट कर सकता है, ताकि हमारे पास उसके खिलाफ कोई सबूत न रहे और यदि सम्हाल कर रखता है तो भी अपने बचाव में वह कह सकता है कि वह रेप नहीं था।"
"जो भी हो, जैसा भी हो, तू सरेंडर नहीं करेगी। हम यहाँ का सबसे अच्छा वकील करेंगे। मैं तुझ पर आँच भी नहीं आने दूँगा बिटिया!" -दृढ़तापूर्वक रस्तोगी जी ने कहते हुए अपनी बात जारी रखी- "मैं कल सुबह ही एडवोकेट शैलेश सिंह से मिलता हूँ और जैसे भी हो, उन्हें राजी कर के कल ही केस उन्हें सौंप दूँगा। वह मेरे परिचित हैं, हाई कोर्ट तक में केस लड़ते हैं और जीतते भी हैं। शैलेश जी न केवल तुझे बचा लेंगे, उस कमीने चन्दन को भी जेल की हवा खिला देंगे।" 
 "चल बेटा, तू हाथ-मुँह धो कर आ जा। हम लोग खाना खा लेते हैं।" -रस्तोगी जी की बात सुन कर आश्वस्त हुई आरती ने विदिशा का हाथ पकड़ का उठाना चाहा। 
 "नहीं मम्मा, मुझे भूख नहीं है। मैं खाना नहीं खाऊँगी, आप लोग खा लें।" -विदिशा ने सपाट स्वर में कहा। 
आरती और रस्तोगी जी, दोनों ने बहुत समझाया, किन्तु विदिशा ने उनकी एक न सुनी। जब बेटी भूखी हो, इतनी पीड़ा मन में समेटे हो, तो माता-पिता के मुँह में एक कौर भी कैसे जा सकता है! खाना यूँ ही पड़ा रहा और तीनों उस रात भूखे ही सो गये। 
  तीनों सोये तो थे, किन्तु नींद किसी की आँखों में नहीं थी। सुबह होने के दो घंटे पहले ही उनको छिट-पुट नींद आई। सुबह जब उठे यह लोग, तो सबसे पहले विदिशा ने जा कर पोर्च में पड़ा अख़बार उठाया। भीतर आ कर अख़बार के सभी पृष्ठ विदिशा ने खंगाल डाले। कहीं परेश के सम्बन्ध में कोई खबर नहीं दिखाई दी उसे। उसे अच्छी तरह पता था कि यह राजस्थान का एक प्रतिष्ठित अख़बार है और इसका भीलवाड़ा संस्करण भीलवाड़ा व चित्तोड़ की सभी मुख्य ख़बरों को कवर करता है। उसने अपने पापा को बताया कि कल वाली घटना की कोई खबर अख़बार में नहीं आई है। रस्तोगी जी ने भी पूरी तरह से अख़बार को छान मारा, किन्तु परेश की हत्या वाली खबर सच में ही नहीं छपी थी। रहा होगा कोई कारण, यह सोच कर सब अपने नित्य के कार्य में लग गये। चाय-नाश्ते के बाद आरती ने विदिशा को जबरन सुला दिया, ताकि उसके दिमाग़ को कुछ आराम मिल सके। 
  स्नानादि से निवृत हो कर रस्तोगी जी एडवोकेट शैलेश सिंह के कार्यालय में पहुँचे। शैलेश जी वकील होने के साथ ही अच्छे लेखक भी थे। उस समय वह अपनी एक हॉरर कहानी लिखने में व्यस्त थे। कुछ देर के बाद वह कार्यालय-कक्ष में आये, जहाँ रस्तोगी जी प्रतीक्षा कर रहे थे। केस का समस्त विवरण जानने के बाद शैलेश जी ने कहा- "आप बिलकुल न घबराएँ रस्तोगी जी! बच्ची का कोई दोष नहीं है। कोई भी गैरतमंद युवती ऐसे हालात में ऐसा ही करती। उसके पास वहाँ से बच निकलने का वैसे भी कोई उपाय नहीं था और फिर एमएमएस का भय भी तो था। आप कल आइये मैं वकालतनामा और कागज़ात तैयार कर लूँगा और फिर कोर्ट से अग्रिम जमानत भी ले लेंगे।"
 वकील साहब के वहाँ से संतुष्ट हो कर रस्तोगी जी घर पहुँचे। तब तक विदिशा जाग चुकी थी। आरती और विदिशा को उन्होंने बताया कि वकील साहब को उन्होंने हायर कर लिया है और कल उनकी फीस दे कर अग्रिम जमानत भी लिवा लेंगे। 
  आज का दिन तीनों के लिए संतोषप्रद था। रस्तोगी जी आज फ़ैक्ट्री पर नहीं गये। विदिशा को दोनों दिन भर व्यस्त रखने की कोशिश करते रहे। 
   अगले दिन शनिवार था। सुबह उठ कर आज भी विदिशा उत्सुकतावश सबसे पहले जा कर अख़बार उठा लाई। अख़बार में तीसरे पृष्ठ पर 'युवक की हत्या' शीर्षक पर उसकी नज़र पड़ी। खबर परेश की हत्या से सम्बन्धित ही थी और विस्तार पूर्वक लिखी गई थी। 

                                                                               (8)

   पूरी खबर पढ़ कर उसकी आँखें फ़ैल गईं। जो कुछ लिखा था, उस पर उसे विश्वास नहीं हुआ। उसने उसे दुबारा पढ़ा। रस्तोगी जी इस समय वॉशरूम में थे, अतः वह नाश्ता तैयार कर रही आरती को बताने चली आई। 
  विदिशा ने खबर का मज़मून संक्षेप में अपने शब्दों में इस प्रकार बताया - 
  'लेखा सेवा के एक अधिकारी चन्दन ने गुरुवार की रात पुलिस को सूचना दे कर बताया कि किसी लेन-देन को ले कर हुई आपसी झड़प में उसके हाथों उसके दोस्त परेश का खून हो गया है। उसने अपनी पत्नी विदिशा के बारे में बताया कि उसकी माता की तबियत ठीक नहीं होने से वह बुधवार शाम भीलवाड़ा चली गई थी। पुलिस ने चन्दन के घर पहुँच कर मौका-मुआयना किया व हत्या में प्रयुक्त सब्जी काटने के चाकू को भी जब्त किया। लाश को पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल भेज दिया गया है। पुलिस चन्दन को गिरफ्तार कर के ले गई है। अगली जांच के लिए पुलिस का एक दल परेश के शाहपुरा स्थित घर पर तथा चन्दन की पत्नी विदिशा से पूछताछ के लिए भीलवाड़ा जाएगा।"
 खबर का उपरोक्त विवरण बता कर विदिशा ने कहा- "इसका मतलब है, आज पुलिस अपने यहाँ आ सकती है।" आरती ने सहमति में अपना सिर हिलाया। 
 रस्तोगी जी तैयार हो कर नाश्ते की टेबल पर आये तो विदिशा ने उन्हें भी सारी बात बताई।  
 सब-कुछ सुन कर रस्तोगी जी ने स्वयं ने भी खबर पढ़ी और पढ़ कर कहा- "अब तो केस की तस्वीर ही बदल गई है। जल्दी ही मुझे वकील साहब को यह सब बताना होगा।... लेकिन आरती, अजीब बात है, चन्दन ने अपराध अपने सिर कैसे ले लिया? मेरा तो सिर ही चकरा रहा है।"
आरती और विदिशा क्या कहतीं, वह दोनों तो यह सब जान कर पहले से ही हतप्रभ थीं। 
 रस्तोगी जी चाय-नाश्ता करने के बाद फोन कर के वकील साहब के वहाँ पहुँच गये। एक घंटे के विस्तृत परामर्श के बाद फीस की कुछ अग्रिम राशि दे कर रस्तोगी जी घर लौटे। विदिशा अपने कमरे में थी। रस्तोगी जी ने उसके कमरे में जा कर देखा, वह सो रही थी। उन्होंने अनुमान लगाया, शायद रात को ठीक से नींद नहीं ले पाने के कारण उसे अभी नींद आ गई है। उन्होंने आरती को बाहर बरामदे में बुलाया और वकील साहब से हुई बातें संक्षेप में बता कर कहा- "वकील साहब, सही कह रहे हैं। हम अभी भी बाजी पलट सकते हैं, विदिशा की फेमिली लाइफ पटरी पर आ सकती है। हमें विदिशा को समझाना होगा। क्या कहती हो आरती तुम?"
"सही कहते हो जी, ऐसा हो जाए तब तो बात ही क्या है। चन्दन ने ग़लती तो बहुत बड़ी की थी, लेकिन उसकी नीयत में खराबी नहीं थी। अब देखो न, वह विदिशा को जी-जान से प्यार करता है, तभी न, उसने सारा जुर्म अपने पर ले लिया।" -प्रसन्नता से सिर हिला कर आरती ने जवाब दिया। 
  
