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'अपराधी कौन?' (कहानी)

                                                           दर्शकों से भरे अदालत-कक्ष में शहर के एक प्रतिष्ठित आभूषण-व्यवसायी के घर पर एक वर्ष पूर्व हुई चोरी और व्यवसाय-स्वामी चितरंजन दास की हत्या के मुकद्दमे के आखिरी दिन की सुनवाई चल रही थी। सरकारी वकील व बचाव पक्ष का वक़ील, दोनों अपनी जिरह पूरी कर चुके थे।  जिरह के अंत में सरकारी वक़ील हेमन्त सिंह ने कहा- "मी लॉर्ड, तमाम हालात के मद्देनज़र सारा मामला आईने की तरह साफ है। सेठ जी की पत्नी व उनका बेटा, दोनों चश्मदीद गवाहों ने अपने बयानों में बताया है कि उन्होंने सेठ चितरंजन दास के कातिल, मुनीम उमेश कुमार को उस रात सेठ जी के कमरे से निकल कर ब्रीफ़केस सहित भागते हुए देखा था। उनके कदमों की आहट सुन लेने से क़त्ल के बाद भागते समय मुजरिम हड़बड़ी में चाकू वहीं छोड़ गया था। ब्रीफकेस में वह सेठ जी के आठ करोड़ रुपये के हीरेजड़ित स्वर्णाभूषण ले गया था। सेठ जी का मुलाजिम होने के कारण उन तक उसकी पहुँच भी आसान थी, इसलिए उसे अपना मकसद पूरा करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। क़त्ल में इस्तेमाल चाकू पर मुलज़िम उमेश की हथेली या उंगलियों के निशान

किरायेदार (कहानी)

   "कल तक मुझे किराया मिल जाना चाहिए। तीन महीने हो गए किराया दिए हुए, यह भी कोई तरीका होता है?  कल तक किराया दे दो और मकान ख़ाली कर दो, नहीं तो आपका सामान बाहर फेंक दूंगा ।"- लगभग चिल्लाते हुए रमण लाल ने अपनी किरायेदार श्रीमती कौशल्या को आगाह किया।   "भाई साहब, एक सप्ताह का समय और दे दीजिये। मेरे बेटे की तनख्वाह रुकी हुई थी, अब तीन-चार दिन में मिल जायगी और वह मेरे बैंक-खाते में ट्रान्सफर कर देगा। उसका कल ही मेसेज आया है।"- कौशल्या शर्म से ज़मीन में गड़ी जा रही थी क्योंकि पड़ौस के मकान से पड़ौसी भी झाँक कर उनकी बातें सुन रहा था।   "मुझे इन बातों से कोई मतलब नहीं, मुझे तो मेरा किराया चाहिए।" -कह कर रमण लाल अपने कमरे में चले गये।   रमण लाल सरकारी नौकरी में थे। वह जो कुछ कमाते थे, उसमें से ज़्यादा कुछ बचा नहीं पाते थे। घर का खर्च, तीन बच्चों की पढ़ाई का खर्च और ऊपर से इतनी महंगाई, बचाते भी तो क्या और कैसे! स्वास्थ्य लगातार खराब रहने से अभी दो साल पहले ही निर्धारित उम्र से बहुत पहले रिटायरमेंट ले लिया था। तीन बच्चे थे और तीनों ही बाहर अपनी-अपनी गृहस्थी में व्यस

क्या आपको अपने बच्चों से शिकायत है?

      भाग्यशाली होते हैं वह लोग, जिनके बच्चे (बेटा/बिटिया) उन्हें बहुत प्यार करते हैं।.....लेकिन मेरा यह उद्बोधन उन लोगों के लिए है जिन्हें यह शिकायत रहती है कि उनके बच्चे उन्हें प्यार नहीं करते, उनका ख़याल नहीं रखते। कई बार तो उनको प्यार न पाने से अधिक शिकायत इस बात की होती है कि उनकी अपेक्षा के अनुरूप उनका  ख़याल नहीं रखा जाता है।     बच्चों से प्यार पाने की मानसिक आवश्यकता तो समझ में आती है, लेकिन समग्र रूप से वैसा ही प्यार उन्हें आजीवन मिलता रहे जैसा उन्होंने उनसे तब पाया था जब वह कम उम्र के थे, तो ऐसी अपेक्षा वांछनीय नहीं हो सकती। मेरा यह कथन पुत्र हो या पुत्री, दोनों के सन्दर्भ में है।    बच्चे की किशोरावस्था से पहले उसका संसार अधिकांश रूप से घर में ही केन्द्रित रहता है। किशोरावस्था से प्रारंभ होकर युवावस्था तक की वय में उसका एक और संसार बन जाता है- उसके दोस्तों का। युवावस्था की दहलीज में पाँव रखने के कुछ ही समय में उसका विवाह हो जाता है तब उसका एक और नया संसार निर्मित होता है। इन सब संसारों के अलावा चाहे-अनचाहे एक और संसार भी उसके अस्तित

