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'अपराधी कौन?' (कहानी)

                                                 
 

       दर्शकों से भरे अदालत-कक्ष में शहर के एक प्रतिष्ठित आभूषण-व्यवसायी के घर पर एक वर्ष पूर्व हुई चोरी और व्यवसाय-स्वामी चितरंजन दास की हत्या के मुकद्दमे के आखिरी दिन की सुनवाई चल रही थी। सरकारी वकील व बचाव पक्ष का वक़ील, दोनों अपनी जिरह पूरी कर चुके थे।


 जिरह के अंत में सरकारी वक़ील हेमन्त सिंह ने कहा- "मी लॉर्ड, तमाम हालात के मद्देनज़र सारा मामला आईने की तरह साफ है। सेठ जी की पत्नी व उनका बेटा, दोनों चश्मदीद गवाहों ने अपने बयानों में बताया है कि उन्होंने सेठ चितरंजन दास के कातिल, मुनीम उमेश कुमार को उस रात सेठ जी के कमरे से निकल कर ब्रीफ़केस सहित भागते हुए देखा था। उनके कदमों की आहट सुन लेने से क़त्ल के बाद भागते समय मुजरिम हड़बड़ी में चाकू वहीं छोड़ गया था। ब्रीफकेस में वह सेठ जी के आठ करोड़ रुपये के हीरेजड़ित स्वर्णाभूषण ले गया था। सेठ जी का मुलाजिम होने के कारण उन तक उसकी पहुँच भी आसान थी, इसलिए उसे अपना मकसद पूरा करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। क़त्ल में इस्तेमाल चाकू पर मुलज़िम उमेश की हथेली या उंगलियों के निशान इसलिए नज़र नहीं आये क्योंकि उसने अपने हाथों में दास्ताने पहने हुए थे, जिन्हें उसने बाद में नष्ट कर दिया। यही बात मुलज़िम ने पुलिस को दिये बयान में मानी भी है और उसे थानेदार साहब कोर्ट में पेश कर चुके हैं। दो सिपाहियों द्वारा रात्रि-गश्त के दौरान भागते हुए मुलज़िम का पीछा किया गया अतः वह एक सुनसान इलाके में ब्रीफ़केस छिपा कर भाग निकला। मुलज़िम ब्रीफ़केस वहाँ से वापस ले जाता, इसके पहले ही पुलिस ने ब्रीफ़केस ढूँढ कर अपने कब्जे में ले लिया। मी लॉर्ड, मुलज़िम उमेश कुमार ने अपने ही मालिक के घर में चोरी की है और उनका क़त्ल भी किया है, अतः उसे आठ करोड़ रुपये के आभूषणों की चोरी के लिए दफ़ा 379 के तहत कम से कम 3 साल की बामुशक्कत कैद व सेठ चितरंजन दास के कत्ल के लिए दफ़ा 302 के तहत सज़ा-ए-मौत दी जाए, ताकि इन्साफ़ की हिफाज़त हो और अन्य मुलज़िमों के लिए यह केस एक नज़ीर बन सके। दैट्स ऑल मी लॉर्ड!"

  "आई ऑब्जेक्ट माई लॉर्ड! मेरे काबिल दोस्त हवा में ही तीर चला रहे हैं। वह कोई भी पुख्ता सबूत पेश नहीं कर सके हैं। मेरा मुवक्किल बेक़सूर है, उसे बरी किया जाए।"

    अदालत-कक्ष में खुसर-पुसर शुरू हो गई।

   न्यायाधीश मोहम्मद हुसैन ने "ऑब्जेक्शन सस्टेन्ड" -कहते हुए एक नज़र हॉल में बैठे लोगों पर डाली और 'ऑर्डर-ऑर्डर' कह कर लोगों को खामोश रहने की हिदायत की और फिर मुलज़िम उमेश कुमार की ओर मुखातिब हुए- "मुलज़िम उमेश कुमार! तुम पर लगाए गये इल्ज़ामात की सफाई में कुछ कहना चाहते हो?"

