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धुंध से आगे (कहानी)

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     प्रस्तुत है सामाजिक असमानता और उससे मुक्ति की सोच का निरूपण करती मेरी यह कहानी- "धुंध से आगे"
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     नन्हे विशु को उसके खिलौनों के साथ माली के पास लॉन में छोड़कर नीलिमा रसोईघर में चली आई। महरी आज आई नहीं थी सो घर का सारा काम-काज उसे ही निपटाना था। सोचा, विशु थोड़ी देर बाहर खेलता रहेगा तो आराम से कुछ काम कर लेगी। दो बार अम्मा जी (सासू माँ) चाय के लिए कह चुकी थीं सो सबसे पहले चाय बना कर वह अम्मा जी के पास आकर बैठी। शाम के वक्त चाय लेना वह कम पसंद करती है पर आज अकेले-अकेले काम करते थक गई थी तो आधा कप चाय खुद के लिए भी बना ली थी। अम्मा जी बातों की कुछ ज्यादा ही शौक़ीन थीं। इधर-उधर की सौ-पचास बातें नहीं कर लेतीं, चैन नहीं पड़ता था उन्हें। नीलिमा ने अपनी चाय अम्मा जी की बातों के जवाब में 'हाँ-हूँ' करते जल्दी ही ख़त्म कर ली और फुर्ती से वापस रसोईघर में पहुँची। सब्जी सुबह की काटी हुई फ्रिज में रखी थी सो निकाल कर भागौनी में छौंक लगा कर पकने के लिए छोड़ दी। वर्मा साहब (विशु के पापा) आधे घंटे में ऑफिस से आ जायेंगे तो आते ही चपाती सेंक दूंगी, सोच कर नीलिमा ने फटाफट आटा गूंधा। सब्जी तैयार हो गई थी सो बर्नर का स्विच ऑफ कर दिया। 
     बाहर से माली की आवाज़ आई- "मेम सा'ब, जा रहा हूँ मैं।"
   "हाँ ठीक है, लेकिन कल सुबह जब आओ तो सफ़ेद गुलाब की अच्छी-सी कलम तुम्हारे पास वाली नर्सरी से लेते हुए आना, भूलना मत।"
    "हाँ जी मेम सा'ब।" कह कर माली चला गया। जैसे ही माली निकला, नीलिमा को विशु का ख़याल आया, 'अरे विशु तो नीचे लॉन में खेल रहा था, माली के साथ अन्दर नहीं आया, तो फिर कहाँ गया?' वह लगभग भागती हुई बाहर निकली। बाहर लॉन में नहीं था विशु, हे भगवान, कहाँ गया वह!। 'विशु'.....'विशु'- पुकारते हुए उसने फाटक खोल कर बाहर देखा। विशु तो नहीं दिखा पर सामने से वर्मा साहब की कार आती दिखी। नीलिमा थोड़ी बाहर की ओर हुई और वर्मा साहब ने कार अन्दर लाकर पार्क की। 
   "क्या हुआ नीलिमा?"
   "अरे, विशु को यहाँ माली काका  के पास लॉन में छोड़ गई थी, पता नहीं कहाँ चला गया।"
   "माली कहाँ है?"- वर्मा साहब ने चिंतित हो कर पूछा। 
   "वह तो गये घर। विशु कभी घर से बाहर निकलता तो नहीं है पर फिर भी दायीं बाजू कुम्हार के घर में देख लेते हैं, नहीं तो पुलिस में रिपोर्ट करते हैं।"- घबराई हुई नीलिमा कुम्हार के घर की ओर बढ़ी। पीछे-पीछे वर्मा साहब भी गए। 
    दोनों ने कुम्हार के घर के बाहर से चौक में झांका तो वहाँ उसके दो बच्चों के साथ विशु मिट्टी में बैठा खिलखिला रहा था और उनके साथ  मिट्टी के खिलौनों से खेल रहा था। विशु को इतना खुश नीलिमा ने पहली बार देखा था। उसने आवाज़ लगाई तो विशु भागता हुआ उनके पास आया, उसके हाथ में मिट्टी से बना खिलौना, छोटा-सा हाथी था।
  "यहाँ क्या कर रहा है रे विशु"- कुपित हो कर नीलिमा बोली।
  "मेरे दोस्त के साथ खेल रहा हूँ मम्मी!"- नन्हे विशु के मुख पर उल्लासपूर्ण मुस्कराहट थी।
  आवाज़ सुन कुम्हारिन अपने कमरे से बाहर आई। उसके दोनों बच्चे उससे लिपट गए। नीलिमा ने विशु को खिलौना हाथी उन बच्चों को लौटाने को कहा। विशु रुआंसा होकर नीलिमा का मुंह देखने लगा। 
   "मेम सा'ब, रहने दो। बच्चा है, खेलेगा। वैसे भी क्या बखत है इस मिट्टी के खिलौने की।"- कुम्हारिन ने नम्र स्वर में कहा। नीलिमा ने कोई जवाब नहीं दिया। 
   वर्मा साहब ने भी कुछ कहना उचित नहीं समझा। दोनों विशु को लेकर घर आ गए। 

