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संदेश

यह अमानवीय नज़ारा....

   क्या हो गया है मेरे देश को चलाने वाले कर्णधारों की संवेदनशीलता को ? देश में कैसी भी अनहोनी हो जाय, कैसा भी अनर्थ हो जाय, क्या किसी के भी कानों में जूँ नहीं रेंगेगी ? जनता के धैर्य की परीक्षा कब तक ली जाती रहेगी ?    अपनी किशोरावस्था में मैंने जासूसी उपन्यासों में पढ़ा था कि शहर में दो-तीन अस्वाभाविक मौतें होते ही पुलिस-विभाग में तहलका मच जाता था। पुलिस के आला अधिकारी अपने मातहतों को एक बहुत ही सीमित अवधि का समय देते हुए बरस पड़ते थे कि गृह मंत्री को क्या जवाब दिया जाएगा ! बहुत अच्छा लगता था, जब पुलिस अधिकारी / जासूस बहुत ही काम समय में अपराधी को ढूंढ निकालते थे।    यह सही है कि कहानियों के आदर्श नायक, वास्तविक दुनिया में कभी-कभार ही मिला करते हैं, लेकिन दिन-ब-दिन जिस तरह से नायक के भेष में खलनायकों का इज़ाफ़ा हो रहा है, उसे देखते हुए देश के भयावह भविष्य की कल्पना की जा सकती है। आज के समय में अपराधी, पुलिस और नेताओं का जो दोस्ताना गठजोड़ पनप रहा है और दूसरी ओर जिस तरह से न्याय-व्यवस्था को पंगु बनाने का प्रयास किया जा रहा है, उसके चलते एक आम आदमी को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अब के

कब तक चलेगा यह सिलसिला...

     27 नवम्बर, 1973 की वह काली रात, जब मुंबई के केईएम अस्पताल में चौबीस वर्षीया नर्स अरुणा शानबाग के साथ अस्पताल के ही वार्ड ब्वॉय सोहनलाल भरथा वाल्मीकि ने दुष्कर्म किया था। दुष्कर्म के बाद उस बहशी दरिंदे ने कुत्ते की चैन से अरुणा का गाला घोंटने का प्रयास भी किया था। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मस्तिष्क में ऑक्सीजन नहीं पहुँचने से अरुणा कौमा में चली गई। वाल्मीकि पकड़ा गया, लेकिन उसे केवल हमले और लूटपाट का अपराधी ठहराया जाकर मात्र सात वर्ष की सजा मिली और सजा काटकर वह जेल से मुक्त हो गया। उसके दुष्कर्म का अपराध हमारे योग्य (?) पुलिस अधिकारियों की जाँच-प्रणाली और आदर्श क़ानून की पेचीदगियों में उलझ कर खो गया। स्त्री होने का अपराध झेलती मासूम अरुणा ने भी 42 वर्षों का मौत से बदतर जीवन बिताकर आखिर में मुक्ति पाई और दि.18 मई, 2015 को उसने अपनी अन्तिम श्वांस ली।     इतने वर्षों तक सुध नहीं लेने वाले परिजनों को अरुणा का शव नहीं सौंपा गया और उनकी मौजूदगी में अस्पताल के स्टाफ ने अरुणा का अन्तिम संस्कार किया।    अरुणा चली गई...अरुणा से जुड़ी यादें भी ऐसे ही अन्य कई हादसों की तरह समय की परतों में ध

प्यार क्या है …?