   उमेश कुमार ने शांत स्वरों में जवाब दिया- "जज साहब, मैं बेक़सूर हूँ। गवाहों ने अपने बयान संदेह के आधार पर दिए हैं, जैसा कि मेरे वक़ील साहब ने भी कोर्ट में कहा है। गवाहों ने भागते हुए कातिल को पीठ की तरफ से देखना बताया है, अतः वह निश्चित रूप से कैसे कह सकते हैं कि वह मैं ही था। पुलिस ने ब्रीफ़केस भी कहीं और से बरामद किया है। मैं अपने ही सेठ का खून कैसे कर सकता हूँ? असली गुनहगार जमना लाल है जो पुलिस के रिकॉर्ड में आदतन अपराधी है, लेकिन पुलिस ने उसे छोड़ दिया है। मैंने जमना लाल को सेठ जी के मकान से बाहर निकलते हुए देखा था, जब मैं फिल्म का आखिरी शो देख कर रात को साढ़े बारह बजे घर लौट रहा था। पुलिस ने जबरन मुझसे गुनाह कबूलवाया है। मेरे वक़ील साहब ने सारी हक़ीक़त आपको बता दी है। मैं एक शरीफ आदमी हूँ जज साहब, मुझे छोड़ दीजिये।"

   अदालत-कक्ष में बैठी उमेश की माँ भी रुआँसी हो कर बोली- "जज साहब, हमारा पूरा मोहल्ला मेरे बेटे को जानता है कि वह किस किस्म का इन्सान है! वह पिछले पाँच वर्षों से सेठ जी के पास काम कर रहा था। उमेश ने आज तक चींटी भी नहीं मारी साहब, फिर वह अपने ही सेठ का क़त्ल कैसे कर सकता है? अगर वह गुनहगार होता तो मैं खुद इस अदालत में उसके लिए मौत की सज़ा मांगती। हम सीधे-सच्चे लोग हैं साहब, मेरे बेटे ने कोई गुनाह नहीं किया है।" -और वह फफक-फफक कर रो पड़ी।

  न्यायाधीश ने सपाट लहज़े में कहा- "मोहतरमा, आपको कठघरे में आकर बोलना चाहिए था। खैर, मैं आपके जज़्बात समझ सकता हूँ, लेकिन कानून हक़ीक़त देखता है और हक़ीक़त यह है कि आपके बेटे पर खून और चोरी का इलज़ाम है।"

   चार-पाँच मिनट तक सामने रखी केस-फाइल देखने के बाद न्यायाधीश बोले- "मुलज़िम के खिलाफ अभियोजन-पक्ष कोई पक्का सबूत पेश नहीं कर सका है। सरकारी वक़ील और कुछ कहना चाहेंगे?

   "मी लॉर्ड, मुझे एक सप्ताह की मोहलत और दी जाए।" -सरकारी वकील ने प्रार्थना की।
  न्यायाधीश- "अभियोजन-पक्ष को एक सप्ताह की मोहलत और दी जाती है। अगली सुनवाई आगामी सोमवार, दि.18, नवम्बर के लिए मुक़र्रर की जाती है।"