   वर्मा साहब एक एमएनसी में ऊँचे ओहदे पर काम करते थे, विशु का निचले स्तर के बच्चों के साथ खेलना अच्छा नहीं लगा। विशु से तो कुछ नहीं कहा पर नीलिमा को आगाह किया- "ध्यान रखा करो, आगे से विशु उन बच्चों के साथ नहीं खेले।" 
   नीलिमा खामोश रही। अगले दिन भी महरी नहीं आई तो वाशिंग मशीन से कपड़े निकाल कर सुखाने के लिए नीलिमा को ही छत पर जाना पड़ा। सुबह के ग्यारह बज रहे थे। कपड़े सुखाते वक्त उसकी नज़र कुम्हार के घर के चौक पर पड़ी, चौंकी वह- 'अरे, यह विशु कब चला गया वहाँ! सुबह-सुबह कब गया, पता ही नहीं चला। वर्मा साहब को पता लगेगा तो कितने नाराज़ होंगे वह!' छत से नीचे उतरने वाली ही थी वह कि विशु की हँसी की आवाज़ सुनाई दी। नीलिमा रुक गई दो मिनट के लिए और बच्चों की गतिविधि देखने लगी। विशु दोनों बच्चों के साथ कभी भाग रहा था तो कभी उछल-कूद कर रहा था। कुम्हारिन का बेटा विशु का हमउम्र था, लगभग तीन वर्ष का और बच्ची साल-डेढ़ साल बड़ी होगी। 
   नीलिमा सोच रही थी, 'विशु अकेला घर में बड़ा एकाकी महसूस करता है, इन दो दिनों में ही इनका साथ पाकर कितना खुश हो चला है! सामाजिक या आर्थिक स्तर तो हम समझदार कहे जाने वाले लोगों के दिमाग की उपज है, बच्चों के लिए तो छोटा-बड़ा कुछ भी नहीं होता। कितना निश्छल और उन्मुक्त भाव से खेल रहे हैं यह बच्चे! पहले सोचा था कि बुला कर डाटती हूँ विशु को, पर नहीं, खेलने दूंगी उसे यूँ ही। कभी यूँ खेल लेगा तो क्या बिगड़ जायेगा, पाँच-छः माह में तो वैसे भी उसे स्कूल में भर्ती कराना है। गरीब है यह परिवार, पर लोग तो ठीक ही लगते हैं। कुम्हारिन भी कल कितना अच्छे से बोल रही थी। समझा दूंगी वर्मा साहब को धीरे से।'
 
    लंच का समय होने को था, विशु घर लौट आया था। आकर अपने खिलौनों को मेज पर फैला कर करीने से जमा रहा था कि नीलिमा की नज़र खिलौनों पर पड़ी। अभी पिछले सप्ताह ही एक बैटरी से चलने वाली कार विशु को दिलवाई थी, वह गायब थी। पूछा तो विशु मुस्कराते हुए सरलता से बोला- "डब्बू को अच्छी लगी थी तो कल मैंने उसे दे दी।" 
   'ओह, तो इसलिए कुम्हारिन ने राजी-राजी मिट्टी का खिलौना विशु को लेने दिया था। कितनी मक्कार है वह! वर्मा साहब की सोच सही तो थी, छोटे लोग, छोटे ही होते हैं!'- आक्रोशित हो उठी नीलिमा मन ही मन। 

  दस मिनट बाद दरवाज़े की घंटी बजी। 'वर्मा साहब आ गए लगते हैं, अच्छा हुआ लंच साथ में हो जायगा', सोचते हुए नीलिमा ने दरवाज़ा खोला। उसने देखा, सामने कुम्हारिन खड़ी थी। 
   "तुम?"- चौंकी नीलिमा। 
   "माफ़ करना मैडम जी, विशु भैया ने यह खिलौना डब्बू को दिया था, मुझे अभी पता चला सो लौटाने आई हूँ। डब्बू भी बच्चा ही तो है, उसने ले भी लिया। बहुत डाटा मैंने उसको।"- वही बैटरी चालित कार विशु के हाथ में देते हुए कुम्हारिन ने कहा। 
    'उफ्फ! कुम्हारिन के बारे में कितना हल्का सोच लिया था मैंने? क्यों किसी के बारे में राय कायम करने में इतने जल्दबाज हो जाते हैं हम? सिर्फ गरीब होने से कोई बेईमान तो नहीं हो जाता!' अपनी घटिया सोच पर बहुत अनुताप हुआ नीलिमा को, प्रकट में बोली- "अरे नहीं, बच्चा है डब्बू भी तो, खेलेगा वह इससे...और फिर विशु ने भी तो अपनी मर्जी से दिया है यह खिलौना।"
   "नहीं मैडम जी, रहने दीजिये, बहुत ज्यादा मंहगी होगी यह कार तो।"
   "अरे, इतना मत सोचो....बेटा विशु, दे दो यह कार डब्बू के लिए।" 
    विशु खुश हुआ, कार डब्बू की माँ के हाथों में थमा दी। 
  कुम्हारिन ने झिझकते हुए वह खिलौना लिया और प्यार भरी नज़रों से विशु की ओर देखते हुए नीलिमा को हाथ जोड़ कर बाहर निकल गई।
     नीलिमा ने विशु को ऊपर उठा कर प्यार से चूम लिया। 
    "कौन आया है? क्या हुआ? किस से बात कर रही है नीलिमा?"- भीतर से अम्मा जी ने पूछा।
   "कुछ नहीं अम्मा जी, विशु के दोस्त की माँ आई थी।"- नीलिमा के मन पर छाया काली धुंध का आवरण हट गया था।
                                             

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टिप्पणियाँ

  1. जी बहुत सुंदर और बहुत अचछे विचार पर अब ज़माना बदल रहा है ख़ासकर बडे शहरों मे . वहाँ अब छोटे बड़ों का मेल मिलाप कम हो रहा है .

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  2. सराहना के लिए बहुत शुक्रिया सुरेश जी! आपका कथन एकदम सही है और इसीलिए एक छोटा-सा प्रयास है यह मेरा इस विचार के साथ कि कुछ लोग तो ऐसे कथानकों से प्रेरित हों.

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