  लंच के लिए सब डाइनिंग टेबल आये तो विदिशा को अपने मम्मी-पापा को चेहरे पर ख़ुशी की चमक दिखाई दी।  उसने पूछा- "क्या बात है पापा, आप लोग बहुत खुश नज़र आ रहे हो?" 
 "बताएँगे बिटिया, पहले खाना खा लें।" -रस्तोगी जी ने गम्भीर स्वर में जवाब दिया। 
 लंच के बाद सभी लोग लिविंग रूम में बैठे थे। रस्तोगी जी ने सही समय देख कर कहना शुरू किया- "विदिशा, पुलिस को दिये बयान में चन्दन ने परेश की हत्या का अपराध खुद पर ले लिया है, जानती हो क्यों?"
रस्तोगी जी का प्रश्न सुन कर न समझने वाले भाव में बोली विदिशा- "यह मैं नहीं जानती पापा, लेकिन यह बात तो तय है कि उसे मेरे साथ किये गुनाह की सज़ा भले ही नहीं मिलेगी, पर बदले में क़त्ल के जुर्म में वह लम्बी सज़ा ज़रूर काटेगा और यही मेरे लिए सन्तोष की बात होगी।"
  रस्तोगी जी को उसका जवाब सुन कर आश्चर्य नहीं हुआ। चन्दन के प्रति विदिशा का गुस्सा नाजायज़ नहीं था। उन्होंने एक बार आरती की तरफ देखा और फिर पुनः विदिशा से बोले- "तुम्हें एक बात समझनी होगी बेटा, अगर चन्दन के दिमाग़ में गन्दगी होती तो वह पलट कर तुम्हारी ज़िन्दगी में नहीं आता। उसे माफ़ कर दो विदिशा! उसने तुम्हारा प्यार पाने की नाकामी और निराशा के चलते एक ग़लत रास्ता अख़्तियार कर लिया था, बाद में... "
  "पापा, यह आप कह रहे हो? उस इन्सान की पैरवी कर रहे हो, जिसने आपकी बेटी की इज़्ज़त तार-तार कर दी थी, जिसने उसकी आत्मा तक को छलनी कर दिया था?" -उबल पड़ी विदिशा और भर्राये स्वर में आरती से कहने लगी- "मम्मी, यह पापा को क्या हो गया है? क्या वकील साहब ने यह सब सिखा कर भेजा है इन्हें? आपको मालूम है उस घटना के बाद महीनों तक कितनी रातें मेरी रो-रो कर गुज़री हैं, कितने-कितने बिच्छुओं ने मुझे पल-पल डंक मारा है? कितनी तड़पी हूँ मैं?... आपकी बेटी अगर आपको भार लग रही है तो वह आप पर बोझ नहीं बनेगी। चली जाएगी कहीं भी।" -कहते-कहते विदिशा रो पड़ी और उठ कर अपने कमरे में चली गई। 
 विदिशा आरती ने घबरा कर रस्तोगी जी की आँखों में देखा। रस्तोगी जी ने विदिशा से इतनी तीखी प्रतिक्रिया की आशा नहीं की थी। वह समझ नहीं पा रहे थे कि स्थिति को कैसे सम्हालें। आरती उठ कर विदिशा के कमरे में गई। विदिशा अपने बिस्तर पर औंधे मुँह लेटी सुबक रही थी। आरती ने पास बैठ कर उसकी पीठ पर हाथ रखा, लेकिन विदिशा यथावत लेटी रही। कुछ सोच कर आरती बाहर आ गई और धीरे से पति से बोली- "मेरे ख़याल से उसे कुछ समय देना चाहिए। मैं चाय बना कर लाती हूँ, फिर उसके पास जा कर धीरे से समझाऊँगी।" 
 रस्तोगी जी ने सहमति में सिर हिला दिया। 
  उधर कुछ देर रो लेने के बाद विदिशा का मस्तिष्क कुछ सक्रिय हुआ। अपने पिता के प्रति आक्रोश दर्शाने के लिए उसे मन ही मन पश्चाताप होने लगा। वस्तुतः उसका गुस्सा चन्दन के लिए था जो भावावेश में पिता पर निकल गया था। परेश की मौत हो जाने के बाद जब वह चन्दन से बात कर रही थी, उस समय के चन्दन के चेहरे के हाव-भाव उसको स्मरण हो आये। 'अगर वह एक श्रेष्ठ अभिनेता नहीं है तो निश्चित ही उसे अपने किये पर पश्चाताप हो रहा था', विदिशा के मन ने कहा। कुछ देर तक इसी विचार-मंथन में वह डूबती-उतराती रही। 
  लम्बी छुट्टी पर गई पहले काम कर रही महरी अभी तक लौटी नहीं थी और दूसरी कोई महरी आरती ने अभी तक नियुक्त नहीं की थी, क्योंकि किसी-किसी का ही काम उसके गले उतरता था। वैसे भी दो लोगों का काम इतना अधिक होता भी नहीं था कि सहयोग के लिए किसी को रखना अपरिहार्य हो जाय। ऐसी स्थिति में घर का सभी छोटा-मोटा काम आरती को ही करना होता था। रस्तोगी जी के पास इतना समय नहीं होता था कि पत्नी को कोई सहयोग दे सकें। 
   खाना खाने के बाद टेबल पर पड़ा सारा सामान आरती ने व्यवस्थित किया और फिर चाय बनाने लगी। 
 चाय ले कर वह लिविंग रूम में आई। रस्तोगी जी अभी भी वहीं बैठे अख़बार के पन्ने उलट रहे थे। आरती चाय के कप टेबल पर रख कर विदिशा के कमरे में गई। विदिशा को पता नहीं कब झपकी आ गई थी। वह इस समय सीधी सोई हुई थी। आरती उसके मासूम चेहरे को देखती रह गई। 'हाय, इस नन्ही जान ने इतनी सी उम्र में क्या-क्या नहीं देख लिया? विधाता को मेरी ही बच्ची मिली थी यों जुल्म ढ़ाने को? हे परमात्मा, जो कुछ बीत गया सो बीत गया। अब  इस मासूम पर दया-दृष्टि रखना। अब कोई तकलीफ नहीं आये इसकी ज़िन्दगी में।', मन ही मन यूँ कहते उसने विदिशा के सिर को सहला कर पुकारा- "उठ बेटा विदिशा, चाय पीते हैं।"  
 विदिशा ने आँखे खोली। अब उसकी मनःस्थिति ठीक थी। मन्द मुस्कान से अपनी माँ को देखते हुए उसका हाथ पकड़ कर उठ बैठी। 
  चाय पीते समय कुछ औपचारिक बातें भर हुईं। चाय के बाद आरती ने इशारे से रस्तोगी जी को वहाँ से जाने को कहा। रस्तोगी जी के जाने के बाद आरती ने विदिशा से कहा- "बिटिया, आज नहीं तो कल पुलिस यहाँ आ ही जायगी। वकील साहब के कहे अनुसार हमें योजनाबद्ध तरीके से बयान तैयार करने होंगे। वकील साहब बहुत होशियार और अच्छे आदमी हैं बेटा! तेरा मूड सही हो तो मैं अपनी बात कहूँ। बस शर्त यह है कि तुझे जो कुछ कहना हो मेरी पूरी बात सुनने के बाद ही बोलेगी।"
  नज़र नीचे झुका कर कुछ सोच रही विदिशा ने नज़र उठाई और मुस्करा कर आरती की ओर देखा। उसकी निगाहों में सहमति स्पष्ट दिखाई दे रही थी। 
 आरती ने कहना शुरू किया- "चन्दन ने जो कुछ क्या था, वह माफ़ी के लायक बिल्कुल नहीं है, यह हम सब जानते हैं। तुझे पाने के लिए उसने यह बहशीपन कर डाला था, ताकि बाद में  होने वाली तेरी मनःस्थिति का लाभ उठा कर वह अपने लिए तेरे मन में जगह पा सके। देवयोग से वह इसमें सफल भी हुआ। विदिशा, वकील साहब का यह कहना है कि उन्होंने अपने वकालाती करिअर में कई अपराधी देखे हैं, मगर चन्दन उन सब से अलग है। उसके मन में तुझे पाने का जूनून पागलपन की हद तक था। इसी जूनून के चलते उसने वह गुनाह कर डाला था। बेटा, वह तुझे खुद से भी ज़्यादा चाहता है और इसीलिए अब तुझे बचाने के लिए उसने तेरा गुनाह अपने मत्थे ले लिया है। अगर तू उसे माफ़ नहीं करेगी तो तुम दोनों की ज़िन्दगी बर्बाद हो जाएगी। परेश को तो उसकी हरकत के कारण मरना ही था, सो मर गया। अब तुम्हें अपनी ज़िन्दगी संवारनी है।"
 आरती दो पल के लिए रुकी। वह देख रही थी कि विदिशा उसे ध्यान से सुन रही है। उसने अपनी बात जारी रखी- "यदि तू मान जाए तो वकील साहब तुझ से बात करेंगे। वह कह रहे थे कि वह तेरे ऐसे बयान करवा देंगे कि तुम दोनों ही बच जाओगे और उस बयान के आधार पर यदि चन्दन को सज़ा मिली भी तो उसे दो-एक साल की ही सज़ा होगी।... अब बता बिटिया, क्या कहती है? अच्छी तरह सोच कर जवाब दे।" 
 विदिशा आरती की बात सुनती भी जा रही थी और शायद उस पर साथ ही साथ मनन भी करती जा रही थी। कुछ देर तक सोचने के बाद बोली वह- "ठीक है मम्मा, जैसा आप लोग चाहो, मैं तैयार हूँ।"
 हर्षातिरेक में आरती ने उसे अपने सीने से लगा लिया और उसका सिर चूम कर बोली- "बेटा, तूने बहुत समझदारी दिखाई है। अब तैयार हो जा। मैं तेरे पापा को बताती हूँ। फिर तुम लोगों को वकील साहब के यहाँ जाना है।"
तैयार हो कर रस्तोगी जी व विदिशा वकील शैलेश सिंह के वहाँ पहुँचे। रस्तोगी जी से दो मिनट बात करने के बाद शैलेश जी ने विदिशा से सारी घटना की विस्तृत जानकारी ली। सब-कुछ जान लेने के बाद उन्होंने पूछा- "बेटी, तुमने खून के छींटे लगे अपने कपड़े कितनी देर बाद वॉशिंग मशीन में डाले थे?"
"पाँच- सात मिनट में ही डाल दिए थे अंकल।" 
शैलेश जी ने संतोष की साँस ली। 
"मशीन भी स्टार्ट कर दी थी, लेकिन कपड़े मशीन से वापस निकालना भूल गई थी। पता नहीं चन्दन ने निकाले या नहीं।" -विदिशा ने आगे फिर कहा। 
"वैसे तो चन्दन ने निकाल ही लिये होंगे, मुझे लगता है वह काफी स्मार्ट बंदा है। नहीं भी निकाले हों तो कोई इश्यू नहीं है, मैं देख लूँगा।" -शैलेश जी ने कहा और फिर रस्तोगी जी की ओर मुखातिब हुए- "रस्तोगी जी, मैं विदिशा से मेरे नाम का  वकालतनामा बनवा लेता हूँ और आज ही चित्तौड़ जा कर थाने में चन्दन से मिल कर उसे अपनी योजना समझा देता हूँ। विदिशा को भी मैं समझा देता हूँ कि पुलिस के समक्ष किस तरह का बयान देना है। पुलिस अगर आज यहाँ नहीं आती है तो कल आप, मैं और विदिशा चितौड़ थाने में जा कर विदिशा के बयान करवा देंगे।"
इसके बाद शैलेश जी ने विदिशा को विस्तार से समझाया कि पुलिस को क्या बयान देना है। समझाने के बाद उन्होंने बयान से सम्बंधित कुछ प्रश्न विदिशा से पूछ कर अपनी तसल्ली की और वकालतनामा भी तैयार कर लिया। 
 वकील साहब के वहाँ से रस्तोगी जी विदिशा के साथ घर लौटे और उधर कुछ देर बाद शैलेश जी चित्तौड़ के लिए रवाना हो गये। 
 चित्तौड़ पहुँच कर शैलेश जी सीधे सम्बंधित थाने पर गये। थाने पर उन्होंने वकालतनामा पेश कर के शैलेश से मुलाकात की ख्वाहिश जाहिर की। थानेदार सोभाग मल उनका पूर्वपरिचित था। उसने तुरंत शैलेश जी को चन्दन के पास भिजवा दिया। शैलेश जी ने अपना परिचय दे कर चन्दन को कहा- "मि. चन्दन, मुझे रस्तोगी जी ने तुम्हारा केस लड़ने के लिए हायर किया है। अब तुम्हारी और विदिशा की बेहतरी के लिए तुम्हें वही कहना होगा जो मैं तुम्हें समझाता हूँ। तुम्हारे हाथों परेश मारा गया, तुम्हारी इस स्वीकारोक्ति से हम कोई छेड़छाड़ नहीं करेंगे। बस जिन परिस्थितियों में वह घटना हुई थी, उसमें हेर-फेर कर के उसे दुर्घटना का रूप दे कर विदिशा का बयान मैंने फ्रेम करवाया है। पूरी कोशिश रहेगी कि तुम बेदाग छूट जाओ और यदि ऐसा न भी हुआ तो तुम्हें सज़ा कम से कम मिले, इस तरह मैं मुकद्दमे को मोड़ दे दूंगा। तुम्हें विदिशा के बयान की कॉपी मैं पढ़ा दूंगा। तुम्हें बस यह करना होगा कि उस बयान के विपरीत नहीं बोलना है।... लेकिन चन्दन, मैं यह नहीं समझ पाया कि तुमने परेश की मौत का इल्ज़ाम अपने सिर क्यों लिया?"
"क्या विदिशा ने मुझे माफ़ कर दिया है?", चन्दन ने पूछा, फिर कुछ रुक कर पुनः बोला- "वकील साहब, मैं जानता हूँ, मुझसे बहुत बड़ा गुनाह हो गया था। उसके प्रति बेतहाशा प्यार के कारण उसे पाने की ज़िद के चलते मूर्खतावश जो गलती मैंने कर दी थी, मैं सोचता था, उसे कभी इसका पता नहीं चलेगा। परेश के कमीनेपन के कारण जब उसे पता चल गया तो मेरी ज़िंदा रहने की इच्छा ही ख़त्म हो गई थी। विदिशा की नज़रों में गिर कर कैसे जी सकूंगा, यही सोच कर मैंने उसका अपराध स्वयं पर ले लिया। इस तरह से मेरा प्रायश्चित पूरा हो जायगा और मुझे मेरी करनी की सज़ा भी मिल जायगी। वैसे भी परेश के क़त्ल की सजा मेरी विदिशा को मिले और उसे जेल जाना पड़े, यह मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता था।"
 शैलेश जी ने आश्चर्य के साथ चन्दन की ओर देखा, चन्दन की आँखें भर आई थीं। वह हैरान थे कि इस शख़्स को अपनी सज़ा का उतना कंसर्न नहीं है, जितनी विदिशा की नाराज़गी का। उन्हें इस बात की ख़ुशी हुई कि इस केस को ले कर उन्होंने एक नेक काम किया है, प्रकट में मुस्करा कर बोले- "तुमने उसके साथ पाशविक हरकत की थी, पर मैं समझता हूँ, समय के साथ शायद वह तुम्हें माफ़ कर सके। वैसे चन्दन, तुम्हारे पेरेंट्स को तो पता लग गया होगा इस सारी बात का?"
"हाँ, उन्होंने अख़बार में तो पढ़ ही लिया था। आज यहाँ से पुलिस भी गई थी वहाँ। वह लोग भी शायद किसी एडवोकेट को लेकर कल तक यहाँ आ जाएँगे।"

