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'बेवकूफ (?) जेबकतरा' (कहानी)






    वह एक जेबकतरा था, अपने फ़न में माहिर। अपने उस्ताद अब्दुल्ला से उसने इस करतब में महारत हासिल की थी। अपने होश सम्हालने से पिछले साल तक वह अब्दुल्ला की शागिर्दी में था। उसके अलावा तीन और लड़के थे जो अब्दुल्ला के लिए काम करते थे। सभी उसे 'बावरा' नाम से पुकारते थे। यह नाम उसे अब्दुल्ला ने ही दिया था। इस नामकरण के पीछे की कहानी बावरा को भी मालूम नहीं थी। उसका जन्म कब और कहाँ हुआ था, न उसे मालूम था, न ही अब्दुल्ला को। अब्दुल्ला ने बताया था कि उसे किसी मेले की भीड़ में जब वह लगभग ढ़ाई-तीन साल का था, रोता हुआ मिला था। बस, वह उसे उठा लाया और पाल-पोस कर बड़ा किया।

     जब बावरा सात साल का हुआ तो अब्दुल्ला ने उसे जेब काटने का हुनर सिखाना शुरू किया। दो और बच्चे जो उम्र में बावरा से दो-तीन साल  बड़े थे, पहले से ही अब्दुल्ला के साथ यह काम करते थे और अब तक इस कला में माहिर हो चुके थे। बावरा का दिमाग बहुत तेज चलता था और इसीलिए एक वर्ष के भीतर ही वह अपने दोनों साथियों से अधिक पारंगत हो गया था इस खेल में। वह बस्ती के दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देखता तो उसे भी इच्छा होती कि वह भी पढाई करने स्कूल जाये। एक बार उसने अब्दुल्ला से बोला भी- "चचा, मुझे भी पढ़ने स्कूल भेजो न!"

  पान की पीक थूक कर, फूहड़पन से हँसते हुए तब अब्दुल्ला ने कहा था- "अबे तेरे को कलक्टर बनना है क्या ? अपनी गूदड़ी में रह साले!"

  फिर कभी बावरा की हिम्मत नहीं हुई चचा से इस बारे में बात करने की।

    अब तक एक और लड़के को अब्दुल्ला पकड़ लाया था जो सड़क पर भीख माँगा करता था, उसका इस दुनिया में कोई नहीं था। अब्दुल्ला बावरा की अक्सर तारीफ करता था अपने अन्य तीनों शागिर्दों के सामने, कहता- 'यह साला बावरा बहुत होशियार है, ज़रूर किसी अच्छे घर की औलाद है।'

    दो-एक बार जेब काटते पकड़े जाने पर बावरा की छोटी-मोटी पिटाई भी हुई, लेकिन किसी तरह हाथ-पैर जोड़ कर बच निकला था वह। यूँ ही समय निकलता रहा और बावरा 18-19 वर्ष का हो गया। कभी-कभी अब्दुल्ला से अब उसकी झड़प भी हो जाती थी। झड़प होने के दो कारण थे- एक तो यह कि लड़के जो कमाई कर के लाते थे उसमें से नाम-मात्र का हाथ-खर्च वह उन्हें देता था, शेष सारा घर-खर्च के नाम से वह अपने पास रख लेता था और दूसरा यह कि कम कमाई लाने पर वह कभी-कभी उन पर हाथ भी छोड़ देता था। कम-से-कम बावरा को यह गवारा नहीं था इसलिए पिछले साल वह उसकी गुलामी से मुक्त होकर चला आया था और उसके घर से दूर एक खोली में रहने लगा था। दूसरे लड़के भी अब्दुल्ला से ज़्यादा खुश नहीं थे और उसका शरीर भी उम्रज़दा हो जाने से आधा रह गया था सो वह न चाहते हुए भी बावरा को रोक नहीं सका था। बावरा ने फिर लौट कर अब्दुल्ला की ओर झाँकने की कोशिश भी नहीं की। हाँ, उसका वहाँ का एक साथी रामू ज़रूर उससे कभी-कभार मिलने आ जाता था।

