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टुकड़ा-टुकड़ा बादल (कहानी)

       

       वही शाम का वक्त था, सूर्यास्त होने में अभी कुछ देर थी और मैं रोज़ाना के अपने नियम के अनुसार फतहसागर झील की पाल पर टहल रहा था। मन्द-मन्द चल रही हवा झील के पानी में धीमा-धीमा स्पन्दन उत्पन्न कर रही थी। कभी मैं झील की सतह पर प्रवाहित लहरों को निहार लेता था तो कभी मेरी नज़र पाल के किनारे बनी पत्थर की बैन्च पर बैठ गप-शप कर रहे लोगों पर पड़ जाती थी। मैं अपनी दिन-भर की थकान व दुनियादारी के तनाव से मुक्ति पाने के लिए यहाँ टहलने आता था, सेहत बनाने के लिए तेज़ रफ़्तार से वॉकिंग करना मेरा उद्देश्य कतई नहीं था। वैसे भी मैं छरहरी कद-काठी का इन्सान हूँ सो मेरी समझ से मुझे अधिक स्वास्थ्य-चेतना की ज़रुरत नहीं थी।
   
     तो आज भी यूँ ही टहल रहा था कि एक बैन्च पर एकाकी बैठी एक महिला पर मेरी नज़र पड़ी। उस महिला का चेहरा देख कर ऐसा लगा जैसे उसे कहीं देखा है। दिमाग पर ज़ोर लगाकर कुछ याद करने की कोशिश करता, इसके पहले ही मैं कुछ आगे निकल चुका था। उसे पहचानने के लिए तुरत वापस लौटना मुझे ठीक नहीं लगा, सो चलता रहा। मैं पाल के अंतिम छोर तक जा कर वापस लौट रहा था तो वही चेहरा अब भी मेरी नज़रों में घूम रहा था।
 
     लौटते समय वहीं, उसी बैन्च पर मैंने उसे यथावत बैठे हुए पाया। इस बार ध्यान से देखने पर मुझे लगा कि मैं उसे अवश्य पहचानता हूँ। मैं साहस कर के उसके नज़दीक गया और उसके पास ही एक ओर बैठ गया। ध्यान से देखने पर अब मैंने उसे लगभग पहचान लिया था। यह निहारिका श्रीवास्तव थी, जयपुर में मेरे कॉलेज में पढ़ने वाली लड़की, मुझसे एक साल जूनियर! सुन्दर तो यह आज भी है और कॉलेज के दिनों में भी थी, लेकिन उस समय वह इकहरे बदन की एक नाज़ुक लड़की थी। एक बार और उसकी तरफ देखा, मोटी तो नहीं लगती थी पर शरीर के साथ ही उसका चेहरा भी कुछ मांसल हो गया था। मुझे अपनी ओर देखते पाकर उसने भी एक नज़र मेरी ओर देखा और फिर नज़र हटा ली। यही वह चेहरा था जिसने मुझे कॉलेज में उसका दीवाना बना दिया था। मैं उस समय कॉलेज के बीएससी के अंतिम वर्ष में था और वह सैकंड ईयर में थी। मैं नहीं चाहता था कि आज बात करने का यह अवसर खो दूँ, अतः उसके कुछ नज़दीक खिसक कर पूछा- "क्षमा करें, आप निहारिका हैं न?"
     आवाज़ सुन कर चौंक कर उसने मेरी ओर ध्यान से देखा, फिर बोली- जी हाँ, शायद मैं भी आपको पहचान रही हूँ,...धीरज भृगुवंशी?
     "ओह! तो तुमने भी पहचान लिया मुझे!"
     "आप यहाँ आकर बैठे तब तो मेरा ध्यान नहीं गया था, लेकिन आपने मेरा नाम लिया तो पहचान गई। आपके चेहरे और डील-डौल में तो कुछ ज्यादा अंतर नहीं आया है। पर आपने मुझे कैसे पहचाना, मैं तो पहले से बहुत बदल गई हूँ, मोटी हो गई हूँ।" -उसके चेहरे पर मुस्कान थी।
    "नहीं निहारिका, मोटी तो बिलकुल नहीं हो, बल्कि और ज्यादा सुन्दर हो गई हो। हाँ, यह बताओ, क्या उदयपुर में ही रहती हो?"
    "नहीं, जोधपुर रहती हूँ, एक स्कूल में केमिस्ट्री की लेक्चरर हूँ, स्कूल के बच्चों को एजुकेशनल ट्रिप में यहाँ घुमाने लाई हूँ। दो टीचर्स और भी साथ आई हैं। परसों से हम यहीं पर हैं।"
    "तो अन्य दोनों टीचर्स अभी कहाँ है?" -मैंने उत्सुकता से पूछा।
   "वह दोनों बच्चों के पास हैं। हम लोग बच्चों को लेकर दोपहर में यहाँ झील परआई थीं। बहुत ही प्यारी जगह है यह, बहुत सुकून मिला था मुझे यहाँ। एक बार फिर यहाँ आने की इच्छा हुई सो अकेले ही चली आई। आप यहाँ कैसे, आप तो यहीं रहते होंगे?"
 