 शैलेश जी ने चन्दन को संक्षेप में यह बतला दिया कि विदिशा का बयान क्या होगा। सब समझा-बुझा कर शैलेश जी लौटे और थानेदार को शुक्रिया अदा कर चित्तौड़ के लिए अपनी कार में आ बैठे। अपनी अब तक की योजना की क्रियान्विति पर उन्हें संतोष था।  
  शैलेश जी भीलवाड़ा पहुँचे तो काफी थक गये थे। घर पहुँच कर हल्का-फुल्का खाना खाया और रस्तोगी जी को सुबह का चित्तौड़ का प्रोग्राम बता कर जल्दी ही सो गये। 

                                                                                 (9)
  
        

  अगले दिन सुबह छः बजे नींद खुलने पर आरती उठ कर विदिशा के कमरे में आई तो देखा विदिशा कमरे में नहीं थी। 'सुबह सात बजे से पहले नहीं उठने वाली विदिशा इतनी सुबह उठ कर कहाँ चली गई', चिंतित आरती ने वॉशरूम देखा। वॉशरूम बाहर से बन्द था। घबरा कर वह बरामदे में आई। पहले दाएँ देखा और फिर बायीं ओर लॉन की तरफ। उसके चेहरे पर स्मित की रेखाएँ उभर आईं। विदिशा लॉन में पौधों को पानी देती गुनगुना रही थी। ख़ुशी से आरती की आँखें भर आईं। 'विदिशा आज स्वस्थ-चित्त है, तभी पौधों के साथ समय बिता रही है।', सोचती वह विदिशा के पास आई। आहट सुन कर विदिशा ने पीछे देखा, आरती को देखा तो पूछा- "जाग गईं मम्मा?"

 "हाँ, बिटिया! तू कब उठ गई? यहाँ कब आई?"

