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संदेश

'देश मज़बूत होगा' (लघुकथा)

                                                                                                          "... तो भाइयों और बहिनों! मैं कह रहा था, हमें हमेशा सच्चाई के रास्ते पर चलना चाहिए। सच्चाई की राह में तकलीफें आती हैं पर फिर भी हमें झूठ और बेईमानी का साथ कभी नहीं देना चाहिए। आप तो जानते ही हैं कि  विधान सभा के चुनाव नज़दीक हैं। मैं मानता हूँ कि केन्द्रीय सरकार का सहयोग नहीं मिलने से हमारी पार्टी अब तक कुछ विशेष काम नहीं कर सकी है, लेकिन मेरा वादा है कि इस बार हम आपकी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए एड़ी से चोटी तक का जोर लगा देंगे। मेरे विपक्षी उमीदवार फर्जी चन्द जी आप से झूठे वादे करेंगे, बहलाने की कोशिश करेंगे, लालच भी देंगे, किन्तु आप धोखे में नहीं आएँ। आपको सच्चाई का साथ देना है, मुझे अपना अमूल्य वोट दे कर जिताना है। मैं आपकी सेवा में अपनी जान...।"- मंत्री दुर्बुद्धि सिंह झूठावत अपने पहले चुनावी भाषण में अपने कस्बे के क्षेत्र-वासियों को सम्बोधित कर रहे थे कि अचानक उनका मोबाइल बज उठा। मोबाइल ऑन कर कॉलर का नाम देखा और "क्षमा करें, दो मिनट में लौटता हूँ"- कह क

'उफ्फ़!... मेरा वह सहयात्री' (कहानी)

                       जयपुर के गांधीनगर रेलवे स्टेशन पर एक टी-स्टाल पर खड़ा मैं चाय का कप हाथ में लिये आगरा के लिए ट्रेन का इन्तज़ार कर रहा था।    'यात्री कृपया ध्यान दें, मरुधर एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय तीन बज कर बावन मिनट पर पहुँचने वाली है।' - अनाउंसमेंट सुनते ही मैंने अपने कप से चाय का आखिरी घूँट लिया और स्टॉल  के काउन्टर पर कप रख कर प्लेटफॉर्म की तरफ लपका। थर्ड एसी के B-1 कोच में 5 नम्बर की बर्थ थी मेरी, सो प्लेटफॉर्म पर जहाँ इस कोच के ठहरने का मार्क था वहाँ खड़ा होकर ट्रेन का इन्तज़ार करने लगा। दोस्त के भाई की शादी में जा रहा था और तीसरे दिन ही वापस आ जाना था सो सामान के नाम पर मेरे पास केवल एक ब्रीफ़केस था, जिसमें दो दिन का दैनिक ज़रुरत का सामान था।      सीटी की आवाज़ के साथ छुक-छुक करती ट्रेन नज़दीक आ रही थी। मैंने घड़ी में देखा, ठीक 3-52 हो रहे थे। मुझे खुशी हुई कि इन दिनों अधिकांश रेलगाड़ियाँ समय पर आती-जाती हैं। ट्रेन रुकी और मैं चढ़ कर अपनी बर्थ वाली सीट पर जाकर बैठ गया। आश्चर्यजनक रूप से आज यात्रियों की अधिक भीड़ नहीं थी। जहाँ मैं बैठा था, उसके सामने वाली बर्थ

'शिक्षक-दिवस' ... संस्मरण (वन्दन मेरे शिक्षक सर को!)

आज पाँच सितम्बर- शिक्षक दिवस के दिन मैं अपने उस रहनुमा शिक्षक को कैसे भूल सकता हूँ? ... कभी नहीं भूल सकता!                             रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, अजमेर में चार वर्षीय डिग्री कोर्स के तृतीय वर्ष में पढ़ रहा था मैं उन दिनों।    फिज़िक्स की क्लास थी। लेक्चरर ने कक्ष में प्रवेश किया। नाम था उनका एस. सी. जैन। निहायत ही सज्जन व्यक्ति थे वह। (वस्तुतः 'थे' कहना तो सही नहीं होगा क्योंकि ईश्वर की कृपा से वह अभी भी सलामत हैं व अजमेर में रहते हैं।) तो, क्लास में आकर चॉक उठा कर उन्होंने पढ़ाना शुरू ही किया था कि उनके सिर का निशाना साध कर मैंने चॉक का एक टुकड़ा फेंका। चॉक उनके सिर की गंज पर ठीक निशाने पर लगा और सभी स्टूडेंट्स ने ज़ोरदार ठहाका लगाया। जैन सर ने पलट कर हम सब को ध्यान से देखा व मेरे चेहरे के हाव-भाव देख कर जान लिया कि यह खुराफात मेरी थी। उन्होंने मुझे क्लास से बाहर निकल जाने को कहा, लेकिन मैंने अपनी ग़लती स्वीकार नहीं कर, बाहर निकलने से यह कह कर इंकार कर दिया कि बाहर चले जाने पर मेरी पढ़ाई का नुक्सान होगा। उन्होंने दूसरी सज़ा तज़वीज़ की और मुझे क्लास में ही खड़े रहने को क

'बेवकूफ (?) जेबकतरा' (कहानी)