     मैं उसकी बात सुन भी रहा था और नहीं भी सुन रहा था, खो गया था उसकी खनखनाती आवाज़ में। आज भी निहारिका की आवाज़ में वही पहले वाला जादू है। कितने मधुर स्वर में गाया था इसने कॉलेज के वार्षिकोत्सव में! लड़के तो लड़के, सभी लड़कियां व व लेक्चरर्स  भी मुग्ध हो गए थे, खो गए थे उस स्वर-लहरी में।
    मुझे याद आया वह अतीत, निहारिका के सामीप्य का वह पहला दिन...मेरी वार्षिक परीक्षा में कुल तीन माह शेष थे। मैं किताब इशू करवाने के लिए कॉलेज लाइब्रेरी गया हुआ था। वह किताब जमा करवाने के लिए काउण्टर के पास खड़ी थी और मैं भी पास में ही खड़ा था। काउण्टर पर उस दिन स्टूडेन्ट्स की ज़्यादा ही भीड़ थी। मैंने अवसर देख कर अपनी कोहनी से उसके हाथ को छुआ। उसने कनखियों से मेरी ओर देखा और लाइब्रेरियन से बात करने में व्यस्त हो गई। लाइब्रेरी के दरवाज़े से बाहर निकलते वक्त उसने पलट कर मेरी ओर देखा और चली गई।
     हम लोग कॉलेज कैम्पस में ही अपने-अपने हॉस्टल में रहते थे। वह पहले किसी और शहर में पढ़ती थी। इस साल जयपुर के इस कॉलेज में पढ़ने आई थी। कॉलेज हॉस्टल में एडमिशन लिए उसे पाँच माह लगभग हो गए होंगे। इस घटना के पहले मेरा उस पर कभी इतना ध्यान नहीं गया था, लकिन अब तो मुझे प्रतीक्षा रहने लगी कि कब वह मुझे दिखाई दे! परीक्षा से पहले तीन-चार बार मुझे वह कॉलेज-भवन के गलियारों में दिखी तो पाँच-सात बार कॉलेज कैम्पस में टहलते हुए अपनी सहेलियों के साथ भी दिखाई दी। कई बार तो वह नज़रें चुरा कर निकल जाती थी और कभी मौका मिलता तो हल्का-सा मुस्करा देती। एक-दो बार तो उसने पीछे मुड़ कर भी मेरी ओर देखा भी जब मैं कैम्पस में दोस्तों के साथ टहलता हुआ उसके पीछे की तरफ से आ रहा था। मुझे लगने लगा था कि उसका दिल भी मेरे लिए धड़कता है। दो-एक अवसर तो ऐसे भी आये थे जब हम दोनों एक-दूसरे के सामने से अकेले टहलते हुए निकले थे, लेकिन इतना ही हुआ कि नज़रें मिली और मुस्कराते हुए निकल गए।
     उधर, मैंने उसे सेकण्ड ईयर के एक लड़के के साथ कॉलेज-कैण्टीन में तीन-चार बार गप-शप करते देखा था और एक दिन तो शहर में भी अजमेरी गेट के पास उसी लड़के के साथ देखा था। 'कहीं ... नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।' -मैंने दिमाग में आते विपरीत विचार को झटक दिया था। मेरे दिमाग में फिर भी यह तो रहा ही कि मैं निहारिका से अपने मन की बात कहूँ और उसने इंकार कर दिया तो....इसी 'तो' ने मेरी हिम्मत को तोड़ दिया, क्योंकि मैं 'ना' नहीं सुन सकता था।
 
     उस समय के पिछले वर्ष की वह कहानी मैं भूल नहीं सकता था जब ग्रीष्मावकाश में उदयपुर अपने घर गया था और मुझे पड़ौस में रहने वाली लड़की से प्यार हो गया था। मैंने उससे अपने प्यार का इज़हार किया था और उसने दो टूक शब्दों में मुझे इन्कार कर मेरा दिल तोड़ दिया था। तब से, हाँ तब से मैं 'ना' का सामना करने से डरने लगा।

