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संदेश

एक पत्र प्रधानमंत्री जी के नाम.…

माननीय प्रधानमंत्री जी, बहुत तकलीफ़ होती है मुझे, जब देखता/सुनता हूँ - 1) जब शहर के चौराहे पर खड़े हुए यातायात-कर्मी (सिपाही) तथा कानून को धत्ता बताते हुए हेलमेट पहनने को अपनी तौहीन समझने वाले कुछ सभ्य (?) दुपहिया-चालक लाल-बत्ती की भी परवाह किये बिना निर्धारित से कहीं अधिक गति से चलते हुए चौराहा पार कर जाते हैं। (ड्यूटी पर मौजूद सिपाही खिसियाकर मजबूरन इसे अनदेखा कर देता है।) 2) हमारी शान्तिपूर्ण व्यवस्था एवं जीवन की सामान्य गतिशीलता को अस्त-व्यस्त या नष्ट करने के लिए विध्वंसक आक्रमण कर रहे विदेशी आतंककारी या कुछ पथभ्रष्ट देश के ही नागरिकों (यथा नक्सली अथवा सामान्य अपराधी-गैंग) के विरुद्ध प्रतिरक्षा तथा प्रत्याक्रमण के लिए भेजे गये सुरक्षा-बल के साथ मुठभेड़ में परिणाम कुछ इस तरह का मिलता है-  'हमारे सात बहादुर सिपाही/ पुलिस अधिकारी शहीद हुए, लेकिन दो आतंककारियों को मार गिराया गया। मौके से आठ आतंककारी भाग निकतने में सफल रहे, जिनकी तलाश की जा रही है।'  3) सीमा पर पाकिस्तानी जब युद्ध-विराम का उल्लंघन कर गोलीबारी करते हैं और हमारे सैनिकों के जवाबी हमले के बाद समा

छोटी सोच छोड़ो ...

  'अनाज महँगा, दालें महँगी, सब-कुछ महँगा …अच्छे दिन नहीं आये अभी तक, मोदी जी ने गच्चा दे दिया, फरेब किया हमारे साथ'- यह कह-कह कर मोदी जी को कोसने वाले अपनी बुद्धि का प्रयोग क्यों नहीं करते?    भैया जी, अपनी छोटी सोच छोड़ो और और आँखें खोल कर बाहर झांको! देखो, सोना कितना सस्ता हो गया है! कुछ ही महीनों में सात हज़ार रू. तक की कमी आ चुकी है इसके भाव में। जरा-सी होशियारी लगाओ और फिर देखो महँगाई कहाँ अड़ती है! करना केवल यह है कि अभी दाल-सब्जी खाना बिल्कुल बंद कर दो और दस-बीस तोला सोना खरीद लो। अगले आम चुनावों के कुछ पहले जब दाल, सब्जी, प्याज़, वगैरह सस्ते हो जाएँ तब खा लेना मज़े से, कौन रोकता है! 

कौन ज़िम्मेदार है...

    कौन ज़िम्मेदार है रेलवे के ताज़ा इंटरसिटी- हादसे में हुए नुकसान के लिए ? राहगीरों और वाहनों के निरन्तर प्रवाह वाली व्यस्त सड़कों पर भी इसी तरह आवारा पशुओं (गायें, भैंसें, कुत्ते, आदि) का जमावड़ा हर समय लगा रहता है जो गाहे-बगाहे कई हादसों का सबब बनता है। त्रस्त जनता अपने किसी प्रिय को या तो अस्पताल में पाती है या कभी उसे हमेशा के लिए खो देती है। कभी सरकारी मुहिम चलने पर आवारा पकड़े गए पशुओं के मालिक मामूली सी पेनल्टी चुका कर अपने पशुओं को छुड़ा लेते हैं और आगे पुनः बेशर्मी का यह आलम कायम रहता है।  समझ से परे  है कि प्रशासन इस मुद्दे पर गम्भीर क्यों नहीं हो पाता। यदि क़ानून कमज़ोर है तो उसे बदला जाय और ऐसी सख्ती की जाये कि पशुओं के मालिक फिर कभी पशुओं को यूँ खुला छोड़ने की जुर्रत न कर सकें। जब सुसंस्कृत अन्य देशों में कोई भी आवारा पशु सार्वजनिक स्थानों पर कभी दिखाई नहीं देता, तो हमारे देश में ऐसी कौन सी विवशता है कि इस समस्या का हल नहीं निकल पा रहा है। केवल और केवल एक ही कारण प्रतीत होता है इसके पीछे और वह है वोटों की राजनीति के चलते राजनेताओं में इच्छा-शक्ति का अभाव ! मैं इस

यह अमानवीय नज़ारा....

   क्या हो गया है मेरे देश को चलाने वाले कर्णधारों की संवेदनशीलता को ? देश में कैसी भी अनहोनी हो जाय, कैसा भी अनर्थ हो जाय, क्या किसी के भी कानों में जूँ नहीं रेंगेगी ? जनता के धैर्य की परीक्षा कब तक ली जाती रहेगी ?    अपनी किशोरावस्था में मैंने जासूसी उपन्यासों में पढ़ा था कि शहर में दो-तीन अस्वाभाविक मौतें होते ही पुलिस-विभाग में तहलका मच जाता था। पुलिस के आला अधिकारी अपने मातहतों को एक बहुत ही सीमित अवधि का समय देते हुए बरस पड़ते थे कि गृह मंत्री को क्या जवाब दिया जाएगा ! बहुत अच्छा लगता था, जब पुलिस अधिकारी / जासूस बहुत ही काम समय में अपराधी को ढूंढ निकालते थे।    यह सही है कि कहानियों के आदर्श नायक, वास्तविक दुनिया में कभी-कभार ही मिला करते हैं, लेकिन दिन-ब-दिन जिस तरह से नायक के भेष में खलनायकों का इज़ाफ़ा हो रहा है, उसे देखते हुए देश के भयावह भविष्य की कल्पना की जा सकती है। आज के समय में अपराधी, पुलिस और नेताओं का जो दोस्ताना गठजोड़ पनप रहा है और दूसरी ओर जिस तरह से न्याय-व्यवस्था को पंगु बनाने का प्रयास किया जा रहा है, उसके चलते एक आम आदमी को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अब के

कब तक चलेगा यह सिलसिला...