    वह एक जेबकतरा था, अपने फ़न में माहिर। अपने उस्ताद अब्दुल्ला से उसने इस करतब में महारत हासिल की थी। अपने होश सम्हालने से पिछले साल तक वह अब्दुल्ला की शागिर्दी में था। उसके अलावा तीन और लड़के थे जो अब्दुल्ला के लिए काम करते थे। सभी उसे 'बावरा' नाम से पुकारते थे। यह नाम उसे अब्दुल्ला ने ही दिया था। इस नामकरण के पीछे की कहानी बावरा को भी मालूम नहीं थी। उसका जन्म कब और कहाँ हुआ था, न उसे मालूम था, न ही अब्दुल्ला को। अब्दुल्ला ने बताया था कि उसे किसी मेले की भीड़ में जब वह लगभग ढ़ाई-तीन साल का था, रोता हुआ मिला था। बस, वह उसे उठा लाया और पाल-पोस कर बड़ा किया।      जब बावरा सात साल का हुआ तो अब्दुल्ला ने उसे जेब काटने का हुनर सिखाना शुरू किया। दो और बच्चे जो उम्र में बावरा से दो-तीन साल  बड़े थे, पहले से ही अब्दुल्ला के साथ यह काम करते थे और अब तक इस कला में माहिर हो चुके थे। बावरा का दिमाग बहुत तेज चलता था और इसीलिए एक वर्ष के भीतर ही वह अपने दोनों साथियों से अधिक पारंगत हो गया था इस खेल में। वह बस्ती के दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देखता तो उसे भी इच्छा होती कि वह भी पढाई करने स्कूल जा

'तुम्हारे अधरों की मदिरा'

     ह्रदय में कुछ भाव उमड़े, भावों ने शब्दों का रूप लिया और अन्ततः इस कविता ने जन्म लिया। प्रस्तुत कर रहा हूँ अपने रस-मर्मज्ञ, स्नेही पाठकों के लिए... ! तुम आओ तो ...                           ठुकरा दे गर कोई अपना, तुम किञ्चित ना घबराना, पथ भूल न जाना मेरा तुम, मेरे पास चली आना, बस जाना मेरी आँखों में, पलकों की सेज बिछा दूँगा, तुम आओ तो! दुनिया रोके मेरी राहें, चाहे उल्टी घड़ियाँ हों, जंजीर पड़ी हो पांवों में, हाथों में हथकड़ियां हों, सारे बंधन तोडूँगा मैं, बाधा हर एक मिटा दूँगा, तुम आओ तो! प्यासी हो धरती कितनी भी, छाती उसकी तपती हो, आसमान से शोले बन कर, चाहे आग बरसती हो, मौसम हो पतझड़ का तो भी, मैं दिल को चमन बना दूँगा, तुम आओ तो! वसन कभी जो काटें तन को, हृदय कभी जो घबराये, आभूषण भी बोझ लगें जब, मन उनसे भी कतराए, मैं सूरज, चांद, सितारों से, तुम्हारे अंग सजा दूँगा, तुम आओ तो! जब तन में, मन में हो भटकन, सखियों से मन ना बहले, जब डगमग पाँव लगें होने, यौवन तुमसे न सम्हले, तुम्हारे अधरों की मदिरा, मैं अपने होठ लगा लूँगा, तुम आओ तो!                   *********

कश्मीरियत सुरक्षित रहे - 'एक चिन्तन'

                                                 हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा गृहमंत्री अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर से सम्बंधित धारा 370 को समाप्त/अप्रभावी किये जाने के विषय पर साहसिक निर्णय ले ही लिया। दिनांक 5 अगस्त, 2019 को  देश की जनता की चिरप्रतीक्षित साध पूरी हुई। कुछ मंद-बुद्धि व भ्रमित या यूँ कहें कि निहित स्वार्थ से ग्रसित व्यक्तियों के अलावा भारत देश के हर शहर, हर गाँव में समस्त जन-समुदाय ख़ुशी से चहक रहा था, सब का चेहरा गर्व और सन्तोष की आभा से दसमक रहा था। अन्ततः पुरानी, परिस्थितिजन्य भूल का परिमार्जन हो गया व जम्मू-कश्मीर को धारा 370 के दूषित बन्धन से मुक्त कर उससे लद्दाख को पृथक किया गया तथा दोनों को केन्द्र-शासित राज्य का दर्जा देने का प्रस्ताव रखा गया जो राज्य-सभा में उसी दिन पारित हो गया। कल लोक-सभा में भी इसे बहस के बाद पारित कर दिया गया तथा राष्ट्रपति जी के हस्ताक्षर के बाद वैधानिक रूप से मान्य हो गया है।      धारा 370 के प्रभावी रहते देश के जम्मू-कश्मीर राज्य को कुछ ऐसी शक्तियाँ मिली हुई थीं कि भारत का राज्य होते हुए भी भारतीय संविधान के कई प्रावधान वहाँ अ

"तुझ बिन..." (ग़ज़ल)

                                                                                                                                                                        ग़ज़ल                                                   कैसे कह दूँ, तुझे चाहा नहीं था,  धोखा खुद को अब, दिया नहीं जाता।   बढ़ गया है तुझसे फ़ासला इतना, कि मुझसे अब तय, किया नहीं जाता।  ज़माने के पहरे हैं, सांसों पे मेरी,  कदम कोई अब, लिया नहीं जाता।  बन चुका है छलनी, दिल ये मेरा, ज़ख्म अब मुझसे, सीया नहीं जाता।  समन्दर तो मिलते हैं हर कदम पे, पर पानी उनका, पीया नहीं जाता।  हर कूचे, हर गुंचे में, नूर है तेरा, किसी और पे अब, हिया नहीं जाता। जीना तो मैंने चाहा था लेकिन, क्या करूँ तुझ बिन,जीया नहीं जाता।  *******