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साहस के कुछ कदम और...

   आज अपने शहर के व्यस्ततम चौराहे से निकलते हुए मैं अपनी कार को बांयीं ओर मोड़ने जा रहा था और इसके लिए मुड़ने का संकेत भी दे चुका था लेकिन मेरी कार के बांयें से आ रहे वाहन जिन्हें सीधा सामने की ओर जाना था, लगातार निकले चले जा रहे थे। मैंने कार को कुछ बांयीं ओर मोड़ा भी लेकिन फिर भी पीछे से आ रही एक और कार ने कुछ बांयें होते हुए अपनी कार को आगे बढ़ा ही दिया। मेरा आक्रोश सीमा लांघ रहा था। एकबारगी तो इच्छा हुई कि उस कार से भिड़ा ही दूँ, लेकिन ऐसा कर नहीं सका मैं। मेरे विवेक ने सावधान किया मुझे कि यदि मैंने ऐसा किया तो मेरी कार को भी क्षति पहुंचेगी।    ऐसी ही बानगी हमारे प्रधानमंत्री जी की विवशता के मामले में नज़र आती है। अभी हाल पांच सौ और एक हज़ार रुपये के नोटों को अचानक चलन से बाहर कर देने की घोषणा कर उन्होंने जो अप्रतिम साहस दिखाया है, क्या ऐसा वह अन्य वांछनीय क्षेत्रों में कर सकते हैं?...शायद नहीं।    प्रधानमंत्री की उपरोक्त घोषणा से जनता में खलबली मच गई। बड़े नोटों से भरे भंडारों के स्वामी भी कुलबुला गए तो मान्य मुद्रा (छोटे नोट) की कमी के चलते दैनिक जीवन-यापन की सामग्री का जुगाड़ न कर प

सर्वमान्य मुद्दा

       हमारे देश की संसद में कुछ मुद्दे (प्रस्ताव या सिफारिशें ) ऐसे होते हैं जो विवाद के विषय नहीं होते, सर्वमान्य होते हैं। पक्ष ने सुझाया तो भी मान्य और विपक्ष ने सुझाया तो भी मान्य। बात अजीब सी लग सकती है, लेकिन है सही। सन्दर्भ है मेरे द्वारा यहाँ साझा (copy-paste) की गई खबर!    पहले हम 'सर्वमान्य' मुद्दे के मूल को समझें - प्रजातन्त्र को परिभाषित किया जाता है - "जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता का।  ठीक इसी तरह संसद में पारित सर्वमान्य फैसले के बारे में कहा जा सकता है - माननीयों के द्वारा, माननीयों के लिए, माननीयों का।    जिस फैसले के प्रति सभी (पक्ष के भी, विपक्ष के भी) माननीय एकमत हों, वह सर्वमान्य और अंतिम फैसला तो हो ही जाता है, क्योंकि अन्य 'अमाननीयों' को तो विरोध करने का अधिकार है नहीं। ('अमाननीयों' के सभी अधिकार तो वोट देने मात्र तक ही सीमित होते हैं।)   अतः अविवादित मुद्दे पर विवाद खड़ा करना मेरा उद्देश्य नहीं होना चाहिए, है भी नहीं। मुझे तो इस खबर में निहित विसंगति पर हैरानी है। राष्ट्रपति के लिए प्रस्तावित रु.५ लाख का मासिक वेतन

क्या यह सब-कुछ चौंकाने के लिए पर्याप्त नहीं?

     हमारे देश की जनसंख्या हमें प्राप्त जानकारी के अनुसार 1.25 (सवा)अरब के लगभग है और मेरे द्वारा शेयर की गई निम्नांकित खबर के अनुसार 1.7 अरब आधार कार्ड देश में जारी किये जा चुके हैं। मौजूदा कानून के अनुसार एक वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए आधार कार्ड बनवाया नहीं जा सकता और हालात जब यह हैं कि शत-प्रतिशत वयस्कों ने ही अपने आधार कार्ड नहीं बनवाये हैं तो आधार कार्ड बनने की शुरुआत के बाद पैदा हुए समस्त (लगभग एक करोड़) शिशुओं के आधार कार्ड बनवा लिए गए हों, इतनी जागरूक तो इस देश की जनता है नहीं। पहला आधार कार्ड सितम्बर, 2010 में बना था। तो फिर जनसंख्या और बनाये गए आधार कार्ड के आँकड़ों के अनुसार भारत के लगभग 45 करोड़ व्यक्ति आधार कार्ड बनवाने के बाद पिछले छः वर्षों में दिवंगत हो चुके हैं। क्या ऐसा सम्भव है? क्या यह सब-कुछ चौंकाने के लिए पर्याप्त नहीं?