   अब बावरा अपने धन्धे से जो कुछ भी कमाता था, सब उसका अपना था। उसने हिन्दी व गणित की कुछ प्रारम्भिक पुस्तकें तथा कॉपी-पेन्सिल खरीदीं व समय निकाल कर अपने पड़ोस में रहने वाले एक पढ़े-लिखे व्यक्ति की मदद से पढ़ाई-लिखाई सीखना भी प्रारम्भ किया। एक वर्ष में ही धीरे-धीरे उसकी स्थिति भी अच्छी हो गई और थोड़ा-बहुत पढ़ना-लिखना भी उसने सीख लिया। उसके चेहरे पर भी पहले के मुकाबले रौनक आ गई थी। वह अब जिस तरह से रहता था, मामूली जेबकतरा तो कतई नहीं लगता था। वह उतने ही लोगों की जेब साफ़ करता था जिससे उसका ठीक-से गुज़ारा हो जाये। वह ज़्यादा फ़िज़ूल-खर्च भी नहीं था।

    एक दिन अनायास बावरा के दिमाग में विचार आया कि उसके पास भी एक स्कूटर होना चाहिए। उसने अपनी जमा-पूँजी देख कर हिसाब लगाया तो कोई पुराना स्कूटर खरीदने के लिए भी उसके पास के पैसे कुछ कम पड़ते थे। उसने सोचा, कोई अच्छा आसामी हाथ लग जाये तो काम बन जाये। यही सोच कर तैयार हो कर वह घर से निकला। बड़ी देर तक वह शिकार की तलाश में सड़कों पर घूमता रहा। किसी मालदार आदमी की तलाश में वह शहर के एक पॉश इलाके में पहुँचा। तेज धूप के कारण वह पसीने-पसीने हो रहा था कि उसने देखा, एक युवक कुछ बीस फीट की दूरी पर स्थित एक बंगले की तरफ जा रहा है। बावरा फ़ौरन उसकी तरफ बढ़ा और लगभग उसके साथ चलते हुए किसी का पता पूछने का नाटक करने लगा। उस युवक ने अनभिज्ञता जाहिर की तो बावरा- 'कोई बात नहीं, शुक्रिया जनाब', कह कर तेजी से लौट गया। उसने अपना काम कर लिया था। उस युवक को कुछ भी पता नहीं लगा, किन्तु बंगले में खड़े एक व्यक्ति ने यह सब देख लिया था, वह चिल्लाया- "अरे राकेश, पकड़ो उसे, उसने तुम्हारी जेब काटी है।"

   उस युवक, राकेश ने चौंक कर पीछे देखा और बावरा को पकड़ने दौड़ा। वैसे तो बावरा अपने पेशे की मांग के चलते बहुत तेज दौड़ लेता था, किन्तु आज भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया और राह में उभरे एक पत्थर से ठोकर खा कर लड़खड़ा गया। तब तक राकेश ने उसे पकड़ लिया और दो-तीन ज़ोरदार थप्पड़ मारकर उसके हाथ से वॉलेट छीनने की कोशिश की। बावरा का सिर थप्पड़ों से झनझना गया था, लेकिन उसने फुर्ती दिखाई और स्वयं को उससे छुड़ा कर भाग निकला।

    पीछा कर रहे राकेश को इधर-उधर गलियों में अपने पीछे चक्कर लगवा कर गच्चा देने में बावरा सफल रहा। वहाँ से बच निकलने के बाद वह एक रेस्तरां में गया। अपने-आप पर कुछ काबू पाने के बाद उसने अपने लिए एक चाय ऑर्डर की और फिर तसल्ली से वॉलेट निकाल कर चैक किया। वॉलेट में कुल तीन हज़ार सात सौ बीस रुपये थे। इसके अलावा उसमें ड्राइविंग लाइसेंस, एक ATM कार्ड तथा हाथ से लिखा हुआ एक पत्र था। उसने वॉलेट वापस अपनी जेब के हवाले किया और चाय पी कर सीधा अपनी खोली पर पहुँचा।

