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संदेश

टुकड़ा-टुकड़ा बादल (कहानी)

               वही शाम का वक्त था, सूर्यास्त होने में अभी कुछ देर थी और मैं रोज़ाना के अपने नियम के अनुसार फतहसागर झील की पाल पर टहल रहा था। मन्द-मन्द चल रही हवा झील के पानी में धीमा-धीमा स्पन्दन उत्पन्न कर रही थी। कभी मैं झील की सतह पर प्रवाहित लहरों को निहार लेता था तो कभी मेरी नज़र पाल के किनारे बनी पत्थर की बैन्च पर बैठ गप-शप कर रहे लोगों पर पड़ जाती थी। मैं अपनी दिन-भर की थकान व दुनियादारी के तनाव से मुक्ति पाने के लिए यहाँ टहलने आता था, सेहत बनाने के लिए तेज़ रफ़्तार से वॉकिंग करना मेरा उद्देश्य कतई नहीं था। वैसे भी मैं छरहरी कद-काठी का इन्सान हूँ सो मेरी समझ से मुझे अधिक स्वास्थ्य-चेतना की ज़रुरत नहीं थी।          तो आज भी यूँ ही टहल रहा था कि एक बैन्च पर एकाकी बैठी एक महिला पर मेरी नज़र पड़ी। उस महिला का चेहरा देख कर ऐसा लगा जैसे उसे कहीं देखा है। दिमाग पर ज़ोर लगाकर कुछ याद करने की कोशिश करता, इसके पहले ही मैं कुछ आगे निकल चुका था। उसे पहचानने के लिए तुरत वापस लौटना मुझे ठीक नहीं लगा, सो चलता रहा। मैं पाल के अंतिम छोर तक जा कर वापस लौट रहा था तो वही चेहरा अब भी मेरी नज़रों में घू

विक्रम और बेताल -दास्तान-ए-दोस्ती (कहानी)

        विक्रम के पापा का स्थानांतरण गोविन्दगढ़   में हो गया था। ग्यारहवीं कक्षा (विज्ञान) में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था विक्रम। एक सप्ताह पूर्व ग्रीष्मावकाश समाप्त हो गये थे। शहर के हायर सेकेंडरी स्कूल में 12 वीं कक्षा में उसका दाखिला हो गया। हाज़िरी लेते समय कक्षाध्यापक जी ने परम्परागत रूप से नवागंतुक छात्रों से परिचय पूछा तो विक्रम ने भी अपना परिचय दिया- '' मेरा नाम विक्रम शर्मा है। मेरे पापा का ट्रान्सफर नवलगढ़ से यहाँ हो जाने से दो दिन पहले ही इस शहर में आया हूँ। ''   पीरियड ख़त्म होने पर पिछली पंक्ति में बैठा एक लड़का उठकर उसके पास आया- '' हेलो , मेरा नाम बेताल सिंह यादव है। सोचा , विक्रम से तो दोस्ती बनती ही है। मुझसे दोस्ती करोगे ?''       '' हाँ भाई , विक्रम की बेताल से दोस्ती नहीं होगी तो किससे होगी! ''- हँसा विक्रम।   तो इस तरह से विक्रम का सबसे पहला दोस्त बन गया बेताल यादव। बाद में बेताल ने अपना पूरा परिचय देते हुए विक्रम को यह भी बताया कि वह अनुसूचित जाति से है। विक्रम ने सहजता से कहा- '' यार , यह क्या

धुंध से आगे (कहानी)

            ******************      प्रस्तुत है सामाजिक असमानता और उससे मुक्ति की सोच का निरूपण करती मेरी यह कहानी- "धुंध से आगे" ******************      नन्हे विशु को उसके खिलौनों के साथ माली के पास लॉन में छोड़कर नीलिमा रसोईघर में चली आई। महरी आज आई नहीं थी सो घर का सारा काम-काज उसे ही निपटाना था। सोचा, विशु थोड़ी देर बाहर खेलता रहेगा तो आराम से कुछ काम कर लेगी। दो बार अम्मा जी (सासू माँ) चाय के लिए कह चुकी थीं सो सबसे पहले चाय बना कर वह अम्मा जी के पास आकर बैठी। शाम के वक्त चाय लेना वह कम पसंद करती है पर आज अकेले-अकेले काम करते थक गई थी तो आधा कप चाय खुद के लिए भी बना ली थी। अम्मा जी बातों की कुछ ज्यादा ही शौक़ीन थीं। इधर-उधर की सौ-पचास बातें नहीं कर लेतीं, चैन नहीं पड़ता था उन्हें। नीलिमा ने अपनी चाय अम्मा जी की बातों के जवाब में 'हाँ-हूँ' करते जल्दी ही ख़त्म कर ली और फुर्ती से वापस रसोईघर में पहुँची। सब्जी सुबह की काटी हुई फ्रिज में रखी थी सो निकाल कर भागौनी में छौंक लगा कर पकने के लिए छोड़ दी। वर्मा साहब (विशु के पापा) आधे घंटे में ऑफिस से आ जायेंगे तो आते

विपुल का टिफिन (कहानी)