     पता नहीं यह कैसा प्यार था कि हमारे बीच अभी तक कभी कोई बात तक नहीं हुई थी और मेरे मन में प्यार का पौधा पनप रहा था। निहारिका का तो मुझे पता नहीं, पर मैं निहारिका से बेहद प्यार करने लगा था, अपने-आप से भी ज्यादा।
      एक बार फिर ऐसा वाक़या हुआ कि क्लास-टैस्ट के पहले मैं लाइब्रेरी में बैठा फिजिक्स की एक किताब पढ़ रहा था और साथ ही नोट-बुक में नोट्स भी ले रहा था। अचानक मेरी नज़र पास वाली कुर्सी पर गई तो देखा निहारिका बैठी एक मैगज़ीन के पन्ने पलट रही थी। मैंने एक बार उसकी ओर देखते ही वापस अपनी नज़र किताब में गड़ा दी और व्यस्त होने का अभिनय किया। अब हालत यह थी कि न तो उसकी ओर पुनः देख पा रहा था और न ही पढाई में मन लगा पा रहा था। शायद उसने मेरी मनःस्थिति भांप ली थी अतः दस मिनट की उहापोह के बाद धीमी आवाज़ में मुझे पुकारा। मेरी तो जैसे चेतना ही लुप्त हो गई थी, ऐसा प्रकट किया जैसे कुछ सुना ही न हो। दो मिनट तक जब देखा कि वह दुबारा कुछ नहीं बोल रही है तो मैं ही मन में साहस एकत्रित कर उसकी ओर देख कर बोला- "अरे निहारिका, तुम यहाँ?... यहाँ कब से बैठी हो?" 
    "बस जस्ट अभी आई हूँ।" -उसकी निगाहों में शरारत उभर आई थी, पुनः बोली- "दरअसल मुझे आपसे कुछ रिक्वेस्ट करनी थी"
    "हाँ-हाँ, बोलो। क्या बात है?" -अब मेरा आत्मविश्वास लौट आया था।
    "मैंने आपको डिस्टर्ब किया, सॉरी! हालाँकि अभी कहना कुछ जल्दी होगा, पर...पर मैं यह कहना चाहती थी कि फाइनल एग्जाम के बाद आप...आप अपने नोट्स मुझे दे सकेंगे क्या?"
    "हाँ, बिल्कुल, व्हाई नॉट! मैं अपने सभी नोट्स तुम्हें दे कर ही जाऊँगा।"
    "थैंक्स धीरज जी!"- और वह मीठी-सी मुस्कान बिखेरती हुई लाइब्रेरी से बाहर निकल गई। उसके जाने के बाद मैं फिर वहाँ बैठ कर पढ़ नहीं सका। जब भी किताब के पृष्ठ की ओर देखता, अक्षरों में से झांकती उसकी मुस्कराती आँखें ही नज़र आती थीं। थक-हार कर मैं भी लाइब्रेरी से निकल कर अपने हॉस्टल की ओर चल दिया। 
    वार्षिक परीक्षा नज़दीक थी। सभी लोग अपनी-अपनी पढाई में व्यस्त हो गए थे। मैंने भी अपना पूरा ध्यान पढाई में लगा दिया था। लाइब्रेरी में उस दिन उससे हुई बात के बाद फिर कोई ऐसा संयोग नहीं बना कि उससे मुलाकात हो। कभी-कभी पढाई के बाद जब तन्हा होता था तो, निहारिका मेरे जेहन में आकर मुझे विचलित कर देती थी। यह विचार ही मुझे व्यथित कर देता था कि अब जल्दी ही मेरा कॉलेज छूट जायेगा और मैं फिर कभी निहारिका को देख नहीं सकूंगा।
     मेरे एक सहपाठी दोस्त से मेरे दिल की हालत गोपनीय नहीं रह सकी। शायद उसी से हमारी एक सहपाठी लड़की कामिनी को कुछ भनक लगी थी। वह सब से खुल कर बात कर लेती थी। परीक्षा के दिनों के बीच एक दिन मुझसे बोली- "धीरज, क्या तुम निहारिका के लिए सीरियस हो? उससे बात क्यों नहीं कर लेते?"
     मैंने कुछ जवाब नहीं दिया, केवल मुस्करा दिया। मैं उससे कैसे कहता कि निहारिका कहीं इन्कार न कर दे और 'ना' मैं सुन नहीं सकता।
 
