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किरायेदार (कहानी)


   "कल तक मुझे किराया मिल जाना चाहिए। तीन महीने हो गए किराया दिए हुए, यह भी कोई तरीका होता है?  कल तक किराया दे दो और मकान ख़ाली कर दो, नहीं तो आपका सामान बाहर फेंक दूंगा।"- लगभग चिल्लाते हुए रमण लाल ने अपनी किरायेदार श्रीमती कौशल्या को आगाह किया।
  "भाई साहब, एक सप्ताह का समय और दे दीजिये। मेरे बेटे की तनख्वाह रुकी हुई थी, अब तीन-चार दिन में मिल जायगी और वह मेरे बैंक-खाते में ट्रान्सफर कर देगा। उसका कल ही मेसेज आया है।"- कौशल्या शर्म से ज़मीन में गड़ी जा रही थी क्योंकि पड़ौस के मकान से पड़ौसी भी झाँक कर उनकी बातें सुन रहा था।
  "मुझे इन बातों से कोई मतलब नहीं, मुझे तो मेरा किराया चाहिए।" -कह कर रमण लाल अपने कमरे में चले गये।

  रमण लाल सरकारी नौकरी में थे। वह जो कुछ कमाते थे, उसमें से ज़्यादा कुछ बचा नहीं पाते थे। घर का खर्च, तीन बच्चों की पढ़ाई का खर्च और ऊपर से इतनी महंगाई, बचाते भी तो क्या और कैसे! स्वास्थ्य लगातार खराब रहने से अभी दो साल पहले ही निर्धारित उम्र से बहुत पहले रिटायरमेंट ले लिया था। तीन बच्चे थे और तीनों ही बाहर अपनी-अपनी गृहस्थी में व्यस्त थे। तीनों ही बच्चों को तनख्वाह इतनी नहीं मिलती थी कि बचा कर कुछ घर भेज सकें।

   रमण लाल अपने कमरे में जाकर पत्नी सुलोचना के सामने अपनी पीड़ा व्यक्त करने लगे- "ज़िन्दगी भर की बचत और  रिटायरमेंट के बाद जो कुछ मिला उससे तीन कमरों का यह मकान बनवाया तो यह सोच कर कि एक कमरा-किचन किराये पर दे देंगे। अब किरायेदार किराया भी टाइम से नहीं दे तो घर का खर्च कैसे चलेगा। पेंशन भी तो बहुत कम मिलती है।"
  "आप परेशान मत होओ जी! दे देगी, बेचारी के पास अभी पैसा नहीं होगा। आप बैठो, मैं पांच मिनट में खाना लगाती हूँ।"- सुलोचना किचन की ओर जाते हुए बोली।
  "खाक़ दे देगी, दो महीने से चक्कर कटवा रही है।" -आरामकुर्सी में धँसते हुए रमण लाल भुनभुनाये।
   रमण लाल बुरे व्यक्ति नहीं थे, बस गुस्सा उन्हें जल्दी आ जाता था। कुर्सी पर बैठे-बैठे पांच मिनट बाद गुस्सा ठंडा हुआ तो उन्हें अपने व्यवहार पर पछतावा होने लगा -'नाहक ही कौशल्या जी को इतनी कड़वी बात कह दी। कल ही जाकर उनसे क्षमा मांग लूँगा। अभी तीन महीने पहले तक तो वह बराबर किराया दे ही रही थी। दे देंगी पांच-सात दिन में, कहाँ जाता है किराया!'-और सर को झटक दिया उन्होंने, जैसे सारा दिमागी कचरा झटक देना चाहते हों।

    किरायेदार कौशल्या एक संभ्रांत महिला थी, नया मकान बन रहा था सो यहाँ किराये पर रह रही थीं। परेशान होकर सोच रही थीं, 'जल्दी ही बेटा पैसा भेज दे तो फिर दुबारा यह सब नहीं सुनना पड़े। वह पड़ौसी भी क्या सोच रहा होगा! पैसा आ जाये तो मकान का काम भी चालू हो जाय, जो दो महीने से रुका हुआ है।'

    रमण लाल को क्षमा माँगने का मौका नहीं मिल सका क्योंकि देवयोग से अगली ही सुबह सात बजे हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गई। समाचार सुन कर पास-पड़ौस के लोग तथा रिश्तेदार इकठ्ठा होने लगे। रमण लाल के साले ने तीनों बच्चों को भी सूचना दे दी। रमण लाल की पत्नी बेतहाशा रो रही थी और कुछ महिलाऐं उन्हें तसल्ली दिलाने की कोशिश कर रही थीं।

   'कैसे हो गया, क्या हो गया?' लोग आपस में दुनियादारी कर रहे थे।
  "अभी तीन दिन पहले ही तो बाज़ार में मिले थे, अच्छे-भले लग रहे थे"- किसी ने कहा।
   कोई बोला- "भई, ज़िन्दगी का कोई ठिकाना नहीं, कब क्या हो जाये।"
   एक ने अपनी होशियारी दिखाई- "बीमार भी तो रहते थे अक्सर! बच्चे इनके अपने हाल में मस्त हैं, यह दोनों बेचारे यहाँ पड़े हैं। कभी आकर हाल-चाल भी तो नहीं पूछते।"
    पड़ौसी, जिसने कल की इनकी खिच-पिच देखी थी, मन ही मन कह रहा था, 'क्या साथ ले जाना था! कल इतनी सारी बातें सुना दी बेचारी किरायेदार को! किस्मत भी तो ख़राब ही थी इनकी, अभी तीन दिन पहले ही तो इनका बड़ा बेटा आ कर गया है और इतने में यह हो गया।'
     उधर किरायेदार, कौशल्या अपराध-बोध से ग्रस्त, अपनी विवशता पर दुःखी हो रही थीं कि काश! पैसा समय पर आ जाता तो रमण लाल जी को किराया चुकता कर देती! भले आदमी थे बेचारे, अब तीन महीने से किराया नहीं दे सकी थी तो नाराज़ तो होते ही न! मन में मेरे प्रति शिकायत ओर गुस्सा लेकर चले गए।'

     कौशल्या तो अभी भी रमण लाल के मकान में किरायेदार के रूप में काबिज़ थी, लेकिन रमण लाल की आत्मा जिस मकान को छोड़ कर चली गई थी, लोग उसकी अंतिम क्रिया की तैयारी कर रहे थे।  

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