"नींद जल्दी खुल गई थी तो उठ कर फ्रेश हुई और फिर पेस्ट-वेस्ट कर के अभी पाँच-सात मिनट पहले ही लॉन में आई हूँ।" -विदिशा ने जवाब दिया। 

 "अच्छा अब छोड़ पानी देना। आ, दो घड़ी यहाँ बैठते हैं।" -लॉन के किनारे रखी कुर्सियों की तरफ इशारा कर आरती ने कहा। 

   विदिशा गुलाब का एक फूल तोड़ कर उसकी खुशबू लेते हुए मम्मी के साथ कुर्सी की और बढ़ी। 

 आरती ने विदिशा की हथेली अपने हाथ में ले कर कहा- "विदिशा, भले ही हमारे कहने से तूने चन्दन को माफ़ कर दिया है, पर तुझे इस बात का कोई मलाल तो नहीं है? सब कुछ ठीक हो जाता है तो उसके बाद तू उसके साथ नॉर्मल तो हो सकेगी न? दाम्पत्य जीवन प्यार का एक मज़बूत बंधन होता है, किन्तु दुराव पैदा हो जाने पर वही बंधन एक नाज़ुक धागे की तरह टूट जाता है। चन्दन की उस हरकत का राज़ खुलने से पहले तुझे चन्दन का साथ और  व्यवहार कैसा लग रहा था? तुझे वकील साहब ने जो कुछ समझाया है, उसे अमल में लाने से पहले तुझे अच्छी तरह से सोच लेना होगा। मैं नहीं चाहती कि तेरी ज़िन्दगी में अब कोई तकलीफ़ या रुकावट आए।"

"मम्मी, मैं उसके साथ बहुत खुश थी। काश, परेश उस दिन हमारे घर आया ही नहीं होता। उसने यह राज़ खोला नहीं होता तो मेरी ज़िन्दगी कितनी अच्छे-से चल रही थी। काश उस काले दिन का चन्दन से सम्बन्ध है, मुझे कभी पता नहीं चला होता! मेरे उस दुर्भाग्य के लिए चन्दन जिम्मेदार था, यह जान कर मेरा मन आहत तो बहुत हुआ है मम्मा, पर आप लोग बिल्कुल भी चिंता मत करना। मैं यह सब भूल जाऊँगी, मुझे भूलना ही होगा।"

 "मेरी नन्ही गुड़िया, मुझे तुझ पर गर्व है बेटा! ईश्वर तेरी मदद करे!" -आरती ने उसे अपने आगोश में भर लिया। 

 

 शैलेश जी के निर्देशानुसार लंच जल्दी ले कर रस्तोगी जी व आरती विदिशा के साथ चित्तौड़ जाने के लिए अपनी कार में उनके घर ठीक साढ़े ग्यारह बजे पहुँच गए। शैलेश जी तैयार ही थे। आवश्यक फाइल वह अपनी कार में रखने लगे तो रस्तोगी जी ने कहा- "वकील साहब, अगर कहीं और न जा कर चित्तौड़ से वापस सीधे ही भीलवाड़ा लौटने का इरादा हो तो हमारी कार में ही चलें, नहीं तो जैसा आप ठीक समझें।"

 "अरे, नेकी और पूछ-पूछ! आपके साथ ही चलता हूँ न, मैं अपना पैट्रोल क्यों बिगाड़ूँ?"-इस परिहास के साथ शैलेश जी हँसे, तो उन तीनों को भी हँसी आ गई। 

 

   धूप तो थी, किन्तु उसमें अधिक तेजी नहीं थी, सो सफर तकलीफ़दायक नहीं था। बीच में एक स्टॉप ले कर चाय ली और फिर सीधे चित्तौड़ पहुँचे। चित्तौड़ में एक अच्छा-सा रेस्तरां तलाश कर वहाँ सब ने नाश्ता किया और दही की लस्सी पी। नाश्ता करते समय शैलेश जी ने कस्टडी-रूम में चन्दन से हुई समस्त बात और उसकी प्रतिक्रिया की जानकारी देते हुए कहा- "रस्तोगी जी, अपराधियों के मामलों का मुझे गहरा तज़ुर्बा है और उसके बिना पर मैं दृढ़तापूर्वक कह सकता हूँ कि चन्दन खरा सोना है। आप लोगों को अपने दिमाग़ में अब कोई शुबहा नहीं रखना चाहिए।" 

 रस्तोगी जी और आरती का ही नहीं, विदिशा का मन भी अब आश्वस्त था। 

  नाश्ते के बहाने आराम भी मिल गया था, तो सब लोग वहाँ से सीधे पुलिस थाना गये। थानेदार कहीं तफ़तीश पर गये हैं, यह जानकारी मिलने से उन्हें थोड़ा इन्तज़ार करना पड़ा। करीब आधे घण्टे बाद थानेदार थाने में आये। पाँच मिनट बाद, सूचना मिलने पर थानेदार ने उन्हें अपने कक्ष में बुलाया। शैलेश जी सहित चारों ने नमस्कार किया व थानेदार के इशारे पर सामने कुर्सियों पर बैठ गये। 

 "हाँ, वकील साहब, आप वापस कैसे आये? आज तो रविवार है। मैं एक ज़रूरी तफ़तीश में गया था और अब घर जाने वाला था।" -थानेदार ने कहा। 

"जी, दरअसल कल मैं जिस चन्दन से मिलने आया था, यह उनकी पत्नी विदिशा हैं।", विदिशा की ओर इशारा कर शैलेश जी ने अपनी बात जारी रखी- "हमने अख़बार में पढ़ा था कि पुलिस इनसे पूछताछ करने भीलवाड़ा आएगी। हमें किसी काम से यहाँ आना था तो सोचा आप लोगों को क्यों तकलीफ दें, इसलिए इन्हें यहीं ले आये हैं। यदि उचित समझें तो आप अभी पूछताछ कर लें।"

"अरे, पर एक एएसआई कांस्टेबल को साथ ले कर एक घंटे पहले ही भीलवाड़ा के लिए निकल गये हैं। खैर, कोई बात नहीं। अब आप लोग आ ही गये हो तो इनसे पूछताछ कर बयान यहीं ले लेते हैं।"

 दो-तीन मिनट अपने हाथ में पकड़ी फाइल को सरसरी तौर पर देखने के बाद थानेदार विदिशा की ओर मुखातिब हुए। 

"हाँ तो क्या नाम है आपका?"

"जी, विदिशा।"

"मुजरिम चन्दन से क्या रिश्ता है आपका?"

"वह मेरे पति हैं।"

"आपकी शादी कब हुई?"

"जी, यही कुछ आठ-दस दिन हुए हैं।"

"गुरुवार को जब परेश का खून हुआ, तुम कहाँ थीं?"

"मैं यहीं चित्तौड़ में अपने घर पर थी।"

"लेकिन चन्दन ने तो बयान दिया है कि तुम बुधवार को भीलवाड़ा चली गई थीं।" -चौंक कर थानेदार ने कहा। 

"यह उन्होंने झूठ कहा है। मुझे परेशानी से दूर रखने के लिए ऐसा कहा है।" 

"चन्दन ने परेश का खून क्यों किया?"

"उन्होंने खून नहीं किया, यह महज एक दुर्घटना थी।"

इस बार फिर चौंके थानेदार जी, व्यंग्य भरे स्वर में बोले- "जैसा वकील साहब ने समझाया, वैसा ही बोल रही हो न?"

"अगर आप ऐसा मानते हैं तो मेरे बजाय वकील साहब के बयान ही ले लीजिये सर!"

"डॉन्ट बी ओवर स्मार्ट बेबी।" -थानेदार के स्वर में इस बार नाराज़गी थी। वकील साहब ने इशारों में विदिशा को समझाया कि वह इस तरह से न बोले।  

"सॉरी सर!" -विदिशा ने थानेदार से नम्रतापूर्वक कहा। 

"चन्दन ने उसके दोस्त का खून क्यों किया?" -एक बार फिर थानेदार ने अपना प्रश्न दोहराया। 

"मैंने कहा न सर, उन्होंने खून नहीं किया।"

"तो क्या खून तुमने किया है?"

"नहीं सर। अगर आप इज़ाज़त दें तो मैं सब-कुछ साफ-साफ विस्तार से बता सकती हूँ।"

"हम्म्म! बोलो। लेकिन सच ही बोलना। मैंने ऐसे कई केस डील किये हुए हैं। कोई भी स्मार्टनेस तुम पर भारी पड़ सकती है।" -थानेदार ने अपनी समझ से मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया। 

"मैं सब सच-सच बताऊँगी।"

थानेदार ने सब के लिए पानी मंगवाया। 

 एक गिलास पानी पी कर विदिशा ने बोलना शुरु किया- "उस दिन चन्दन ने मूवी देखने का प्रोग्राम बनाया था और मुझे तैयार रहने के लिए कहा था। मैं दोपहर में लंच के बाद आराम कर रही थी। लगभग चार बजे डोरबैल बजने पर मैंने समझा चन्दन जल्दी आ गये हैं। दरवाजा खोला तो देखा परेश है। मेरे यह बताने पर भी कि चन्दन घर पर नहीं हैं, वह 'आपसे बात करनी है' कहते हुए भीतर आ...।"

"एक मिनट! तुम परेश को कैसे जानती थी?" -थानेदार ने उसकी बात काट कर पूछा। 

"वह चन्दन के साथ दो दिन पहले घर आया था, तब चन्दन ने परिचय करवाया था। मुझे उस दिन उसका व्यवहार कुछ अटपटा लगा था।"