     27 नवम्बर, 1973 की वह काली रात, जब मुंबई के केईएम अस्पताल में चौबीस वर्षीया नर्स अरुणा शानबाग के साथ अस्पताल के ही वार्ड ब्वॉय सोहनलाल भरथा वाल्मीकि ने दुष्कर्म किया था। दुष्कर्म के बाद उस बहशी दरिंदे ने कुत्ते की चैन से अरुणा का गाला घोंटने का प्रयास भी किया था। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मस्तिष्क में ऑक्सीजन नहीं पहुँचने से अरुणा कौमा में चली गई। वाल्मीकि पकड़ा गया, लेकिन उसे केवल हमले और लूटपाट का अपराधी ठहराया जाकर मात्र सात वर्ष की सजा मिली और सजा काटकर वह जेल से मुक्त हो गया। उसके दुष्कर्म का अपराध हमारे योग्य (?) पुलिस अधिकारियों की जाँच-प्रणाली और आदर्श क़ानून की पेचीदगियों में उलझ कर खो गया। स्त्री होने का अपराध झेलती मासूम अरुणा ने भी 42 वर्षों का मौत से बदतर जीवन बिताकर आखिर में मुक्ति पाई और दि.18 मई, 2015 को उसने अपनी अन्तिम श्वांस ली।     इतने वर्षों तक सुध नहीं लेने वाले परिजनों को अरुणा का शव नहीं सौंपा गया और उनकी मौजूदगी में अस्पताल के स्टाफ ने अरुणा का अन्तिम संस्कार किया।    अरुणा चली गई...अरुणा से जुड़ी यादें भी ऐसे ही अन्य कई हादसों की तरह समय की परतों में ध

प्यार क्या है …?

      बायोलॉजिकली ह्रदय में चार प्रकोष्ठ होते हैं, लेकिन इस बात पर पूरा यकीन नहीं मुझे! मेरे हिसाब से ह्रदय में हजारों प्रकोष्ठ होते हैं तभी तो हम दुनिया के सभी रिश्तों से प्यार कर पाते हैं। हमें कोई भी नया रिश्ता जोड़ने के लिए ह्रदय का कोई कोना खाली नहीं करना पड़ता। वहाँ जगह बनती ही चली जाती है हर नए रिश्ते के लिए।     यह भी सही है (मुझे ऐसा लगता है) कि यदि हमारा प्यार सभी रिश्तों के लिए सच्चा है तो यह कह पाना मुश्किल है कि हम किसे अधिक प्यार करते हैं और किसे कम। हम या तो किसी से प्यार करते हैं या नहीं करते हैं- यही सत्य है। प्यार ही है जो हमें रिश्तों में बांधता है चाहे वह खून का रिश्ता हो चाहे मित्रता का। कभी यह रूमानी होता है तो कभी रूहानी। क्या खूब कहा है किसी ने-'प्यार किया नहीं जाता, प्यार हो जाता है।' और, एक शायर के अनुसार- 'प्यार बेचैनी है, मजबूरी है दिल की, इसमें किसी का किसी पर कोई एहसान नहीं।'     सम्बन्धों का एक नाज़ुक धागा होता है प्यार, चाहे वह माता-पिता और सन्तान के बीच हो, भाई और बहिन के बीच हो, पति और पत्नी के बीच हो या मित्रों के मध्य

बहुत हो गया...

   गहन अध्ययन और शोध के उपरान्त यह तथ्य उजागर हुआ कि भक्तों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-    1) सामान्य भक्त                   2) अन्ध भक्त     तो मित्रों, सन्दर्भ है अभी हाल ही दिल्ली में हुए चुनावों का। चुनाव के परिणामों के बाद सामान्य भक्तों ने वस्तु-स्थिति को समझा, गुणावगुणों के आधार पर अपने भक्ति-भाव की समीक्षा की और अन्ततः सत्य को स्वीकार कर केजरीवाल की विजय का स्वागत भी किया। सत्य की राह पर आने के लिए उन्हें हार्दिक बधाई!    अन्ध भक्त अखाड़े में उतरे उस दम्भी पहलवान के समान हैं जो चित्त होने के बाद भी अपनी टांग ऊँची कर कहे कि वह हारा नहीं है। यह लोग 'खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे' के ही अंदाज़ में अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं मानो सच्चाई को ही बदल देंगे। इनको कोई समझाए कि वह उनके नेताओं के झूठ, चापलूसी व अकर्मण्यता से उपजी विफलता को समझें और स्वीकारें।    जितना झूठ और विष केजरीवाल के विरुद्ध उंडेला गया, जितनी भ्रान्तियाँ उनके विरुद्ध फैलाई गईं, उसके कारण जनता में उपजा आक्रोश केजरीवाल को प्राप्त होने वाले वोटों में तब्दील होता चला गया। इसीलिए हालत यह हो गई है कि