    थोड़ी देर बिस्तर पर सुस्ता कर उसने वॉलेट से पत्र निकाल कर धीरे-धीरे पढ़ा। पढ़ते-पढ़ते वह थोड़ा भावुक हो गया। उसने जो-कुछ पत्र में पढ़ा, संक्षेप में उसका आशय था-

    'राकेश का भाई पास ही के उसके गाँव में पढता है। अभी तीन माह बाद भाई की बोर्ड की परीक्षा थी, उसकी फीस के लिए व अन्य घर-खर्च के लिए कुछ अतिरिक्त पैसे की व्यवस्था कर राकेश को पैसा गांव में अपने घर भेजना था। इसी की व्यवस्था के लिए राकेश अपने दोस्त के पास जा रहा था और इन्तज़ाम होते ही पैसा शीघ्र ही भेजेगा।' इस आशय का सन्देश राकेश ने अपने पिता को इस पत्र में लिखा था।

    बावरा की पलकों की कोरें भीग गयी थीं। वह जेबकतरा ज़रूर था पर मन की कोई संस्कारगत कोमलता अभी भी उसमें जीवित थी। उसने अपनी उंगलियों को आँखों पर फेरा व  बिस्तर से उठ कर एक कागज़ के टुकड़े पर तीन-चार लाइन लिखीं। राकेश के वॉलेट से केवल एक सौ रुपये का नोट निकाल कर उसने अपनी जेब में रखा व अपना लिखा हुआ कागज़ मोड़ कर अन्य वस्तुओं के साथ उस वॉलेट में रख दिया। खोली से बाहर निकल कर तेजी से सड़कें पार कर वह उसी बंगले की तरफ बढ़ चला जहाँ उसने राकेश की जेब काटी थी। बावरा जेब से वॉलेट निकाल कर बंगले में फेकने वाला ही था कि भीतर से निकल रहे राकेश व उसके दोस्त ने उसे देख लिया। इससे पहले कि वह लोग भाग कर उसको पकड़ते, बावरा ने वॉलेट उनकी तरह फेंका और पलट कर सरपट भाग निकला।

    काफी दूर निकल जाने के बाद जब वह अपनी खोली की तरफ जा रहा तथा तो अचानक उसका पुराना साथी रामू मिल गया। बावरा की आँखों में संतोष का उजाला था, किन्तु भाग कर आने से तथा कुछ आवेग के कारण वह काँप रहा था। रामू ने इसकी कैफियत जाननी चाही तो उसने उसे संक्षेप में सारा वाक़या बता दिया। रामू ने अजीब नज़रों से उसकी और देखा और यह कह कर चलता हुआ- "बावरा तू तो एकदम बेवकूफ है।"

    शायद बावरा ने उसकी बात नहीं सुनी। किसी निश्चय से उसकी आँखें चमक रही थीं।

    उधर राकेश और उसका दोस्त बावरा के द्वारा फेंके गये वॉलेट को इस तरह देख रहे थे जैसे वह कोई अजूबा हो। राकेश ने वॉलेट को उठा कर चैक किया। उसमें सभी वस्तुएँ यथावत थीं, मात्र एक सौ रुपये का नोट कम था और एक मुड़ा-तुड़ा कागज़ रखा हुआ था। विस्मित, दोनों ने कागज़ की टूटी-फूटी इबारत पढ़ी, जो इस प्रकार थी -

    'भाइसाब मे अपनी गलति की माफि चाता हू। मेरी ज़रुत से आपकी ज़रुत जादा हे। हमरे धंदे के शकून के वास्ते एक सो रूपिया निकाले हे सो माफि देना जी। मे पड नइ सका हु, आपका भाइ खुब पडे, एसी दूआ करता हू।'


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