      बायोलॉजिकली ह्रदय में चार प्रकोष्ठ होते हैं, लेकिन इस बात पर पूरा यकीन नहीं मुझे! मेरे हिसाब से ह्रदय में हजारों प्रकोष्ठ होते हैं तभी तो हम दुनिया के सभी रिश्तों से प्यार कर पाते हैं। हमें कोई भी नया रिश्ता जोड़ने के लिए ह्रदय का कोई कोना खाली नहीं करना पड़ता। वहाँ जगह बनती ही चली जाती है हर नए रिश्ते के लिए।     यह भी सही है (मुझे ऐसा लगता है) कि यदि हमारा प्यार सभी रिश्तों के लिए सच्चा है तो यह कह पाना मुश्किल है कि हम किसे अधिक प्यार करते हैं और किसे कम। हम या तो किसी से प्यार करते हैं या नहीं करते हैं- यही सत्य है। प्यार ही है जो हमें रिश्तों में बांधता है चाहे वह खून का रिश्ता हो चाहे मित्रता का। कभी यह रूमानी होता है तो कभी रूहानी। क्या खूब कहा है किसी ने-'प्यार किया नहीं जाता, प्यार हो जाता है।' और, एक शायर के अनुसार- 'प्यार बेचैनी है, मजबूरी है दिल की, इसमें किसी का किसी पर कोई एहसान नहीं।'     सम्बन्धों का एक नाज़ुक धागा होता है प्यार, चाहे वह माता-पिता और सन्तान के बीच हो, भाई और बहिन के बीच हो, पति और पत्नी के बीच हो या मित्रों के मध्य

बहुत हो गया...

   गहन अध्ययन और शोध के उपरान्त यह तथ्य उजागर हुआ कि भक्तों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-    1) सामान्य भक्त                   2) अन्ध भक्त     तो मित्रों, सन्दर्भ है अभी हाल ही दिल्ली में हुए चुनावों का। चुनाव के परिणामों के बाद सामान्य भक्तों ने वस्तु-स्थिति को समझा, गुणावगुणों के आधार पर अपने भक्ति-भाव की समीक्षा की और अन्ततः सत्य को स्वीकार कर केजरीवाल की विजय का स्वागत भी किया। सत्य की राह पर आने के लिए उन्हें हार्दिक बधाई!    अन्ध भक्त अखाड़े में उतरे उस दम्भी पहलवान के समान हैं जो चित्त होने के बाद भी अपनी टांग ऊँची कर कहे कि वह हारा नहीं है। यह लोग 'खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे' के ही अंदाज़ में अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं मानो सच्चाई को ही बदल देंगे। इनको कोई समझाए कि वह उनके नेताओं के झूठ, चापलूसी व अकर्मण्यता से उपजी विफलता को समझें और स्वीकारें।    जितना झूठ और विष केजरीवाल के विरुद्ध उंडेला गया, जितनी भ्रान्तियाँ उनके विरुद्ध फैलाई गईं, उसके कारण जनता में उपजा आक्रोश केजरीवाल को प्राप्त होने वाले वोटों में तब्दील होता चला गया। इसीलिए हालत यह हो गई है कि

राजनीति ने एक खूबसूरत करवट ली है...

 दिल्ली की प्रबुद्ध जनता ने 'मफ़लरमैन' को अपना नेता चुन लिया है- एक बुद्धिमतापूर्ण, दूरदर्शिता से परिपूर्ण चयन। हार्दिक बधाई ! यह कहते हुए मैं गर्व अनुभव कर रहा हूँ कि मेरा सम्पूर्ण विश्वास जिसके साथ  खड़ा था, वह नायक जीत गया। मेरे मित्र कह रहे हैं- 'करिश्मा हो गया', लेकिन मैं इससे सहमत नहीं क्योंकि हुआ वही है जो होना था, होना चाहिए था। पूर्व में अनुशासित कही जाने वाली पार्टी के एक असभ्य नेता ने इस नायक के लिए 'हरामखोर' तथा शीर्ष पर विराजमान नेता ने 'बाज़ारू' शब्दों का जब प्रयोग किया था, उस पार्टी की हार तभी तय हो गई थी। किरण बेदी जो कभी केजरीवाल की हमराह थीं, वह भी केजरीवाल को 'भगोड़ा' कहने से नहीं चूकी थीं। उन्होंने यह भी कहा था कि केजरीवाल का स्तर उनसे बहस करने लायक नहीं हैं। खैर, बेदी तो मोहरा बनाई गई थीं, यह हार तो बीजेपी की समग्र हार है। अहंकार कभी विजयी नहीं हो सकता। केजरीवाल को भगौड़ा, नौटंकी, खुजलीवाल, जैसे अभद्र सम्बोधन देने वाले कटुभाषी भी अवाक् हैं, उनकी वाणी स्पंदन खो चुकी है।     देश भर से बुलाये गए अपने नेताओं की सम्पूर्ण शक्ति लगा