    मेरे गूंगे प्यार की कहानी अधूरी ही रह गई। अपने मन की बात तो मैं क्या कहता, मैं तो निहारिका से दुबारा कभी बात भी नहीं कर पाया था। वार्षिक परीक्षा के बाद कामिनी की मार्फत मैंने अपने नोट्स निहारिका के पास भिजवा दिये और रिटर्न में उसने 'थैंक्स' भिजवा दिया।
    मैं हमेशा के लिए कॉलेज और हॉस्टल छोड़ कर चला आया, साथ लेकर आया तो केवल अकेलापन और निहारिका की याद!

     "धीरज! कहाँ खो गए आप? मैंने पूछा था, आप तो उदयपुर में ही रहते हो न!"
    "हाँ निहारिका, सॉरी! मेरे ग्रेजुएशन के बाद पापा ने अपना ट्रान्सफर उदयपुर करवा लिया था सो हम सब यहाँ आ गए थे। हम लोग यहीं के रहने वाले हैं। यहाँ आने के बाद मैंने एमएससी और फिर एमबीए किया।" -मैंने बताया।
    "ओह, गुड! तो किस विभाग में सर्विस कर रहे हो आप?"
    "मैं बिज़नेस में हूँ निहारिका! दरअसल मैंने दो-तीन विभागों में नौकरी के लिए अप्लाई भी किया था, लेकिन कहीं भी इंटरव्यू के लिए नहीं गया। लास्ट में मैंने अपना इलेक्ट्रॉनिक्स का बिज़नेस शुरू कर दिया और यह बिज़नेस चल निकला। पूरे इण्डिया में में मेरी डीलिंग है।"
    "लेकिन आपने जहाँ-जहाँ भी अप्लाई किया, वहाँ इंटरव्यू क्यों नहीं दिया?"
    "मुझे डर रहता था कि कि कहीं मैं रिजेक्ट न कर दिया जाऊँ, कोई मुझे 'ना' न कह दे। मुझे किसी से भी 'ना' सुनना बिलकुल पसंद नहीं है निहारिका!"
    "यह क्या बात हुई धीरज? ऐसा कैसे संभव है कि हमें कहीं 'ना' सुनना ही न पड़े। फिर आप किसी जॉब के लिए अप्लाई ही क्यों करते थे? केवल इसलिए कि कोई मना कर देगा, क्या हमें कोई प्रयास ही नहीं करना चाहिए?" -निहारिका ने गहरी नज़र से मेरी आँखों में देखा।
    "इसे चाहे मेरी भूल कहो या कुछ और। अगर यह कमजोरी है तो भी यह मेरे व्यक्तित्व का एक हिस्सा है।कॉलेज में भी मुझसे ऐसी ही भूल हुई थी और उसका खामियाजा आज तक भुगत रहा हूँ।...खैर छोड़ो, यह बताओ, तुम्हारे मिस्टर क्या करते हैं, बच्चे कितने हैं?"
    "मैंने शादी नहीं की धीरज!", कुछ रुक कर वह फिर बोली- "आप बताओ, आपके परिवार में कौन-कौन है?"
    कुछ पल मौन रह कर मैंने सामने झील की तरफ सूनी निगाह डाली और फिर उसके चेहरे पर दृष्टि जमा कर बोला- "मैंने भी शादी नहीं की। चार वर्ष पहले पिताजी का देहांत हो गया था। उसके बाद से घर में बस मैं हूँ और मेरी माँ है।"
    "आपने शादी क्यों नहीं की? क्या इसमें भी 'ना' नहीं सुन पाने की विवशता बाधा बन गई थी?" -उसने हँसते हुए सवाल दागा।"
    "परिहास कर रही हो निहारिका! पर सच में ही यही वजह शादी नहीं करने का कारण बनी है।"
    "क्या किसी से प्यार करते थे?" -इस बार निहारिका के चेहरे पर गम्भीरता थी।
    वर्षों से दबी मन की पीड़ा आज उफन गई, रोक नहीं पाया मैं अपने उद्वेग को- "हाँ मैं प्यार करता था।
निहारिका, मैं तुमसे प्यार करता था और इसीलिए आज तक किसी और से शादी नहीं की।"