डायरी के पन्नों से ..."तृतीय विश्व युद्ध" -------

   तृतीय विश्व-युद्ध सम्भवतः नहीं होगा, लेकिन कुछ देश जिस तरह की गैर ज़िम्मेदाराना हरकतें कर रहे हैं, उससे एक डरावने भविष्य का संकेत मिल रहा है। यदि अनहोनी होती ही है तो परिणाम क्या होगा? इसी कल्पना की उपज है मेरी यह कविता...!

प्यार क्या है …?

      बायोलॉजिकली ह्रदय में चार प्रकोष्ठ होते हैं, लेकिन इस बात पर पूरा यकीन नहीं मुझे! मेरे हिसाब से ह्रदय में हजारों प्रकोष्ठ होते हैं तभी तो हम दुनिया के सभी रिश्तों से प्यार कर पाते हैं। हमें कोई भी नया रिश्ता जोड़ने के लिए ह्रदय का कोई कोना खाली नहीं करना पड़ता। वहाँ जगह बनती ही चली जाती है हर नए रिश्ते के लिए।     यह भी सही है (मुझे ऐसा लगता है) कि यदि हमारा प्यार सभी रिश्तों के लिए सच्चा है तो यह कह पाना मुश्किल है कि हम किसे अधिक प्यार करते हैं और किसे कम। हम या तो किसी से प्यार करते हैं या नहीं करते हैं- यही सत्य है। प्यार ही है जो हमें रिश्तों में बांधता है चाहे वह खून का रिश्ता हो चाहे मित्रता का। कभी यह रूमानी होता है तो कभी रूहानी। क्या खूब कहा है किसी ने-'प्यार किया नहीं जाता, प्यार हो जाता है।' और, एक शायर के अनुसार- 'प्यार बेचैनी है, मजबूरी है दिल की, इसमें किसी का किसी पर कोई एहसान नहीं।'     सम्बन्धों का एक नाज़ुक धागा होता है प्यार, चाहे वह माता-पिता और सन्तान के बीच हो, भाई और बहिन के बीच हो, पति और पत्नी के बीच हो या मित्रों के मध्य

वह यादगार दृश्य ---

  कल TV पर एक मूवी देखी। दक्षिण भारतीय एक सुपर स्टार से सजी हुई यह मूवी यूँ तो एक साधारण फॉर्मूला मूवी थी, लेकिन इसके कथानक में जुड़ी दो आदर्शपरक बातें दिल की गहराइयों में बस गईं। 1)  फ़िल्म का नायक एक व्यक्ति की कुछ मदद करता है और जब वह व्यक्ति उसका शुक्रिया अदा करता है तो नायक उससे कहता है कि उसे धन्यवाद नहीं चाहिए बल्कि इस मदद के बदले में वह तीन आदमियों की मदद करे और उन्हें इसी तरह का सन्देश देकर अन्य तीन-तीन आदमियों की मदद करने के लिए कहे।  नायक से मदद प्राप्त करने वाला एक सुपात्र व्यक्ति था। उसने नायक के निर्देशानुसार कार्य किया और समयान्तर में इस सद्प्रेरणा के प्रचार-प्रसार से हज़ारों लोगों का मन-मस्तिष्क मदद की भावना से सुवासित होता चला गया। परिणामतः नायक के उस शहर में सत्कर्म लोगों की जीवनचर्या बन गया।  2)  पांवों से विकलांग कुछ बच्चों के उत्साहवर्धन के लिए उनकी दौड़-प्रतियोगिता आयोजित की गई थी। प्रतियोगी बच्चों में से चार-पांच बच्चे लक्ष्य के क़रीब ही थे कि कुछ पीछे रह गए बच्चों में से एक ट्रेक पर गिर पड़ा और चोट लगने से उसके मुख से चीख निकल पड़ी। जैसे ही लक्ष्य के समीप पहुँच