जनता को तलाशना होगा ...

    'जनता के द्वारा, जनता का, जनता के लिए' -  प्रजातन्त्रीय शासन की यह परिभाषा मानी जाती है, लेकिन वर्तमान में यह परिभाषा अपना अर्थ खो चुकी है। 'जनता के द्वारा' चुन कर निर्मित हुआ शासन-तंत्र अब 'जनता का' नहीं होकर, कुछ लोगों का शक्ति-केंद्र बन जाता है और 'जनता के लिए' नहीं होता, अपितु एक वर्ग-विशेष को साधन-संपन्न बनाने के लिए काम करता है। दुर्भाग्य से जनता इसे अपनी नियति मान लेती है और पांच वर्षों तक प्रतीक्षा करती है अगले चुनाव की, पांच वर्षों तक दुबारा ठगे जाने के लिए। यह सिलसिला अब तक यूँ ही चलता आया है। राजनैतिक दल एक ही विषैले साँप के बदले हुए रूप हैं जो अपनी केंचुली बदल कर क्रम से आते और जाते हैं।    दीन दयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद शुक्ल की नैतिकता एवं अटल बिहारी बाजपेयी की ईमानदारी और राजनैतिक उदारता आज के वरिष्ठ बीजेपी के नेताओं में ढूंढे से भी नहीं मिलती। इसी प्रकार लाल बहादुर शास्त्री की चारित्रिक दृढ़ता व सरलता तथा प्रियदर्शिनी इंदिरा गाँधी के नेतृत्व की ओजस्विता को आज के शीर्ष कॉन्ग्रेसी नेताओं में खोजना समय को जाया करना मात्र है। इंदिर

सत्य की जीत होती है...

  देश से 12000 km दूर Hoffman Estates (A suburb of Chicago) में बेटे के साथ रह रहे हैं हम इन दिनों। एक निहायत ही खुशनुमा समय गुज़र रहा है यहाँ, पर स्वदेश की याद तो आती ही है। वहां तो किसी न किसी प्रकार की व्यस्तता रहती थी लेकिन यहाँ करने को कुछ भी नहीं है सो समय ही समय है अतः मूवी देखने के लिए भी खूब समय है।  सुना था, मूवी 'भूतनाथ रिटर्न्स' में चुनावी राजनीति और इसके परिष्करण की संभावनाओं को बहुत बढ़िया तरीके से उजागर किया गया है। दिल्ली में अभी माहौल भी यही चल रहा है अतः सोचा, मौका भी है और दस्तूर भी, यही मूवी क्यों न देख ली जाये! देखा इस मूवी को तो दिल्ली के चुनावी माहौल से इसमें बहुत साम्यता नज़र आई। एक आदर्श चरित्र को निभाया है इसमें अमिताभ बच्चन जी (भूतनाथ) ने एक भूत की भूमिका में रहते हुए। भूत का अस्तित्व होता है या नहीं- यह विवादास्पद बिंदु है, लेकिन छल-कपट एवं दुष्टता से परिपूर्ण जीवित व्यक्ति से तो एक सुसंस्कारित मृतात्मा (भूत) बेहतर ही कहलाएगी न! मूवी में विपक्ष के भ्रष्टाचारी नेता द्वारा भगोड़ा करार दिया गया भूतनाथ अंत में चुनाव में विजयी होता है....अर्थात सत्य की ज