"ठीक हे, आगे कहो।" -थानेदार ने कहा। 

"तो गुरुवार को जब वह आया और मैं चन्दन को सूचना देने लगी तो उसने रोक दिया व बोला कि वह चन्दन को बता कर आया है। उसने कहा कि वह चाय पीना व मुझसे कुछ बात करना चाहता है। उससे बात करना टालने के उद्देश्य से मैं चाय बनाने सीधी किचन में चली गई, ताकि चाय पिला कर उसे जल्दी ही विदा कर दूँ। दो ही मिनट में वह किचन में चला आया व पीछे से मुझे पकड़ने की कोशिश की। मैंने हाथ झटक कर उसे धकेला तो वह दुबारा नज़दीक आ गया। मैंने उसे चन्दन की दोस्ती का भी हवाला दिया, पर उसके दिमाग़ में ख़राबी आ रही थी। उसने मेरी साड़ी का पल्लू खींच कर गलत हरकत की। उसे डराने के लिए मैंने प्लेटफॉर्म पर पड़ा चाकू उठा लिया, लेकिन दूसरे ही क्षण उसने चाकू मेरे हाथ से छीन लिया। इस छीना-झपटी में हम दोनों को ही पता नहीं चल सका कि चन्दन घर में आ चुके थे। चन्दन बिना आवाज़ किये दबे पाँव जब किचन में आये तो उनकी तरफ परेश की पीठ थी। चन्दन ने लपक कर परेश का वह हाथ थामा, जिसमें उसने चाकू पकड़ा था। दोनों एक-दूसरे के साथ जोर-आज़माइश कर रहे थे। मैं भी जितना संभव था, चन्दन की मदद कर रही थी। मैंने परेश के दूसरे हाथ को पकड़ लिया था। चन्दन से अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश में अचानक परेश नीचे गिरा। चन्दन भी उस पर जा गिरे और एक तरफ मैं गिर गई। इसी दौरान परेश का चाकू वाला हाथ मुड़ गया और चाकू उसकी आँख में जा लगा। परेश कराह उठा और एक हाथ से चोटिल आँख को दबा कर उसने चाकू वाले हाथ को चन्दन के मुँह की तरफ बढ़ाया, लेकिन शायद दर्द के कारण वह हाथ चन्दन तक नहीं ला पाया और हाथ उलट जाने से चाकू उसकी गर्दन में जा धँसा। परेश के मुँह से चीख निकली, लेकिन कुछ ही क्षणों में उसकी आवाज़ धीमी पड़ गई। उसके गले से झर-झर खून निकल रहा था। मैं और चन्दन दोनों खड़े हो गये थे और अनायास हुए इस हादसे के कारण बहुत घबरा गये थे। मैं घबराहट में रोने लगी तो चन्दन ने मुझे चुप कराया और फिर इस उम्मीद से कि परेश की कोई मदद हो सके, उन्होंने उसके गले से चाकू निकाला। दबाव लगने से चाकू काफी गहरा चला गया था सो चाकू बाहर निकलते ही खून और तेज़ी से बहने लगा। उसका मुँह फूलने लगा था। परेश ने उसकी नाड़ी देखी तो वह मर चुका था।" 


  थानेदार और पास में बैठा हैड कॉन्स्टेबल, दोनों ध्यान से विदिशा की बात सुन रहे थे। 

विदिशा ने अपना कथन जारी रखा- "हम बहुत घबरा गये थे और मैं तो खून देख कर दहशत में ही आ गई थी, सो चन्दन ने फर्श को धो डाला। फिर हमने हमारे कपड़े धुलने के लिए वॉशिंग मशीन में डाल दिये। मैंने उनके आने से पहले का सारा किस्सा उन्हें बताया। चन्दन मुझसे बहुत प्यार करते हैं। वह मुझे इस मामले से दूर रखना चाहते थे, इसलिए जबरदस्ती मुझे भीलवाड़ा की बस में बैठा आये। वह नहीं चाहते थे कि अख़बारों में और पुलिस में मेरा नाम घसीटा जाये। बस यही हमारी कहानी है थानेदार साहब!"

 "चाकू लगने पर जब परेश की चीख निकली थी तो दूसरे फ्लैट्स में रहने वालों तक भी आवाज़ पहुँची होगी, कोई वहाँ आया क्यों नहीं?" -थानेदार ने पूछा। 

"इसका जवाब मैं नहीं दे सकती। एक तो हमारा दरवाज़ा बंद था और फिर हमारा फ्लैट एक बाजू में है। उसके दूसरी तरफ लिफ्ट, उसके बाद सीढियाँ, फिर एक स्टोर रूम और फिर दूसरे फ्लैट्स हैं।... शायद इसीलिए आवाज़ नहीं पहुँची होगी।"

   विदिशा ने वकील साहब के सिखाये अनुसार नपा-तुला घटना का विवरण बताया, जिसमें कुछ तोड़-मोड़ के अलावा अधिकांश भाग घटना-क्रम के अनुसार ही था, इसलिए थानेदार के पास उसके बयान पर विश्वास करने के सिवा कोई चारा नहीं था। उन्होंने पास में बैठे घटना का विवरण सुन रहे हैड कॉन्स्टेबल को विदिशा के बयान कलमबद्ध करने का आदेश देते हुए शैलेश जी से कहा- "वकील साहब, अभी तो मेरे पास संदेह की कोई विशेष वजह नहीं है, लेकिन पोस्टमार्टम व फिंगर प्रिन्ट एक्स्पर्ट की रिपोर्ट आने के बाद ही हम लोग किसी नतीजे पर पहुँचेंगे और उसके अनुसार ही केस का नक्शा तैयार होगा।" 

  हैड कॉन्स्टेबल ने विदिशा के बयान कलमबद्ध किये। बयान लिखवाने के बाद वकील साहब की हिदायत के अनुसार विदिशा ने थानेदार से चन्दन से मिलने की इज़ाज़त माँगी।



                                                                               (10)