   सोमवार के दिन अदालत-कक्ष में हमेशा से अधिक लोग मौजूद थे। कुछ लोग प्रवेश नहीं मिलने से अदालत-कक्ष के बाहर के अहाते में भी बैठे या खड़े नज़र आ रहे थे। अदालत की कार्यवाही शुरू होने को थी, केवल बचाव-पक्ष के वक़ील दरियाव सिंह का इन्तज़ार था जो अभी तक नहीं आये थे।
  सरकारी वक़ील ने काफ़ी इन्तज़ार के बाद अदालत से दरख़्वास्त की- "मी लॉर्ड, मुझे नहीं लगता कि वक़ील, सफाई अब आएँगे। मुझे और कोई नया सबूत तो नहीं मिला है, लेकिन परिस्थिति-जन्य साक्ष्य मुलज़िम उमेश कुमार को ही अपराधी ठहराते हैं। आप अपना फैसला सुनाने की मेहरबानी करें।"
   अब न्यायाधीश मोहम्मद हुसैन ने बोलना शुरू किया- "अदालत ने मुकद्दमे से सम्बन्धित तमाम हालात व गवाहान के बयानों पर बारीकी से गौर किया और दोनों विद्वान वक़ीलों की बहस भी सुनी। चोरी हुआ माल मुलज़िम से बरामद न होकर पुलिस के द्वारा शहर से दूर एक सुनसान इलाके से बरामद किया गया था। मुलज़िम की हथेली व उंगलियों के निशान क़त्ल में इस्तेमाल हुए चाकू पर नहीं पाये गये हैं। इस प्रकार अभियोजन-पक्ष कोई भी पुख्ता सबूत मुलज़िम के खिलाफ पेश नहीं कर सका है, अतः यह अदालत मुलज़िम उमेश कुमार वल्द स्व. हिम्मत कुमार वर्मा को..."
  "रुकिए जज साहब! मैं हाज़िर हो गया हूँ।" -वक़ील दरियाव सिंह ने अदालत-कक्ष में प्रवेश करते हुए न्यायाधीश को फैसला देने से रोक दिया।
   अदालत में बैठे सभी व्यक्ति चौंक कर वक़ील दरियाव सिंह की ओर देखने लगे।
   दरियाव सिंह न्यायाधीश की ओर मुख़ातिब हुए- "मैं कुछ ऐसे सबूत लाया हूँ मी लॉर्ड, जो मुकद्दमे की एक नई ही तस्वीर पेश करेंगे। तकरीर लम्बी है, किन्तु मुझे अपनी बात कहने की इजाजत दी जाय।"
  सरकारी वक़ील ने चौंक कर दरियाव सिंह की ओर देखा।
  न्यायाधीश ने कहा- "इजाजत है।"
  दरियाव सिंह ने कहना शुरू किया- "क़त्ल और चोरी के गुनाह कठघरे में खड़े इस व्यक्ति ने ही किये हैं जज साहब!..."
   "यह क्या बकवास कर रहे हो वक़ील साहब? होश में भी हो या नहीं?" -उमेश बिफर कर चीखा।
   अदालत-कक्ष में भी खुसफुसाहट होने लगी।
  "ऑर्डर-ऑर्डर! मुलज़िम को भूलना नहीं चाहिए कि वह अदालत में खड़ा है।... हाँ तो वक़ील साहब, आप को पता है न कि आप क्या कह रहे हैं? आप ख़ुद अपने मुवक्किल को मुलज़िम ठहरा रहे हैं।" -न्यायाधीश ने गम्भीर स्वरों में कहा।
  "तो यह नई बात बताई है मुलज़िम के वक़ील साहब ने। भाई, हम क्या फ़ारसी में बोल रहे थे अब तक? हम भी तो यही कह रहे थे कि गुनहगार यही शख़्स है।" -उपहास की मुद्रा में सरकारी वक़ील ने मुँह बिचकाया।
  दरियाव सिंह ने सरकारी वक़ील पर एक उपेक्षा भरी दृष्टि डाली और न्यायाधीश की ओर उन्मुख हुए- "मी लॉर्ड! मैं पूरी संजीदगी से अपनी बात कह रहा हूँ। गुनाह इसी शख्स ने किये हैं, किन्तु क्षमा करें, आपको न्याय की रक्षा के लिए मेरी पूरी बात सुननी होगी।
 न्यायाधीश ने मेज पर अपनी कुहनी रख कर हथेली पर चेहरा टिका लिया और स्वीकृति की मुद्रा में दरियाव सिंह की तरफ देखने लगे।
  दरियाव सिंह ने अपनी बात आगे बढ़ाई- "मैंने इस एक हफ़्ते-भर में जो तहक़ीकात की है, उससे इस मुकद्दमे की कई परतें खुली हैं। दरअसल मैंने अपने प्रगाढ़ मित्र, मशहूर प्राइवेट डिटेक्टिव, मोहन प्रकाश की मदद ली है। मैं इस अदालत को क़त्ल और चोरी की वारदात से कुछ पहले के समय में ले जाना चाहूँगा।... तो कहानी शुरू होती है यहाँ के मशहूर अस्पताल 'न्यू एरा लाइफ हॉस्पिटल' से। वहाँ के एक वॉर्ड में मेरा मुवक्किल उमेश कुमार भर्ती था, जिसका किडनी का ऑपरेशन होना था। उसके ऑपरेशन के ठीक एक दिन पहले अस्पताल के मालिक, चीफ़ डॉक्टर  के पास एक व्यक्ति आया। चीफ़ से बात करने के बाद जब वह कक्ष से बाहर निकला तो उसके चेहरे पर संतोष भरी मुस्कराहट थी। चीफ़ ने उसे हिदायत की थी कि वह अगले दिन की सुबह ही अस्पताल में एड्मिट हो जाए, उसका ऑपरेशन हो जायगा।"