     स्थिर नज़रों से मेरी तरह देख रही निहारिका के मुख पर आश्चर्य का कोई भाव नहीं आया, मेरे चेहरे से नज़र हटाकर ज़मीन की ओर देखते हुए बोली- "मुझे पता है धीरज! मुझे कामिनी ने एक बार हॉस्टल में कुछ संकेत दिया था, लेकिन जब आपने प्यार का इज़हार करने की आगे बढ़ कर कभी कोई कोशिश ही नहीं की तो मैं लड़की होकर कैसे कह पाती! आप से केवल एक बार ही बात हुई थी और वह भी मैंने ही तो की थी। आपकी ख़ामोशी के बावज़ूद भी पता नहीं क्यों मन आपकी ओर खिंचता ही चला गया था! शायद इसी को पहली नज़र का प्यार कहते हैं। बहुत कोशिश की धीरज, आपको भुलाने की, पर...  ", फिर बात अधूरी छोड़ मेरी ओर देख कर हँसते हुए बोली- "मैं तो आपको तभी से चाहने लगी थी जब आपने लाइब्रेरी में वह हरकत की थी। आपको याद है न लाइब्रेरी का वह दिन?"
     "हाँ, खूब याद है, कैसे भूल सकता हूँ वह दिन? पर क्या तुमने भी इसी वजह से शादी नहीं की कि तुम भी मुझे प्यार करती थी?"
     "हाँ धीरज, कोई और लड़का मेरी नज़रों में चढ़ा ही नहीं फिर।"
     "निहारिका, तुम तो एक लड़के से मिला करती थी न अक्सर?"
     "हा हा हा हा हा" -ज़ोरों से ठहाका लगा कर बोली वह- "अरे वह प्रद्युम्न? वह तो मेरे मामा का लड़का है। आप क्या समझ बैठे थे?"
     "नहीं, ऐसा भी कुछ नहीं।....निहारिका, क्या हम अपनी गलती अब भी सुधार सकते हैं? मैं तुम्हें अब भी बहुत प्यार करता हूँ।"
     "प्यार तो मैं भी आपसे करती हूँ और करती रहूंगी, पर ..."
     "यह आप-आप नहीं, 'तुम' कह कर मुझे सम्बोधित करो न निहारिका।"
     "नहीं धीरज, अब यह सम्बोधन 'तुम' में नहीं बदल पायेगा। अभिव्यक्ति के अभाव में दिल में ही दफ़न हो चुकी उस अनुभूति को पुनर्जीवित करने का कोई अवसर हम नहीं खोज पाए। आज लगभग तीस वर्षों बाद तब मिले हैं जब  मेरे जीवन की दिशा ही बदल गई है। मेरे पास दो बच्चे हैं, दो अनाथ बच्चों को पाल रही हूँ मैं। अब तो वह स्कूल में पढ़ भी रहे हैं। जब तड़पन और तन्हाई ने मेरा जीना दूभर कर दिया तो प्यार को किसी और रूप में पाने के लिए अनाथालय से उन बच्चों को अपने घर ले आई। अब वही मेरी दुनिया है धीरज!"
     "एक बार और गहनता से विचार करना निहारिका, हम कल फिर मिलते हैं यहाँ।" -हताशा से उबरने की कोशिश की मैंने।
     "नहीं धीरज, अब यह संभव नहीं हो सकेगा। कल मैं वैसे ही आप से मिलती, लेकिन सुबह ही हम लोग वापस लौट रहे हैं।"- आकाश की ओर देखते हुए निहारिका ने अपनी बात जारी रखी- " आपके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर पाने का दुःख रहेगा मुझे, लेकिन टुकड़ा-टुकड़ा बादल ही तो है हमारी ज़िन्दगी! किन्ही लम्हों में छिटक कर भटकी हुई ज़िन्दगी! हम अपने उस अतीत को बहुत पीछे छोड़ आये हैं धीरज! कोई और विकल्प नहीं, अब इसी ज़िन्दगी को हमें जीना है।"
      सहसा उठ खड़ी हुई निहारिका और 'चलती हूँ धीरज', कह कर पाल से नीचे उतर कर चल पड़ी। धीरे-धीरे वह झील के किनारे से और मेरी ज़िन्दगी से भी दूर होती, चलती चली गई।
     उसकी दार्शनिकता फ़िलहाल मेरी समझ से बाहर थी। मैं, वहीं बैठा, झील पर घिर आये धुंधले अन्धेरे में कहीं निर्निमेष दृष्टि गड़ाये, उसकी लगातार धीमी होती पदचाप को सुन रहा था।
  ... और वह, अब तक जिससे बचने का मैं प्रयास करता रहा था, उसी 'ना' का उपहार मुझे देकर चली गई।

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