     विपुल का ऑटो घर के दरवाज़े पर आ कर रुका। प्रतिष्ठा अपने कमरे में बैठी उपन्यास पढ़ रही थी, ऑटो की आवाज़ सुनते ही उपन्यास टेबल पर रख कर  मकान के गेट की ओर लपकी।  विपुल आते ही 'मम्मी' कह कर उससे लिपट गया। प्रतिष्ठा ने उसके हाथ से बैग लिया और प्यार से उसे चूम कर उसकी उंगली पकड़ कर भीतर ले आई। विपुल आ कर सीधे ही सोफे पर पसर गया। बैग आलमारी में रख कर प्रतिष्ठा ने उसके जूते-मौजे खोले और स्कूल-यूनिफॉर्म उतार कर घर के कपड़े पहनाये।           विपुल वापस सोफे पर बैठ गया और अपने स्कूल की रामायण शुरू कर दी- "मम्मी, आज तो मैम ने राहुल को खूब डाटा। पता है, उसे पूरे पीरियड तक खड़ा रहने का पनिश्मेंट भी दिया। ...और मम्मी, मुझे तो कॉपी में मैम ने गुड दिया।"   "बहुत अच्छा बेटे, शाबास! लेकिन, राहुल को मैम ने पनिश्मेंट क्यों दिया?"   "मम्मी, एक तो उसने कॉपी में गलत-गलत लिख दिया था फिर ऊपर से दूसरे लड़कों से बातें कर रहा था। वह वह मैम की बात ही नहीं सुनता। अरे मम्मी, छोड़ो न, मुझे भूख लग रही है, खाना दो मुझे।"     प्रतिष्ठा ने प्यार से विपुल के गालों को सहलाते हु

किरायेदार (कहानी)

   "कल तक मुझे किराया मिल जाना चाहिए। तीन महीने हो गए किराया दिए हुए, यह भी कोई तरीका होता है?  कल तक किराया दे दो और मकान ख़ाली कर दो, नहीं तो आपका सामान बाहर फेंक दूंगा ।"- लगभग चिल्लाते हुए रमण लाल ने अपनी किरायेदार श्रीमती कौशल्या को आगाह किया।   "भाई साहब, एक सप्ताह का समय और दे दीजिये। मेरे बेटे की तनख्वाह रुकी हुई थी, अब तीन-चार दिन में मिल जायगी और वह मेरे बैंक-खाते में ट्रान्सफर कर देगा। उसका कल ही मेसेज आया है।"- कौशल्या शर्म से ज़मीन में गड़ी जा रही थी क्योंकि पड़ौस के मकान से पड़ौसी भी झाँक कर उनकी बातें सुन रहा था।   "मुझे इन बातों से कोई मतलब नहीं, मुझे तो मेरा किराया चाहिए।" -कह कर रमण लाल अपने कमरे में चले गये।   रमण लाल सरकारी नौकरी में थे। वह जो कुछ कमाते थे, उसमें से ज़्यादा कुछ बचा नहीं पाते थे। घर का खर्च, तीन बच्चों की पढ़ाई का खर्च और ऊपर से इतनी महंगाई, बचाते भी तो क्या और कैसे! स्वास्थ्य लगातार खराब रहने से अभी दो साल पहले ही निर्धारित उम्र से बहुत पहले रिटायरमेंट ले लिया था। तीन बच्चे थे और तीनों ही बाहर अपनी-अपनी गृहस्थी में व्यस

डायरी के पन्नों से ..."कोई आशिक़ न कह दे..." (मुक्तक)

मेरे अध्ययन-काल की एक रचना (मुक्तक) - "कोई आशिक़ न कह दे" .  मेरे महाविद्यालय के साथियों द्वारा बहुत सराही गई थी यह रचना....   ज़ुल्म  तो बहुत सहा है पर फरियाद नहीं करता,  प्यार तो करता हूँ उनको, पर याद नहीं करता। आवाज़ सुनकर ही कहीं कोई आशिक़ न कह दे,                            यही है वो राज़ कि मैं किसी से बात नहीं करता।                                                   *****

ऑटो वाला (सत्य-कथा)

                 कई वर्ष पहले का वाक़या है। मेरे विभाग के एक साथी अधिकारी शर्मा जी के एक दुर्घटना में देहांत होने की सूचना मिलने पर मैं उनके दाह-संस्कार में शामिल होने बस से सुबह डूंगरपुर के लिए रवाना हुआ। एक तो मन पहले से ही उदास था, दूसरे बस में भीड़ बहुत ज्यादा थी तो मन उद्विग्न हो उठा। करेला ऊपर से नीम चढ़ा की तर्ज पर डूंगरपुर पहुँचने के बीस मिनट पहले बस का टायर पंक्चर हो गया तो बस विलम्ब से पहुंचनी ही थी। मैं बस-स्टैंड से शर्मा जी के घर गया तो पता चला कि शवयात्रा निकले आधा घंटा हो चुका है। श्मशान घाट सीधे ही पहुँचने के अलावा कोई चारा नहीं था अतः घर से बाहर आकर ऑटो के लिए इधर-उधर देखा, लेकिन कोई ऑटो नज़र नहीं आया क्योंकि इनका घर मुख्य सड़क से थोड़ा भीतर की ओर था। संयोग से एक परिचित बाइक पर मेरे पास से निकल रहे थे कि उनकी नज़र मुझ पर पड़ी और बाइक रोक कर मुझसे पूछा कि कहाँ जाना है। मैंने उनसे तहसील चौराहे पर छोड़ने की प्रार्थना की। तहसील चौराहा वहाँ से लगभग दो किमी दूर था। उन्होंने मुझे वहाँ छोड़ दिया।   वहाँ से सुरपुर गाँव (जहाँ शहर का श्मशान है) की ओर रास्ता जाता है, यह मेरी जा