  उमेश कुमार को अगले दिन ऑपरेशन टेबल पर लिया गया। लगभग आठ घंटे के ऑपरेशन के बाद उसे बेहोशी की हालत में ICCU वॉर्ड में भेज दिया गया।..."
   "ऑब्जेक्शन माय लॉर्ड! मेरे काबिल दोस्त अदालत का समय ख़राब कर रहे हैं। एक सीधे और साफ़ केस को वह उलझाना चाहते हैं। इस सारी कहानी का इस मुकद्दमे से क्या सम्बन्ध हो सकता है?" -सरकारी वक़ील ने बीच में ही ऐतराज़ उठाया।
   "बहुत गहरा सम्बन्ध है जज साहब! मुझे अपनी बात पूरी करने दी जाए।"
   "ऑब्जेक्शन ओवर रूल्ड! आप अपनी बात जारी रखें वक़ील साहब।" -न्यायाधीश ने दरियाव सिंह को अनुमति दी।
 "थैंक यू माय लॉर्ड!... ऑपरेशन के तीन-चार दिन बाद जब उमेश कुमार को होश आया तो उसने अपनी माँ को तो पहचाना, किन्तु वहाँ आये अपने अन्य रिश्तेदारों को नहीं पहचान सका। डॉक्टर ने बताया कि ऑपरेशन के कारण मरीज के दिमाग पर शायद कुछ असर हुआ है जो धीरे-धीरे ठीक हो जायेगा। तीन सप्ताह बाद उमेश कुमार को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई।
   कहानी का दूसरा पक्ष उस व्यक्ति से सम्बन्ध रखता है जज साहब, जो अस्पताल के चीफ़ से मिला था और जिसे अस्पताल में एड्मिट होने की सलाह दी गई थी। उस व्यक्ति का भी ऑपरेशन उसी दिन हुआ जिस दिन उमेश कुमार का हुआ।" -इतना कह कर दरियाव सिंह ने कठघरे की तरफ देखा। मुलज़िम कठघरे में खामोश खड़ा था।
   "उस व्यक्ति का तो यह हाल था कि तीन दिन बाद जब उसे होश आया तो खुद को भी पहचान नहीं सकता था। डॉक्टर ने उसे बहलाया कि वह हॉस्पिटल में शायद किसी इलाज के लिए आया था, लेकिन यहाँ सीढ़ियों से गिर जाने से उसके सिर में चोट लगी और इसी से उसकी याददाश्त चली गई है। डॉक्टर ने यह भी आश्वासन दिया कि उसका इलाज करने की पूरी कोशिश की जा रही है। मी लॉर्ड, उसकी याददाश्त नहीं लौटी और लगभग दो सप्ताह बाद उसको भी छुट्टी दे दी गई। याददाश्त खोने के अलावा वह पूरी तरह से नॉर्मल था। चूँकि अब उसे अपने घर-बार का भी कुछ ध्यान नहीं था, अस्पताल के मालिक ने उसे अपने ही अस्पताल में अर्दली के काम पर रख लिया। वह अभी भी..."
"एक मिनट वक़ील साहब, आपने यह किसी फिल्म का वीडियो देखा है या फिर आपको भूतकाल के दृश्य देख सकने की क्षमता हासिल हो गई है?" -सरकारी वक़ील ने फिर व्यंग्य किया।
 सरकारी वक़ील की बात को तवज्जो नहीं देते हुए दरियाव सिंह ने अपनी बात आगे बढ़ाई- "मी लॉर्ड, सारी जानकारी मेरे मित्र डिटेक्टिव मोहन प्रकाश ने अपनी खोजबीन व उस क्षेत्र के C.I. हेमन्त काम्बोज की मदद से हासिल की है। अदालत उचित समझे तो उनको गवाही के लिए बुलाया जा सकता है। उस अस्पताल का मालिक अभी पुलिस-कस्टडी में है और उसका रिकॉर्डेड कबूलनुमा भी मौज़ूद है।
  जज साहब, अब मैं कहानी के रहस्य से पर्दा हटाना चाहूँगा। शहर के एक छँटे हुए बदमाश की जानकारी में आया कि शहर के मशहूर सेठ चितरंजन दास का मुनीम उमेश कुमार उनका विश्वसनीय लेकिन सीधा-सादा व्यक्ति है, तो उसने इरादतन उससे संपर्क कर घनिष्ठता बढ़ाई और उसके घर तक भी पहुँच बना ली। वहाँ उसकी उमेश की माँ से भी मुलाकात हुई। उमेश अपनी विधवा माँ का इकलौता बेटा था। बातों ही बातों में उसे पता लगा कि उमेश के पेट में अक्सर दर्द रहता है और जल्द ही वह अस्पताल में दिखाने जाने वाला है तो उसके दिमाग में एक नई खुराफात ने जन्म लिया और उसने एक योजना बना ली। उसने उमेश को सलाह दी कि वह शहर के सबसे अच्छे अस्पताल  'न्यू एरा लाइफ हॉस्पिटल' में चैक कराए। उमेश जब हॉस्पिटल गया तो उसे बताया गया कि उसकी किडनी में कुछ इंफेक्शन हो गया है और जल्द ही उसका ऑपरेशन करना होगा। वह बदमाश टोह में रहा और जिस दिन उमेश का ऑपरेशन होने वाला था, उससे एक दिन पहले उसने 'न्यू एरा लाइफ हॉस्पिटल' के चीफ़ से मुलाकात की और पूर्व योजना के अनुसार अस्पताल में भर्ती हो गया।