केजरीवाल जी के नाम सन्देश---

   आ. केजरीवाल जी, मैं जो कुछ लिख रहा हूँ शायद आपको रुचिकर न लगे, लेकिन लिखूंगा ज़रूर।    कई दिनों से मैं देख रहा हूँ कि प्रधानमंत्री मोदी जी के प्रति आपका व्यवहार कुछ ज़्यादा ही तल्ख़ हो रहा है। अब देखिये, मैं आप से उम्र में बड़ा हूँ फिर भी आपके ओहदे, आपके रसूख, आपकी ईमानदार छवि और उससे भी बढ़कर आपकी काबिलियत के मद्देनज़र आपकी बहुत इज़्ज़त करता हूँ और यह आपके प्रति मेरे सम्बोधन से भी स्पष्ट है।    तो केजरीवाल सा., आपके राजनैतिक प्रतिद्वन्दी मोदी जी उम्र में, राजनैतिक अनुभव में और पद में आपसे बहुत बड़े हैं और न केवल यह कि एक बड़ा जन-समुदाय उनमें प्रगाढ़ आस्था रखता है, बल्कि यह भी कि वह देश के प्रधानमंत्री हैं। मानता हूँ, और आपके आलोचक ऊपर से मानें न मानें, जानते ज़रूर हैं कि केन्द्र ने आपको दिल्ली की राजनीति में पंगु सत्ताधारी बना रखा है (और ऐसा क्यों न हो, आपने प्रचण्ड बहुमत के साथ दिल्ली-चुनाव जो जीता था)। आप अपनी विशाल सेना के बावजूद खुल कर काम नहीं कर पा रहे हैं, उपराज्यपाल के माध्यम से विघ्न भी डाले जा रहे हैं लेकिन, आप मोदी जी के प्रति असम्मानजनक व्यवहार में ही अपना समाधान क्यों देख र

पाकिस्तान के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही

उरी (कश्मीर) में सैन्य शिविर पर अभी हुए आतंकी हमले में 17 जवान शहीद हो गए। निरन्तर हो रहे अनुत्तरित प्रहारों के आघात से देश की आत्मा कराह उठी है, देश का जन-मानस उद्वेलित है। वतन की रक्षा के लिए तैनात फौजियों की फड़कती भुजाएँ पैरों में पड़ी बेड़ियों के हटने कीे प्रतीक्षा कर रहीं हैं, लेकिन हमारे राजनैतिक कर्णधार दिशाविहीन हैं... फिर भी जन-आक्रोश को देखते हुए एक उच्चस्तरीय बैठक में पाकिस्तान के सिरुद्ध कड़ी कार्यवाही के लिए विचार-विमर्श हुआ है। लगता है इस बार पाकिस्तान की शामत आ गई है और...और उसे हमारी ओर से अब तक के सबसे कड़े शब्दों के प्रहार को झेलना होगा।

हमें यह जानने की आवश्यकता है...

ऑस्ट्रेलिया-भारत महिला हॉकी मैच! मैच आज सायं 7. 30 बजे प्रारम्भ हुआ। ऑस्ट्रेलिया ने इकतरफा अंदाज़ में गोल करना शुरू किया- एक...दो...तीन...चार...पाँच और फिर मैच समाप्त होने के कुछ मिनट पहले छठा गोल! निरीह भारतीय टीम बदहवास सी हो उठी थी। केवल तीसरे क्वार्टर में ही हमारी टीम कुछ संघर्ष दिखा सकी थी। पूरे मैच में जैसे ही 'डी' के पास हमारी कोई फॉरवर्ड पहुंचती, या तो विपक्षी द्वारा बॉल छीन ली जाती या उसको सहयोग देने के लिए कोई एकाध साथी खिलाड़ी ही वहां मौज़ूद दिखाई देती थी। सफलता मिलती भी तो कैसे? न तो सही पास देना हमारी खिलाडियों के बस का दिख रहा था और न ही विपक्षी खिलाड़ियों जैसा स्टेमिना ही इनमें था। छठा गोल होने के बाद मैच की समाप्ति से लगभग 15 सेकण्ड पहले कातर स्वरों में मैं ऑस्ट्रेलियन टीम से कह पड़ा- 'रहम...रहम ! रहम करो हमारी टीम पर, एक गोल तो करने दो हमें अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए !' और तब जाकर उन्होंने एक गोल करने दिया हमारी टीम को मैच-समाप्ति के 8 सेकण्ड पहले। अब जाकर टीम इण्डिया के फीके चेहरे पर थकी-थकी मुस्कान की एक रेखा झलकी। न...न...न.....!  सारा दोष खिलाड़ियों

मेरे शहर के मवेशी

शहर की यातायात व्यवस्था को दुरुस्त रख रहे हैं मेरे शहर के मवेशी। उन छोटे-छोटे चौराहों-तिराहों पर जहाँ यातायात-कर्मी नहीं होते हैं, मवेशी बीचों-बीच बैठकर दाएं-बाएं का यातायात व्यवस्थित रखते हैं और कहीं-कहीं तो सड़क के बीच कतार में खड़े हो कर या बैठ कर बाकायदा डिवाइडर भी बनाये रखते हैं। सड़कों पर बेतहाशा दौड़ रहे वाहनों की तीव्र गति को सीमित करने के लिए यदा-कदा यह मवेशी सड़कों पर इधर-उधर टहलते भी रहते हैं। प्रशासनिक अधिकारी भी सन्तुष्ट हैं संभवतः यही सोच कर कि यातायात-व्यवस्था की देख-रेख में इतनी मुस्तैदी तो यातायात-कर्मी भी नहीं दिखा पाते हैं। तो दोस्तों, आओ और देखो हमारे शहर की इस सुव्यवस्था को... 'दो दिन तो गुज़ारो हमारे शहर में ***********