नमन करता हूँ मैं मेरी इस कहानी के वन्दनीय पात्र को और इसके जैसे सभी महामनाओं को! पेंशनर चपरासी छगन लाल का उन्नीस वर्षीय बेटा मोहन आज फिर बैंक में बैंक-कर्मी शर्मा जी के सामने था। वह रो रहा था और आक्रोश में भी था- " एक्सीडेंट हो जाने से मेरे बापू जीवित प्रमाण-पत्र देने के लिए यहाँ आ नहीं सकते थे। 'बैंक में आ कर हस्ताक्षर करने पड़ते हैं' , यह कह कर कल आपने मेरे बापू के हस्ताक्षर हॉस्पिटल में करवाने के लिए जीवित प्रमाण-पत्र का फॉर्म नहीं दिया। उनकी पेंशन नहीं मिलने से हम दवाइयाँ नहीं ला सके। मेरे बापू दवा नहीं मिलने से आज सुबह मर गये बाबूजी! नेता,अफसर, व्यापारी, सब के सब कानून जेब में रखते हैं और आप हम गरीबों पर नियम-कानून लगाते हो। बापू तो गये ही, हम बेसहारा हो गए, पैसे-पैसे को मोहताज़ हो गए। अगर आपने बापू से अंगूठा लगवाने के लिए कल मुझे फॉर्म दे दिया होता तो वह बच जाते और नहीं भी बचते तो कम से कम हमारी एक साल की आमद का जुगाड़ तो हो जाता।" शर्मा जी हतप्रभ थे। अपने मन का गुबार निकालने आया मोहन रोता-रोता धीमे कदमों से बैंक से निकल गया। मोहन घर पहुँचा, तो पास-प