   जज साहब, जैसा कि कई लोगों को पता होगा कि दो जीव-वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम व गहन रिसर्च के बाद विज्ञान के कई करिश्मों की तरह एक नया करिश्मा 'brain transplantation' लगभग दो वर्ष पहले मानव-जीवन के लिए वरदान बन कर आया है। तकनीक के इस विकास के बाद विश्व में कुछ ऐसे लोगों का मस्तिष्क-प्रत्यारोपण बहुत कम खर्च में किया जा चुका है जिनका जिस्म विकृत या मृतप्राय होने को था। उपलब्ध अन्य स्वस्थ देह में मस्तिष्क-प्रत्यारोपण के जरिये उन लोगों को एक नया जिस्म और एक नई ज़िन्दगी मिल गई। कम ही लोगों को ज्ञात है कि वह हुनर या कहिये कि तकनीक इस हॉस्पिटल को भी प्राप्त हो चुकी है।
विज्ञान के प्रयोग व आविष्कार मानव जाति की भलाई के लिए होते हैं, किन्तु दुष्ट लोगों द्वारा इनका दुरुपयोग भी किया जाता है और यही इस केस में हुआ है।
   उस बदमाश का नाम जमना लाल था। जैसा कि मैंने अभी बताया, जिस दिन मुनीम उमेश का ऑपरेशन किया जाना था, उसी दिन जमना लाल भी उस हॉस्पिटल में भर्ती हो गया। एक ही हॉल (ऑपरेशन थियेटर) में दो टेबल्स  पर दो ऑपरेशन हुए और मी लॉर्ड, जमना लाल का मस्तिष्क उमेश के सिर में और उमेश का मस्तिष्क जमना लाल के सिर में मात्र पाँच घंटे में टांसप्लांट कर दिया गया। इसके बाद उमेश की किडनी के ऑपरेशन का नाटक हुआ। वास्तव में उमेश की किडनी में कोई तकलीफ थी ही नहीं। दिखावे के लिए अनावश्यक ही उसके पेट पर एक छोटा-सा चीरा लगा कर ऑपरेशन कर दिया गया। दरअसल उसके पेट के दर्द को अस्पताल के डॉक्टर्स ने किडनी की प्रॉब्लम बता कर उसे गुमराह किया था व जल्द ही ऑपरेशन करवाने की सलाह दी थी, जबकि दवा या इंजेक्शन से ही वह ठीक होने योग्य था। इस सारे षड्यंत्र की शुरुआत ऑपरेशन के आठ-दस दिन पहले ही हो गई थी और अस्पताल के चीफ़ को जमना लाल ने अपनी योजना बता कर एक मोटी रकम भी दे दी थी। ऑपरेशन के कुछ ही दिन बाद मौका मिलते ही उमेश के शरीर और शक्ल का फायदा उठा कर जमना लाल ने सेठ चितरंजन दास का क़त्ल व चोरी की वारदात को अंजाम दे दिया। उसके दुर्भाग्य से वह पकड़ लिया गया, अन्यथा वारदात के बाद उसकी योजना देश से बाहर भाग जाने की थी।
   अदालत-कक्ष  में ऐसा सन्नाटा गहरा गया कि सुई गिरने की आवाज़ भी सुनी जा सकती थी।
   दरियाव सिंह ने आगे कहा - "मी लॉर्ड! कठघरे में खड़े मेरे मुवक्किल का शरीर उमेश कुमार का है और उसका मस्तिष्क जमना लाल का है।"
 "यह सब बकवास है, मनगढन्त कहानी है यह। मेरे वकील साहब असली मुजरिम से मिल गए हैं जज साहब!" -कठघरे में खड़े मुलज़िम ने लगभग चीखते हुए अपने बचाव की एक और कोशिश की। 
   कक्ष में बैठी ख़ामोशी से यह कहानी सुन रही उमेश की माँ  हैरान थी कि उसके छोटे-से परिवार में इतना बड़ा तूफ़ान कैसे आ गया, कातर स्वरों में बोली- "जज साहब! आपके लिए, वकील साहबान के लिए और इस अदालत के लिए तो यह मात्र एक केस है, लेकिन मेरा क्या, मेरे बेटे का क्या? अभी तो उसने अपनी ज़िन्दगी ढंग से जी भी नहीं है। मैंने तो अपने इकलौते बेटे की शादी भी अभी तक नहीं कराई है। मेरा तो सब-कुछ नष्ट हो गया। यदि यह सब सच है तो अब आप ही बताएँ जज साहब!... दोनों वक़ील साहब, आप लोग बताएँ, मेरा बेटा कौन है? कठघरे में खड़ा यह मुजरिम या याददाश्त खो चुका वह अर्दली? मुझे मेरा बेटा चाहिए, वरना मैं पागल हो जाऊँगी जज साहब!" -बिलख पड़ी वह। 
   अदालत-कक्ष में लोगों की खुसर-पुसर शुरू हो गई, जो शोर में बदल ही रही थी कि न्यायाधीश ने उन्हें खामोश न रहने पर बाहर निकालने की चेतावनी दे डाली।