                                                 
     यद्यपि उसकी इच्छा नहीं थी, फिर भी मौके की नज़ाकत को देख कर वह चन्दन से मिलने गार्ड के साथ कस्टडी-रूम तक गई। गार्ड उसे वहाँ छोड़ कर लौट गया। तीन दिन में ही चन्दन की जो हालत हो गई थी, उसे देख कर वह स्तम्भित रह गई। चन्दन के चेहरे पर हमेशा रहने वाली चमक के बजाय मालिन्य छाया हुआ था। सूजी आँखों में गहरी उदासी बसी हुई थी। जैसे ही उसने विदिशा को देखा, बरबस ही बच्चे की तरह फूट-फूट कर रो पड़ा। उसके रोने की आवाज़ सुन कर गार्ड दौड़ा हुआ आया, किन्तु सब-कुछ सामान्य देख कर लौट गया। विदिशा समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या प्रतिक्रिया दे। वस्तुतः उसके मन में इस समय चन्दन के लिए न तो ममत्व उपज रहा था और न ही घृणा के भाव। वह यथावत खड़ी रही। दो-तीन मिनट बाद चन्दन की मनःस्थिति कुछ सम्भली, करुण स्वर में बोला- "विदिशा, मैं तुम्हें मुँह दिखाने के काबिल नहीं हूँ, पर फिर भी अपने गुनाह के लिए तुमसे माफ़ी चाहता हूँ।... तुम्हारे वकील साहब ने जो कुछ मुझे बताया है, उसके अनुसार वह मुझे बचाने का प्रयास करेंगे।... किन्तु विदिशा, मैं सज़ा चाहता हूँ। सज़ा ही मुझे आत्म-ग्लानि से कुछ राहत देगी। तुम्हारी नफ़रत भरी नज़रों को सहने के बजाय मैं मौत को गले लगाना चाहूँगा। एक बार... बस एक बार तुम्हारे मुँह से सुन लूँ कि तुमने मुझे माफ़ कर दिया है तो जेल की दीवारों में भी मैं सुकून से जी सकूँगा, फांसी भी मिली तो चैन से मर सकूँगा। मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ विदिशा, मुझसे नफ़रत मत करो।" -कहते-कहते चन्दन पुनः फफक पड़ा। 
 इसी समय गार्ड वापस आया और मिलने का समय समाप्त होने की बात कह कर विदिशा को वहाँ से लौट जाने का संकेत दिया। विदिशा कुछ भी बोल नहीं पाई, एक निगाह चन्दन पर डाल कर बोझिल क़दमों से लौट चली। 
  उसका दिल पिघल रहा था। चन्दन की करुण दृष्टि जेहन में आ कर उसे उद्विग्न करने लगी। 
 शैलेश जी ने थानेदार से आग्रह किया कि चन्दन ने भावुकता में आ कर उलटे-सुलटे बयान दे दिये थे, अतः उचित समझें तो उसके संशोधित बयान ले लें। थानेदार ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। औपचारिक अभिवादन के बाद थाने से निकल कर चारों लोग भीलवाड़ा के लिए रवाना हो गये। वापसी यात्रा में विदिशा के अलावा सभी लोग आपस में छिट-पुट बात कर रहे थे, किन्तु विदिशा खामोश थी। उसके मन में निरन्तर वैचारिक द्वन्द्व चल रहा था।
  'मैं चन्दन के समक्ष कुछ भी बोली क्यों नहीं? क्यों मैं उसके अनुताप को देख कर भी मूक बनी रही? उसका रोदन कपटपूर्ण तो कतई नहीं था। जब मैंने हालात से समझौता कर ही लिया है, तो क्यों मैं अभी इतनी अक्षमाशील हो गई? मेरा स्वभाव तो दोगला बिल्कुल ही नहीं है, फिर यूँ दोहरा व्यवहार कैसे कर पाई? माना कि उसकी विकृत मनोवृत्ति ने उससे वह कुकृत्य करा दिया था, किन्तु वह तो शुरू से ही मेरे प्यार में उन्मादित था। उसका इरादा किसी न किसी तरह से मुझे प्राप्त करने का था। वह पागल हो रहा था मुझे पाने के लिए, किन्तु शारीरिक तृष्णा के लिए नहीं, केवल और केवल अपने अतुलनीय प्यार के कारण। उसके अब तक के व्यवहार और क्रियाकलापों से भी यह प्रमाणित हो चुका है, फिर क्यों मैं उसके प्रति इतनी निष्ठुर हो गई, आखिर क्यों?', विदिशा की आँखों से आँसू बहने लगे। उसका मन कर रहा था कि वापस लौट जाए चन्दन के पास, परन्तु अब यह कहाँ सम्भव था!
  आरती तिरछी नज़रों से विदिशा के चेहरे पर आ रहे हाव-भावों का उतार-चढ़ाव देख रही थी व परेशान थी कि आखिर उसकी चन्दन से क्या बात हुई होगी कि वह इतनी उद्वेलित हो रही है। उसने विदिशा की तरफ देखा और उसे अपनी गोद में खींच लिया। विदिशा ने अपने आँसू पौंछे और सिमट गई अपनी माँ की गोद में, सुखदायी शान्ति-निकेत में। 
 घर पहुँच कर आरती ने विदिशा से उसकी उदासी का कारण पूछा, किन्तु विदिशा ने 'फिर कभी बताऊँगी' कह कर टाल दिया। वह नहीं चाहती थी कि अपनी उलझन बता कर अपनी माँ को भी परेशानी में डाले।  
  अगले दिन सुबह ही विदिशा ने शैलेश जी को फोन किया- "शैलेश अंकल, चन्दन को पुलिस द्वारा कोर्ट में कब पेश किया जायगा? उनको पुलिस कस्टडी में परेशान तो नहीं किया जाता?"
 शैलेश जी एक अच्छे वकील होने के साथ ही एक अच्छे इन्सान भी थे। विदिशा के प्रश्न से वह जान गये कि अब उसका मन चन्दन की तरफ से साफ़ हो गया है। उन्हें इस बात से दिली ख़ुशी हुई, बोले- "विदिशा, थानेदार साहब मेरे मिलने वाले हैं, चन्दन के बारे में तुम निश्चिन्त रहो। आज या कल में सम्भवतः पोस्टमार्टम रिपोर्ट व फिंगर प्रिंट एक्स्पर्ट की रिपोर्ट पुलिस के पास पहुँच जाएगी। रिपोर्ट मिलते ही वह लोग चन्दन को कोर्ट में पेश कर देंगे।...और हाँ बिटिया, अब चन्दन के विषय में तुमसे अधिक चिंता मुझे रहेगी, तुम बिल्कुल भी परेशान मत होना। तुमने अपने बयान बहुत खूबसूरती से दर्ज कराये हैं। अब चन्दन बाइज़्ज़त रिहा हो, यह मुझे देखना है।"
"थैंक यू अंकल, मैं बिल्कुल परेशान नहीं हूँ। आपके होते मैं क्यों परेशान होऊँगी भला!" -विदिशा ने नम्रतापूर्वक जवाब दिया। 
  रस्तोगी जी व आरती निरन्तर 'कभी ख़ुशी, कभी ग़म' वाले हालात देखते आ रहे थे। वह लोग  ईश्वर से मना रहे थे कि अब सब-कुछ शुभ-शुभ हो। 
 
   पुलिस ने केस-फाइल तैयार कर कोर्ट में पेश कर दी। चन्दन के लिए रस्तोगी जी द्वारा वकील हायर कर लिया गया था अतः गंगवाल जी ने कोई पृथक वकील नहीं रखा। शैलेश जी ने गवाह के रूप में दो नाम दिये, जिनमें से एक नाम विदिशा का था। सरकारी वकील ने अपने गवाह के रूप में परेश के पिता का नाम दर्ज करवाया। शैलेश जी ने चन्दन की जमानत के लिए दरख़्वास्त लगाई, किन्तु अदालत ने जमानत देने से इन्कार कर दिया। उनके अनुरोध पर अदालत ने पहली सुनवाई दो सप्ताह बाद की रखते हुए उस सुनवाई में ही गवाहों को भी पेश करने का आदेश दिया। 

  कोर्ट के द्वारा दी गई तारीख के पिछले दिन विदिशा कुछ घबराई हुई थी। उसने रस्तोगी जी से पूछा- "अगर चन्दन को सज़ा हो गई तो क्या होगा पापा? मैंने सुना है कि सज़ा होने की स्थिति में सरकार द्वारा कर्मचारी को नौकरी से निकाल दिया जाता है।"  
 "बेटा, भगवान पर भरोसा रखो और वकील साहब पर भी। मुझे पूरा विश्वास है, वकील साहब चन्दन को निश्चित ही बचा लेंगे।... और फिर बिटिया, मैं हूँ न! वैसे भी हमारा सब-कुछ तुम्हारा ही तो है। कुछ भी अनहोनी होने की स्थिति में मैं चन्दन को अपने बिज़नेस में पार्टनर या मैनेजर के रूप में रख लूँगा। तुम बिल्कुल चिन्ता मत करो।"
 "ओह पापा, थैंक यू सो मच!" -विदिशा अपने पापा से लिपट गई। 
 शाम को रस्तोगी जी को शैलेश जी ने विदिशा के साथ अपने ऑफिस में बुलाया। दोनों के वहाँ पहुँचने पर शैलेश जी ने अपने सहयोगी से चन्दन के केस की फाइल निकलवा कर उसमें से विदिशा के बयान की प्रति निकाल कर विदिशा को पढ़ने के लिए दी और विदिशा द्वारा उसे पढ़ लेने के बाद प्रेक्टिस के लिए विपक्षी वकील बन कर विदिशा से कुछ क्रॉस- क्वेश्चनिंग की। एक-दो जगह कुछ सुधार करने के बाद शैलेश जी ने प्रसन्नता से रस्तोगी जी की तरफ देखा- "परफ़ैक्ट रस्तोगी जी! शी आन्सर्ड इंटेलीजेन्टली। अब मुझे कोई शक नहीं है। शी इज़ द ओनली ऑय विटनैस इन द केस। विदिशा की गवाही पर बहुत कुछ डिपेन्ड करता है। वैसे मैं एक और गवाह अदालत में पेश करूँगा।"
 रस्तोगी जी और विदिशा दोनों चौंके। रस्तोगी जी ने पूछा- "दूसरा गवाह? दूसरा गवाह कौन है वकील साहब?"
  "है एक गवाह! कोर्ट में आप लोग देखोगे।" -मंद मुस्कराहट के साथ शैलेश जी ने जवाब दिया। फिर विदिशा की ओर मुख़ातिब हो कर बोले- "विदिशा, सरकारी वकील भी ऐसे ही कुछ सवाल पूछेगा। अगर वह तुम्हें कंफ्यूज़ करने की लिए कुछ उलटी-सुलटी बातें पूछे भी तो तुम अपने बयान में लिखी बातों से हट कर कुछ मत बोलना। जो बात तुम नहीं जानती हो, उससे साफ़ इंकार कर देना।... और हाँ, टेंशन में बिल्कुल मत आना। ठीक है न?"
 "जी अंकल, मैं पूरा ध्यान रखूँगी।" -विदिशा ने उत्साहपूर्वक कहा। वह अपनी परफॉरमेंस के बारे में जान कर संतुष्ट थी। 
   पूरी तरह से आश्वस्त हो कर रस्तोगी जी विदिशा के साथ घर लौटे। 
अगले दिन सुबह आठ बजे रस्तोगी जी व विदिशा अपनी कार से चित्तौड़ के लिए रवाना हो गये। शैलेश जी अलग से अपनी कार से गये, क्योंकि उन्हें एक और केस के सिलसिले में चित्तौड़ में रुकना था। 

 कोर्ट में जज साहब के आने के बाद इनके केस की सुनवाई शुरू हुई। कोर्ट में रस्तोगी जी, विदिशा, चन्दन के माता-पिता तथा परेश के पिता के साथ कुछ अन्य लोग भी मौज़ूद थे। सरकारी वकील विजय वर्मा ने केस के सिलसिले में अपनी बातें अदालत के समक्ष रखीं व सर्वप्रथम अभियुक्त चन्दन से ज़िरह की। चन्दन ने पुलिस को दिये गये अपने बयान को मानसिक असंतुलन की स्थिति में दिया गया बयान बताया तथा यह भी कहा कि बदहवासी में मैंने यह देखे बिना कि मैंने क्या कहा है और पुलिस ने क्या  लिखा है, हस्ताक्षर कर दिये थे। उसने शैलेश जी द्वारा समझाये गये अनुसार सरकारी वकील के द्वारा पूछे गये सभी प्रश्नों का जवाब दिया। विजय वर्मा उससे कुछ भी अन्यथा उगलवा नहीं पा रहे थे, फिर भी एक अन्तिम प्रयास उन्होंने किया- "मि. चन्दन, आज आप कह रहे हैं कि परेश के हाथ में चाकू देख कर विदिशा को बचाने के लिए आपने उसके हाथ से चाकू छीनने की कोशिश की और इसी के चलते परेश नीचे गिरा और फिर उसी के हाथ से चाकू उसके गले में लग गया। कहानी आपने अच्छी गढ़ी है, किन्तु यह कहानी तो आप पुलिस को दिये अपने बयान में भी बता सकते थे। उस समय आपने यह क्यों कहा था कि आपसी लेन-देन के मामले में हुई झड़प के दौरान आपने उसकी हत्या की थी?"

