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धुंध से आगे (कहानी)

                   प्रस्तुत है सामाजिक असमानता और उससे मुक्ति की सोच का निरूपण करती मेरी यह कहानी- "धुंध से आगे"      नन्हे विशु को उसके खिलौनों के साथ माली के पास लॉन में छोड़कर नीलिमा रसोईघर में चली आई। महरी आज आई नहीं थी सो घर का सारा काम-काज उसे ही निपटाना था। सोचा, विशु थोड़ी देर बाहर खेलता रहेगा तो आराम से कुछ काम कर लेगी। दो बार अम्मा जी (सासू माँ) चाय के लिए कह चुकी थीं सो सबसे पहले चाय बना कर वह अम्मा जी के पास आकर बैठी। शाम के वक्त चाय लेना वह कम पसंद करती है पर आज अकेले-अकेले काम करते थक गई थी तो आधा कप चाय खुद के लिए भी बना ली थी। अम्मा जी बातों की कुछ ज्यादा ही शौक़ीन थीं। इधर-उधर की सौ-पचास बातें नहीं कर लेतीं, चैन नहीं पड़ता था उन्हें। नीलिमा ने अपनी चाय अम्मा जी की बातों के जवाब में 'हाँ-हूँ' करते जल्दी ही ख़त्म कर ली और फुर्ती से वापस रसोईघर में पहुँची। सब्जी सुबह की काटी हुई फ्रिज में रखी थी सो निकाल कर भागौनी में छौंक लगा कर पकने के लिए छोड़ दी। वर्मा साहब (विशु के पापा) आधे घंटे में ऑफ...

विपुल का टिफिन (कहानी)

       विपुल का ऑटो घर के दरवाज़े पर आ कर रुका। प्रतिष्ठा अपने कमरे में बैठी उपन्यास पढ़ रही थी, ऑटो की आवाज़ सुनते ही उपन्यास टेबल पर रख कर  मकान के गेट की ओर लपकी। विपुल आते ही 'मम्मी' कह कर उससे लिपट गया। प्रतिष्ठा ने उसके हाथ से बैग लिया और प्यार से उसे चूम कर, उसकी उंगली पकड़ कर भीतर ले आई। विपुल आ कर सीधे ही सोफे पर पसर गया। बैग आलमारी में रख कर प्रतिष्ठा ने उसके जूते-मौजे खोले और स्कूल-यूनिफॉर्म उतार कर घर के कपड़े पहनाये।        विपुल वापस सोफे पर बैठ गया और अपने स्कूल की रामायण शुरू कर दी- "मम्मी, आज तो मैम ने राहुल को खूब डांटा। पता है, उसे पूरे पीरियड तक खड़ा रहने का पनिश्मेंट भी दिया। ...और मम्मी, मुझे तो कॉपी में मैम ने गुड दिया।" "बहुत अच्छा बेटे, शाबाश! लेकिन, राहुल को मैम ने पनिश्मेंट क्यों दिया?" "मम्मी, एक तो उसने कॉपी में गलत-सलत लिख दिया था और फिर ऊपर से दूसरे लड़कों से बातें कर रहा था। वह मैम की बात ही नहीं सुनता।… अरे मम्मी, छोड़ो न, मुझे भूख लग रही है, खाना दो मुझे।"  प्रतिष्ठा ने प्यार से विपुल के गालों को सहलात...

किरायेदार (कहानी)

   "कल तक मुझे किराया मिल जाना चाहिए। तीन महीने हो गए किराया दिए हुए, यह भी कोई तरीका होता है?  कल तक किराया दे दो और मकान ख़ाली कर दो, नहीं तो आपका सामान बाहर फेंक दूंगा ।"- लगभग चिल्लाते हुए रमण लाल ने अपनी किरायेदार श्रीमती कौशल्या को आगाह किया।   "भाई साहब, एक सप्ताह का समय और दे दीजिये। मेरे बेटे की तनख्वाह रुकी हुई थी, अब तीन-चार दिन में मिल जायगी और वह मेरे बैंक-खाते में ट्रान्सफर कर देगा। उसका कल ही मेसेज आया है।"- कौशल्या शर्म से ज़मीन में गड़ी जा रही थी क्योंकि पड़ौस के मकान से पड़ौसी भी झाँक कर उनकी बातें सुन रहा था।   "मुझे इन बातों से कोई मतलब नहीं, मुझे तो मेरा किराया चाहिए।" -कह कर रमण लाल अपने कमरे में चले गये।   रमण लाल सरकारी नौकरी में थे। वह जो कुछ कमाते थे, उसमें से ज़्यादा कुछ बचा नहीं पाते थे। घर का खर्च, तीन बच्चों की पढ़ाई का खर्च और ऊपर से इतनी महंगाई, बचाते भी तो क्या और कैसे! स्वास्थ्य लगातार खराब रहने से अभी दो साल पहले ही निर्धारित उम्र से बहुत पहले रिटायरमेंट ले लिया था। तीन बच्चे थे और तीनों ही बाहर अपनी-अपनी गृहस्थी में व्यस...