   अब न्यायाधीश बोले- "हमें अफ़सोस है मोहतरमा, आपके साथ बहुत नाइंसाफ़ी हुई है लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं?... हाँ वकील साहब, आप आगे कहिये। हम यह नहीं समझ सके कि जमना लाल, जिसके शरीर में उमेश का दिमाग है, उसकी याददाश्त कैसे चली गई? क्या यह भी षड्यन्त्र का ही हिस्सा था?"
  "यस मी लॉर्ड! ऑपरेशन के समय योजना के तहत जान-बूझ कर उसके मस्तिष्क में स्मरण-शक्ति वाली नर्व्स को डिस्टर्ब कर दिया गया था ताकि यह गोरखधन्धा रहस्य ही बना रहे। उसकी स्मरण-शक्ति किसी भी अन्य उपचार से लौट नहीं सकती थी, जब तक कि पुनः उसके मस्तिष्क में स्मरण-शक्ति वाली नर्व्स को जोड़ा न जाए। जमना लाल इस संसार में अकेला था और अब उसके शरीर में मस्तिष्क सिर्फ उसे ज़िन्दा रखने के लिए था। वह अपनी पहचान भूल चुका था। अगर उसके उमेश कुमार वाले मस्तिष्क से याददाश्त ख़त्म नहीं की जाती तो उसे इस षड्यंत्र का पता लग जाता और वह अपने घर, अपनी माँ के पास जाता, पुलिस को सूचना देता। आखिर मनुष्य के शरीर का संचालन मस्तिष्क ही तो करता है। जज साहब, अब वह जमना लाल के शरीर के साथ उस अस्पताल में अर्दली का काम कर रहा है। अस्पताल के चीफ़ ने दरिंदगी तो की, किन्तु शायद उसके दिमाग में कुछ तो इंसानियत ज़िन्दा थी सो उसने कम से कम उसे अपने यहाँ नौकरी पर रख लिया।"
  सरकारी वक़ील की आँखों में चमक आई- "अगर यह सब सही है मी लॉर्ड, तो भी हक़ीकत यही है कि कठघरे में खड़े इस व्यक्ति ने ही अपराध किया है। अदालत बिना शुबहा अब उसे सज़ा दे सकती है।"
   न्यायाधीश- "विद्वान वकील, सफाई के द्वारा पेश कहानी हमने सुनी। इस तमाम कहानी की तसदीक के लिए न्यू एरा लाइफ हॉस्पिटल के मालिक, डिटेक्टिव मोहन प्रकाश व C.I. हेमंत काम्बोज को गवाही के लिए  इस अदालत में एक सप्ताह के बाद यानी अगले मंगलवार, दि. 26, नवम्बर को पेश होने के लिए पाबंद किया जावे। तब तक के लिए यह अदालत मुलतवी की जाती है।"
   निर्धारित अगली पेशी, मंगलवार के दिन उपरोक्त तीनों व्यक्ति अदालत में हाज़िर हुए। सरकारी वक़ील तथा बचाव पक्ष के वक़ील दरियाव सिंह ने उनसे जिरह की। नतीजतन दरियाव सिंह द्वारा अदालत में बताई गई सारी कहानी अक्षरशः सही प्रमाणित हुई।
    समस्त खुलासे के बाद न्यायाधीश ने एक लम्बी साँस ले कर कहा- "वैज्ञानिकों की इज़ाद से मिली यह नायाब तकनीक इन्सान की बेहतरी के लिए इस्तेमाल होनी चाहिए, किन्तु उसका फ़ायदा  इन शैतानों ने अपने मतलब के लिए उठाया और एक सीधे-सादे इंसान की ज़िन्दगी तबाह कर दी। बहरहाल कठघरे में खड़े मुलज़िम का गुनाह पूरी तरह साबित हो गया है। अब आपको कुछ और कहना है वकील साहब?" -कहते हुए न्यायाधीश ने दरियाव सिंह की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि डाली।
   "जज साहब, मैंने जानते हुए आज तक किसी अपराधी की पैरवी नहीं की है। मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी अपने उसूलों के साथ गुज़ारी है। अगर सच्चाई की थोड़ी भी भनक मुझे लगी होती तो यह केस नहीं लेता मैं। मुझे कुछ शक हुआ, इसीलिए मैं इस केस की गहराई में गया। अब मुझे सिर्फ यही कहना है कि कठघरे में खड़े इस व्यक्ति ने गुनाह तो किया है, लेकिन यह व्यक्ति वह नहीं है जिसकी पैरवी के लिए उमेश की माँ ने मुझे हायर किया है क्योंकि कठघरे में खड़े व्यक्ति का शरीर तो उमेश कुमार का है, लेकिन मस्तिष्क अपराधी जमना लाल का। फिर भी अपराध तो हुआ ही है मी लॉर्ड, अब अदालत उचित फैसला करे।"
   न्यायधीश- "इस पूरे केस के हर पहलू को हमें गहराई से समझना होगा। इस अपराध में सम्बन्धित हॉस्पिटल का भी बहुत बड़ा रोल है, अतः पुलिस न्यू एरा लाइफ हॉस्पिटल के चीफ़ व षड्यंत्र में शामिल उसके स्टाफ पर पृथक से केस दर्ज करे। जहाँ तक इस मुकद्दमे का सवाल है, इसका फैसला अगले मंगलवार को सुनाया जायगा। आज की अदालत मंगलवार, दि. 3, दिसम्बर तक के लिए मुलतवी की जाती है।"