 "मैं नहीं चाहता था कि मेरी पत्नी का नाम इस केस में घसीटा जाए और पुलिस या मीडिया कोई भी उलटी-सुलटी कहानी बना कर उसकी प्रतिष्ठा को उछाले। इसीलिए मैंने उस घटना के एक दिन पहले ही विदिशा के भीलवाड़ा चले जाने की बात कही थी। मेरी पत्नी की इज़्ज़त मेरी ज़िन्दगी से अधिक कीमती है।" -चन्दन ने जवाब दिया। 

 विजय वर्मा ने चन्दन से अपनी ज़िरह समाप्त की। शैलेश जी ने चन्दन को यह आखिरी वाली बात कहने की सीख नहीं दी थी। उन्हें चन्दन का यह जवाब सुन कर ख़ुशी हुई कि उसके दिल से निकली यह सच्चाई केस को उनके पक्ष में मज़बूती देगी।   

  जज- "बचाव पक्ष के अधिवक्ता क्या चन्दन से कोई सवाल करना चाहेंगे?

  "नो, माई लार्ड!" -शैलेश जी ने जवाब दिया। 

 अब सरकारी वकील ने अदालत से विदिशा को गवाह कक्ष में बुलवा कर ज़िरह करने की इज़ाज़त मांगी। इज़ाज़त मिलने पर विजय वर्मा ने ज़िरह प्रारम्भ की।

  विदिशा ने वर्मा जी के सभी सवालों के माकूल जवाब दिये। वर्मा जी कुछ परेशान-से हुए, उन्होंने पैंतरा बदल कर पूछा- "विदिशा जी, आपके पति मि. चन्दन ने परेश से दो माह पहले शादी की तैयारी के लिए जो पचास हज़ार रुपये लिये थे, वह उन्होंने वापस क्यों नहीं लौटाए थे? क्या वह आर्थिक रूप से बहुत तंगी में थे?"

विदिशा इस प्रश्न पर कुछ घबराई। उसे इस बात की कोई जानकारी नहीं थी, क्योंकि उसकी तो शादी ही अभी-अभी हुई थी। सहसा उसे शैलेश जी की चेतावनी ध्यान आ गई। उसने संयत स्वर में वर्मा जी के प्रश्न का जवाब दिया- "मेरे पति ने परेश से कोई रुपया नहीं लिया था।"

"आपकी शादी को कितना समय हुआ है?"

"करीब एक महीना।"

"फिर आपको शादी से पहले चन्दन के परेश के साथ लेन-देन की बातें कैसे पता हो सकती हैं? मैं तो आपको केवल यह बताना चाहता हूँ कि अपना उधार परेश को नहीं चुका पाने का कारण चन्दन की तंग हालत थी और जब परेश अपना पैसा मांगने आया तो झगड़ा होने से चन्दन ने उसका खून कर दिया।" -वर्मा जी ने कहा। 

 "ऑब्जेक्शन मी लॉर्ड! मेरे काबिल दोस्त के द्वारा गवाह को ग़ैरज़रूरती तौर पर परेशान किया जा रहा है।" -शैलेश जी द्वार ऐतराज़ उठाया गया। 

"मेरा सवाल केस से पूरी तरह से ताल्लुक रखता है यौर ऑनर! मुझे गवाह से सवाल करने दिया जाय।" -विजय वर्मा ने जज साहब से दरख़्वास्त की। 

"ऑब्जेक्शन ओवर रूल्ड।" -कह कर जज साहब ने इज़ाज़त दी। 

"हाँ तो विदिशा जी, आप इस बात को तो मानती हैं कि आर्थिक तंगी के कारण चन्दन परेश का उधार नहीं चुका पाया था।"

"जी नहीं, मेरे पति मुझसे कोई बात नहीं छिपाते। मैं उन्हें शादी के बहुत पहले से जानती हूँ। वह मेरे क्लासफेलो रहे हैं और तब से जानती हूँ कि वह एक कप चाय का अहसान भी किसी का नहीं रखते थे। आर्थिक तंगी जैसी कोई बात भी हमारे यहाँ नहीं थी।"

वर्मा जी ने अपनी ज़िरह समाप्त की। अदालत से परमिशन ले कर शैलेश जी ने आ कर अपना पक्ष पुख़्ता करने के लिए विदिशा से कुछ सवाल किये। इसके बाद सरकारी वकील ने परेश के पिता को गवाह कक्ष में बुलवा कर तीन-चार प्रश्न पूछे, जिनके जवाब देते हुए परेश के पिता ने एक ही बात पर जोर दिया कि उनका बेटा परेश अच्छे चरित्र वाला लड़का था और यह सही नहीं है कि उसके द्वारा कोई ग़लत हरकत विदिशा के साथ की गई होगी। 

शैलेश जी ने केवल एक प्रश्न परेश के पिता से पूछा कि क्या चित्तौड़ में उनके ऑफिस की कोई ब्रांच है, जिसके जवाब में उन्होंने हामी भरी। 

  जज साहब ने शैलेश जी से उनका दूसरा गवाह पेश करने के लिए कहा। शैलेश जी ने अदालत से माफ़ी मांगते हुए बताया कि अस्वस्थ होने के कारण उनकी दूसरी गवाह आज नहीं आ सकी है। उन्होंने दरख़्वास्त की कि एक मौका और दिया जाय,अगली पेशी पर गवाह अदालत में हाज़िर हो जायगी। उन्होंने चन्दन की जमानत-अर्जी स्वीकार करने की भी अपील की, लेकिन जज साहब ने उसे अस्वीकार करते हुए बीस दिन बाद की तारीख दे कर आज की अदालत बर्खास्त की। 

                                                                              (11)


  बीस दिन बाद -

 आज कोर्ट में परेश-काण्ड के केस में फिर सुनवाई थी। आज अंतिम और एक मात्र गवाह की गवाही होनी थी। शैलेश जी ने आज हाज़िर हुई अपनी गवाह तान्या को अदालत से इज़ाज़त ले कर गवाह कक्ष में बुलवाया। 

"तान्या जी, आप परेश के ऑफिस में काम करती हो?" शैलेश जी ने प्रश्न किया। 

"जी, काम करती थी, तीन माह पहले वहाँ से काम छोड़ दिया था।"

"आपको पता है, वह इस दुनिया में नहीं रहे।"

"जी हाँ, अख़बार में पढ़ा था।"

"आपको इस ख़बर से दुःख तो हुआ होगा।" -शैलेश जी ने तान्या की आँखों में झाँक कर पूछा। 

"किसी भी इन्सान की मौत ख़ुशी की बात तो नहीं हो सकती, किन्तु मुझे कुछ विशेष दुःख नहीं हुआ।"

"ऐसा क्यों कह रही हो? आप जिस व्यक्ति के वहाँ काम करती थीं, उसके प्रति इतनी कड़वाहट क्यों?"

"जो इन्सान चला गया, उसके लिए कुछ कहना उचित नहीं है. किन्तु वह अच्छा इन्सान नहीं था।"

"आपके पास क्या आधार है ऐसा कहने का?"

"वह एक दुश्चरित्र व्यक्ति था। मैं उसकी एम्प्लोयी थी, तो उसने मेरा फायदा उठाने की कोशिश की थी।" -तान्या इतना कह कर चुप हो गई। 

"अपनी बात स्पष्ट करो तान्या। पूरी बात बताओ।"

"जी, पहले तो वह कई बार मुझसे छिट-पुट छेड़छाड़ ही करता था। नौकरी करना मेरी विवशता थी, सो जब तक हो सका मैंने उसकी हरकतों को इग्नोर किया, किन्तु एक बार तो हद ही हो गई। उसने सभी हदें पार करते  हुए मुझसे अश्लील हरकत कर डाली। मैं बड़ी मुश्किल से अपनी इज़्ज़त बचाकर बिना अपनी तनख्वाह लिए वहाँ से भाग निकली थी।"

 "दैट्स ऑल मी लॉर्ड! मेरे फ़ाज़िल दोस्त अगर कुछ पूछना चाहें तो... ।" -शैलेश जी ने जज साहब से कहा और फिर सरकारी वकील की तरफ मुस्करा कर देखा।  

विजय वर्मा गवाह के कटघरे की तरफ बढ़े। 

"मिस तान्या, यह तो सही नहीं है कि परेश ने तुम्हें नौकरी से निकाल दिया तो तुम उन्हें बदनाम करती फिरो। तुम सोचती हो कि तुम्हारे इस बेहूदा मौखिक जमा-खर्च से परेश से तुम्हारा बदला पूरा हो जायेगा और चन्दन भी बरी हो जायगा?"