डायरी के पन्नों से ..."कोई आशिक़ न कह दे..." (रुबाई)

मेरे अध्ययन-काल की एक रचना (रुबाई) - "कोई आशिक़ न कह दे" .                                              ज़ुल्म  तो बहुत सहा है, पर फरियाद नहीं करता,                 प्यार तो  करता हूँ उनको, पर याद नहीं करता।               आवाज़ सुनकर ही कहीं कोई आशिक़ न कह दे,               यही है वो राज़ कि मैं किसी से बात नहीं करता।                                                   *****

ऑटो वाला (सत्य-कथा)

              कई वर्ष पहले का वाक़या है। मेरे विभाग के एक साथी अधिकारी शर्मा जी के एक दुर्घटना में देहांत होने की सूचना मिलने पर मैं उनके दाह-संस्कार में शामिल होने बस से सुबह डूंगरपुर के लिए रवाना हुआ। एक तो मन पहले से ही उदास था, दूसरे बस में भीड़ बहुत ज्यादा थी तो मन उद्विग्न हो उठा। करेला ऊपर से नीम चढ़ा की तर्ज पर डूंगरपुर पहुँचने के बीस मिनट पहले बस का टायर पंक्चर हो गया तो बस विलम्ब से पहुंचनी ही थी। मैं बस-स्टैंड से शर्मा जी के घर गया तो पता चला कि शवयात्रा निकले आधा घंटा हो चुका है। श्मशान घाट सीधे ही पहुँचने के अलावा कोई चारा नहीं था अतः घर से बाहर आकर ऑटो के लिए इधर-उधर देखा, लेकिन कोई ऑटो नज़र नहीं आया क्योंकि इनका घर मुख्य सड़क से थोड़ा भीतर की ओर था। संयोग से एक परिचित बाइक पर मेरे पास से निकल रहे थे कि उनकी नज़र मुझ पर पड़ी और बाइक रोक कर मुझसे पूछा कि कहाँ जाना है। मैंने उनसे तहसील चौराहे पर छोड़ने की प्रार्थना की। तहसील चौराहा वहाँ से लगभग दो किमी दूर था। उन्होंने मुझे वहाँ छोड़ दिया।   वहाँ से सुरपुर गाँव (जहाँ शहर ...

मंज़िल प्यार की (कहानी)

                      एक साहसी युवती के जीवन-संघर्ष की कहानी...                                      'डाकिया'- दरवाज़े की ओर से आई आवाज़ से मैं चौंक पड़ी। मैंने देखा, मेरी मेड, कांता दरवाज़े की तरफ जा रही थी। इधर मैं तेजी से बैड रूम की ओर बढ़ी और अपने बिस्तर पर निढाल हो कर पड़ गई।  मुझे बैडरूम की ओर जाते देख कान्ता को निश्चित ही आश्चर्य नहीं हुआ होगा क्योंकि वह मेरी मनःस्थिति समझती थी।      मन बेवज़ह आशंकित हो उठा था। मेरी आँखें पलकों का बोझ नहीं सह पा रही थीं। पलकें आँखों पर झुक आयीं और अनायास ही...बंद पलकों में मेरा अतीत तैरने लगा।   .....मैं और राजेश एक ही कॉलोनी में रहते थे। राजेश का परिवार नया-नया ही उस कॉलोनी में आया था। मैं और राजेश दोनों एक ही कॉलेज में प्रथम वर्ष में पढ़ते थे, लेकिन सैक्शन अलग थे इसलिए दोनों एक-दूसरे से अपरिचित थे।     उस दिन हमारे कॉलेज में 'वादविवाद प्रतियोगिता' का आयोजन था...

शेरा (लघुकथा)

              सुमन ने शाम की चाय की अंतिम घूँट ली और तभी अचानक उसे याद आया कि चेतना के घर जाना है। ग्रीष्मावकाश के बाद आज स्कूल का तीसरा दिन था। तबियत ख़राब होने से चेतना आज स्कूल नहीं आई थी और दिन में एक बार उससे मिले बिना सुमन रह नहीं सकती थी। शाम ढ़लने को थी सो सुमन आनन-फानन में तैयार हो गई। चेतना का घर उसके घर से मुश्किल से आधा-पौन किलोमीटर की दूरी पर ही था सो पैदल ही चल दी। घर से निकल कर गली में पहुंची ही थी कि चौराहे से कुछ ही पहले शेरा अपने एक साथी के साथ दिख गया। उसका पूरा नाम शेर सिंह है पर मोहल्ले में सब उसे शेरा ही कहते हैं।       शेरा इस मोहल्ले का दादा माना जाता था। कुछ चवन्नी छाप चार-पाँच लड़के उसके शागिर्द थे। गली के नुक्कड़ पर भोला की चाय की थड़ी पर बेंच या मोढ़ों पर पसर कर गप-शप करना, सिगरेट का धुंआ उड़ाना और आती-जाती लड़कियों पर फब्तियां कसना, यही दिनचर्या थी इनकी। लड़कियां अधिकतर तो चुपचाप निकल जातीं यह सोच कर कि लफंगों को क्या मुँह लगाएं! कोई इक्की-दुक्की लड़की अपने घर शिक...