   न्यायाधीश मोहम्मद हुसैन मस्तिष्क की अदलाबदली वाले इस अजीबोगरीब मुकद्दमे की फाइल में तीन दिन तक तो उलझते ही रहे।
शुक्रवार की रात तक उनके विचारों में उथल-पुथल चल रही थी-
 'पकड़े गये मुलज़िम को सज़ा दूँ तो कैसे दूँ? माना कि गुनाह जमना लाल के दिमाग ने करवाया है, किन्तु उसका जिस्म तो उमेश कुमार का है। यदि उसे सज़ा देता हूँ तो यह सज़ा उस माँ के बेटे को मिलेगी जो कोर्ट में सुबक रही थी। इन्सान की पहचान तो उसके जिस्म और चेहरे से  होती है, दिमाग तो बाहर से दिखाई नहीं देता। उस माँ के दर्द को, बेतहाशा बह रहे उसके आँसुओं को कैसे दरकिनार करूँ मैं? अर्दली के रूप में उस अस्पताल में काम करने वाले व्यक्ति को भी सज़ा दी जाय तो कैसे, जबकि उसने गुनाह किया ही नहीं, भले ही उसका जिस्म जमना लाल का है!... यदि दोबारा दिमाग की अदलाबदली मुमकिन हो तो भी क्या ऐसा करना ठीक होगा, जब कि उसकी याददाश्त चली गई है और अदलाबदली के बारे में वह अपनी रजामंदी देने के क़ाबिल नहीं है।... तो क्या किसी को भी सज़ा न दी जाए?... इंसाफ कैसे होगा? गुनाह हुआ है तो अपराधी को सज़ा तो देनी ही होगी, किन्तु समझ में कुछ भी नहीं आ रहा, क्या करूँ? गिमाग की अदलाबदली के इस युग में आखिर एक इंसान की पहचान क्या है?’... उन्हें नींद नहीं आ रही थी पर फिर कोशिश कर के सो गये।
   ... शनिवार की अलसुबह उनकी नींद खुल गई, पिछले दिनों की कश्मकश उनके दिमाग पर फिर हावी होने ही जा रही थी कि उनके जेहन में एक विचार कौंधा और उन्हें उम्मीद की एक किरण दिखाई दी। शाम को कोर्ट से आते ही उन्होंने हॉस्पिटल के मालिक को पुलिस-कस्टडी से बुलवाया और लगभग घंटे भर तक उससे बात की। फिर उन्होंने उमेश कुमार की माँ को बुलवाया। इसके बाद उन्होंने उस अस्पताल में काम कर रहे इस घटना-क्रम के अभागे अर्दली को भी बुला कर बात की। तीनों से अलग-अलग विमर्श करने के बाद उनके चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएँ उभर आयीं। उन्हें पहली बार महसूस हुआ- 'शायद इंसान की पहचान उसके जिस्म और दिमाग के अलावा उसके अपनों के जज़्बातों से भी होती है।'