"यह ग़लत है सर! जहाँ तक चन्दन का सवाल है, मैं उन्हें नहीं जानती।... और हाँ, परेश के खिलाफ़ मेरे पास सबूत भी है। वह मुझे व्हाट्सएप्प में भी अश्लील मैसेज भेजता था।" 

शैलेश जी मुस्करा दिये और विजय वर्मा आश्चर्य से तान्या की ओर देखने लगे। 

तान्या ने अपना मोबाइल ऑन किया और व्हाट्सप्प में परेश के मैसेज निकाल कर मोबाइल शैलेश जी को दिया। शैलेश जी ने मोबाइल जज साहब के पास भिजवाया। जज साहब ने मैसेज ऊपर-नीचे कर के देखे और आर्डर शीट में नोट करने के बाद मोबाइल विजय वर्मा को दे कर बोले- "वर्मा जी, आप भी देख कर तसल्ली कर लें।"

वर्मा जी ने मोबाइल हाथ में ले कर सरसरी तौर पर देखा और मोबाइल तान्या की ओर बढ़ा दिया। 

कोर्ट में बैठे रस्तोगी जी व विदिशा ने प्रशंसाभरी नज़रों से शैलेश जी की तरफ देखा। 

"वर्मा जी, क्या आप गवाह से कुछ और पूछना चाहेंगे या अपनी तरफ से कुछ कहना चाहेंगे?" -जज साहब ने विजय वर्मा से पूछा। 

"नहीं यौर ऑनर, थैंक यू !" -वर्मा जी ने जवाब दिया। उनके चेहरे पर पराजित यौद्धा वाले भाव स्पष्ट देखे जा सकते थे। 

 जज साहब ने शैलेश जी को निर्देश दिये कि वह अपनी गवाह तान्या के परेश वाले व्हाट्सप्प मैसेज के स्क्रीनशॉट के प्रिंट अगली सुबह अदालत में पेश करें।

  "कोई और गवाही बकाया नहीं होने से मुकद्दमे की कार्यवाही ख़त्म की जाती है। फैसला तीन दिन बाद सोमवार को सुनाया जायगा।" -जज साहब ने घोषणा की। 

  भीलवाड़ा पहुँचने के अगले दिन यानी शनिवार को रस्तोगी जी ने उत्सुकतावश गवाह तान्या के बारे में शैलेश जी से जानकारी चाही। 

शैलेश जी ने बताया - "मेरे दिमाग़ में अनायास यह बात आई थी कि आर्किटेक्ट का काम होने से इनके ऑफिस में कोई कर्मचारी तो होगा ही और अगर हुआ तो संभव है, परेश के सम्बन्ध में उससे कुछ अतिरिक्त जानकारी मिल जाए। मैंने जानकारी हासिल करने के लिए अपने सहायक को चित्तौड़ भेजा। आस-पास में पूछताछ करने पर उसे पता चला कि कुछ समय पहले तान्या नाम की एक लड़की परेश के ऑफिस में काम करती थी। बस फिर क्या था, मैं स्वयं चित्तौड़ गया और तान्या का पता लगा कर उससे मिला। उसको कॉन्फिडेंस में ले कर परेश के बारे में पूछताछ की और यह भी पूछा कि उसने परेश की नौकरी क्यों छोड़ी थी। थोड़े से प्रयास में उसने सब उगल दिया। मैंने उसे गवाह बनने के लिए रिक्वेस्ट की तो वह तुरंत तैयार हो गई, क्योंकि वह तो पहले ही उससे खार खाये बैठी थी। बस, अपना काम बन गया। उसके तैयार हो जाने से जीत की मेरी उम्मीद परवान चढ़ गई।"

"ओह वकील साहब, आप का कोई मुकाबला नहीं। मैं तो आपके एफर्ट्स देख कर आपका मुरीद हो गया हूँ... यू आर ग्रेट!"

"हा हा हा... थैंक यू रस्तोगी साहब!" -शैलेश जी ने प्रत्युत्तर में कहा। 


सोमवार को भरी अदालत में जज साहब ने अपना फैसला सुनाया। संक्षेप में फैसले का मज़मून इस प्रकार था- 'पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार परेश की मृत्यु चाकू की चोट से गले में स्थित श्वांस नली कट जाने से हुई। फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट की रिपोर्ट के अनुसार परेश की मृत्यु जिस चाकू के लगने से हुई थी, उस पर परेश व चन्दन दोनों की उंगलियों के निशान पाये गए। अभियुक्त व गवाह विदिशा के द्वारा कोर्ट में दिये गये बयानों से भी जाहिर होता है कि चाकू पहले परेश के हाथ में था और बाद में उसके गले से चन्दन ने चाकू निकाला था। गवाह तान्या की गवाही साबित करती है कि परेश का चरित्र अच्छा नहीं था। वह चन्दन के घर भी बदनीयती से गया था और उसकी करतूत के कारण हुई दुर्घटना में उसकी जान गई। तदनुसार परेश की मृत्यु दुर्घटनावश स्वयं उसके ही हाथ से कारित होना मान कर यह अदालत चन्दन को बाइज़्ज़त रिहा करती है।'
चन्दन को ले कर सब लोग कोर्ट से बाहर आये। हर्षातिरेक से विदिशा का चेहरा चमक रहा था। गंगवाल जी व सुजाता ने चन्दन को गले लगा कर चूम लिया। रस्तोगी जी ने गंगवाल जी से आग्रह किया कि सब लोग पहले भीलवाड़ा चल कर आराम करें व बाद में अपने घर जाएँ। उन्होंने रस्तोगी जी का अनुरोध स्वीकार किया। चन्दन की कार चित्तौड़ में उसके घर पड़ी थी, अतः वह लोग शाहपुरा से बस से आये थे। फलतः सब लोग रस्तोगी जी के साथ उनकी कार से ही भीलवाड़ा गये।
रस्तोगी परिवार व चन्दन के अलावा कोई अन्य इस मामले के रहस्य को कभी नहीं जान पाया। मुकद्दमे को जितवाने के नायक शैलेश जी भी उतना ही जानते थे, जितना रस्तोगी परिवार ने उन्हें बताया था।
दो दिन भीलवाड़ा में रुकने के बाद गंगवाल जी ने शाहपुरा जाने की इच्छा प्रकट की। रस्तोगी जी ने कार से उन्हें शाहपुरा ड्रॉप करवा दिया। तीन दिन तक चन्दन व विदिशा शाहपुरा में रहे और फिर बस से चित्तौड़ के लिए निकल गये।

  समय के पंख उड़ान भर रहे हैं। विदिशा और चन्दन अभी भी चित्तौड़ में ही रह रहे हैं। चन्दन पूर्ववत दिन में अपने ऑफिस जाता है और शाम को अक्सर कहीं न कहीं विदिशा को बाहर घुमाने ले जाता है। उनके आँगन में एक नन्हा फरिश्ता भी अवतरित हो गया है। चन्दन विदिशा का बहुत ख़याल रखता है और उसे भरपूर ख़ुशी देने का प्रयास करता है। विदिशा अपनी ज़िन्दगी में संतुष्ट है और सामान्यतः खुश भी नज़र आती है, जिससे लगता है कि उसने चन्दन को माफ़ कर दिया है। अब वह अपने नन्हे के साथ व्यस्त रहने लगी है। एक वीकेंड में वह लोग शाहपुरा जाते हैं तो दूसरे वीकेंड में भीलवाड़ा। लगभग यही उनकी वर्तमान जीवन-शैली बनी हुई है। रस्तोगी जी व आरती प्रसन्न हैं कि उनकी बेटी की गृहस्थी बच गई है और वह अपने परिवार में खुश है, किन्तु वह नहीं जानते कि यदा-कदा विदिशा के दिल का वह जख्म उभर कर उसे गहरे दर्द में भिगो देता है जो चन्दन ने कभी उसे दिया था। क्या कभी भूल सकेगी वह... ?

                *************
                                                                                -: समाप्त :-
                *************

 

टिप्पणियाँ

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (1-6-21) को "वृक्ष"' (चर्चा अंक 4083) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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  2. लंबी किंतु अति सुन्दर कहानी ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सराहना के लिए धन्यवाद व साथ ही कहानी लम्बी होने से हुई असुविधा के लिए खेद व्यक्त करना चाहूँगा महोदया !

      हटाएं
  3. काफी सनसनीखेज कहानी
    आभार..
    सादर..

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. लम्बी कहानी पढ़ने के लिए अदम्य साहस व धैर्य की आवश्यकता होती है😊। आपने इसे पढ़ा भी और सराहना भी की, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद महोदया यशोदा जी!

      हटाएं

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