अगले दिन फैसला लिखते वक़्त न्यायाधीश का मन स्थिर था, संतुष्ट था। 
                                                          
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                                   “Mother’s day” के नाम से मनाये जा रहे इस पुनीत पर्व पर मेरी यह अति-लघु लघुकथा समर्पित है समस्त माताओं को और विशेष रूप से उन बालिकाओं को जो क्रूर हैवानों की हवस का शिकार हो कर कभी माँ नहीं बन पाईं, असमय ही काल-कवलित हो गईं। ‘ऐसा क्यों’ आकाश में उड़ रही दो चीलों में से एक जो भूख से बिलबिला रही थी, धरती पर पड़े मानव-शरीर के कुछ लोथड़ों को देख कर नीचे लपकी। उन लोथड़ों के निकट पहुँचने पर उन्हें छुए बिना ही वह वापस अपनी मित्र चील के पास आकाश में लौट आई। मित्र चील ने पूछा- “क्या हुआ,  तुमने कुछ खाया क्यों नहीं ?” “वह खाने योग्य नहीं था।”- पहली चील ने जवाब दिया। “ऐसा क्यों?” “मांस के वह लोथड़े किसी बलात्कारी के शरीर के थे।” -उस चील की आँखों में घृणा थी।              **********

व्यामोह (कहानी)

                                          (1) पहाड़ियों से घिरे हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में एक छोटा सा, खूबसूरत और मशहूर गांव है ' मलाणा ' । कहा जाता है कि दुनिया को सबसे पहला लोकतंत्र वहीं से मिला था। उस गाँव में दो बहनें, माया और विभा रहती थीं। अपने पिता को अपने बचपन में ही खो चुकी दोनों बहनों को माँ सुनीता ने बहुत लाड़-प्यार से पाला था। आर्थिक रूप से सक्षम परिवार की सदस्य होने के कारण दोनों बहनों को अभी तक किसी भी प्रकार के अभाव से रूबरू नहीं होना पड़ा था। । गाँव में दोनों बहनें सबके आकर्षण का केंद्र थीं। शान्त स्वभाव की अठारह वर्षीया माया अपनी अद्भुत सुंदरता और दीप्तिमान मुस्कान के लिए जानी जाती थी, जबकि माया से दो वर्ष छोटी, किसी भी चुनौती से पीछे नहीं हटने वाली विभा चंचलता का पर्याय थी। रात और दिन की तरह दोनों भिन्न थीं, लेकिन उनका बंधन अटूट था। जीवन्तता से भरी-पूरी माया की हँसी गाँव वालों के कानों में संगीत की तरह गूंजती थी। गाँव में सबकी चहेती युवतियाँ थीं वह दोनों। उनकी सर्वप्रियता इसलिए भी थी कि पढ़ने-लिखने में भी वह अपने सहपाठियों से दो कदम आगे रहती थीं।  इस छोटे

पुरानी हवेली (कहानी)

   जहाँ तक मुझे स्मरण है, यह मेरी चौथी भुतहा (हॉरर) कहानी है। भुतहा विषय मेरी रुचि के अनुकूल नहीं है, किन्तु एक पाठक-वर्ग की पसंद मुझे कभी-कभार इस ओर प्रेरित करती है। अतः उस विशेष पाठक-वर्ग की पसंद का सम्मान करते हुए मैं अपनी यह कहानी 'पुरानी हवेली' प्रस्तुत कर रहा हूँ। पुरानी हवेली                                                     मान्या रात को सोने का प्रयास कर रही थी कि उसकी दीदी चन्द्रकला उसके कमरे में आ कर पलंग पर उसके पास बैठ गई। चन्द्रकला अपनी छोटी बहन को बहुत प्यार करती थी और अक्सर रात को उसके सिरहाने के पास आ कर बैठ जाती थी। वह मान्या से कुछ देर बात करती, उसका सिर सहलाती और फिर उसे नींद आ जाने के बाद उठ कर चली जाती थी।  मान्या दक्षिण दिशा वाली सड़क के अन्तिम छोर पर स्थित पुरानी हवेली को देखना चाहती थी। ऐसी अफवाह थी कि इसमें भूतों का साया है। रात के वक्त उस हवेली के अंदर से आती अजीब आवाज़ों, टिमटिमाती रोशनी और चलती हुई आकृतियों की कहानियाँ उसने अपनी सहेली के मुँह से सुनी थीं। आज उसने अपनी दीदी से इसी बारे में बात की- “जीजी, उस हवेली का क्या रहस्य है? कई दिनों से सुन रह