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मन का कोरोना (कहानी)

                                             
   धर्मिष्ठा कल से बुरी तरह परेशान थी। निखिल पूरे एक साल बाद दो दिन पहले ही जर्मनी से लौटा था, किन्तु आया तभी से घर में किसी से मेल-जोल ही नहीं रख रहा था। उसका कहना था कि कोरोना-संक्रमण की शंका के कारण वह कुछ दिनों के लिए सब लोगों से अलग अपने कमरे में रह रहा है।
 'मुझसे दूरी रखने के लिए ही वह मम्मी जी, पापा जी से भी दूरी रखने का नाटक कर रहा है। एयरपोर्ट पर उसकी जांच हो चुकी है फिर भी वह ऐसा क्यों कर रहा है, मैं समझ चुकी हूँ। उसकी यह बेरुखी मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती। देखती हूँ, कब तक वह मुझसे दूर रहता है।', धर्मिष्ठा मन ही मन उलझ रही थी।
 आज शाम जब उससे नहीं रहा गया तो उसने निखिल के कमरे के पास जाकर उसे आवाज़ दी। निखिल ने दरवाजा तो खोला,किन्तु नेट वाला दरवाजा नहीं खोला और दूर से ही बोला- "बोलो धर्मिष्ठा, क्या चाहिए तुम्हें?"
  "क्यों नाटक कर रहे हो तुम कोरोना का बहाना बना कर और फिर कब तक कर सकोगे यह? तुम्हें मैं पसन्द नहीं हूँ, समझ सकती हूँ। मुझसे दूर रहना है तुम्हें, लेकिन घर के अन्य लोगों से अलग इस कमरे में क्यों रह रहे हो?"
  "क्या पागलों की तरह बात कर रही हो? मुझे अभी दो सप्ताह तक आइसोलेशन में ही रहना होगा। जाँच नेगेटिव भले ही आई है, किन्तु यदि कोरोना-संक्रमण हुआ है तो उसका आठ-दस दिन बाद ही पता लगेगा। वैसे भी यदि एयरपोर्ट पर जाँच हमेशा ही सही ढंग से हो रही होती तो इतने केसेज़ देश में क्यों दिखते?"
  धर्मिष्ठा पैर पटकती हुई चली आई अपने कमरे में और बिस्तर पर लेट कर तकिये में मुँह छिपा कर सुबकने लगी। जब बिस्तर से उठी तो उसके दिमाग ने कुछ सोच लिया था।
  अगले ही दिन सुबह के कामों से निवृत हो कर उसने अपनी सासू माँ से कहा- "मम्मी जी, पापा जी से कहिये मुझे  बस स्टैण्ड छोड़ आयें, मुझे पीहर जाना है।"
  "लेकिन बहू, यूँ अचानक कैसे?"
  "मुझे बहुत याद आ रही है मम्मी-पापा की। प्लीज़ मुझे जाने दें।"
  धर्मिष्ठा की जिद देख निखिल के पापा ने उसे कार से उसके पीहर छोड़ने का सुझाव दिया, किन्तु उसने कहा कि वह बस से ही जाएगी। वह उसे बस स्टैण्ड छोड़ने चले गए और बस आने पर टिकिट लेकर उसे बस में बैठा दिया। उसका पीहर यहाँ से मात्र 72 कि.मी. की दूरी पर था।
  बस चल रही थी और बस से अधिक रफ़्तार से धर्मिष्ठा की आँखों से आँसू बहे जा रहे थे। निखिल के विदेश-प्रवास के दौरान उसके साथ किये गए संवाद, वीडियो-वार्तालाप याद कर के वह विचलित हुई जा रही थी, किन्तु साथ ही निखिल से बेहद खफा भी थी।
  तीन दिन बाद निखिल के पास कोर्ट से नोटिस आया। सबने देखा और चौंक पड़े, धर्मिष्ठा ने तलाक का नोटिस भिजवाया था। सब लोग हतप्रभ थे, ऐसा क्यों किया धर्मिष्ठा ने? आखिर वजह क्या है इसके पीछे?
  निखिल को दुःख और आश्चर्य तो था ही, उसके मन में धर्मिष्ठा के प्रति क्रोध व घृणा के भाव भी उपजे। उसने अपने मम्मी-पापा से स्पष्ट कह दिया कि धर्मिष्ठा को कोई जवाब न दें।
  'अरे कुछ दिन की ही तो बात थी, अनायास ही ऐसा निर्णय वह कैसे ले सकती है? जहन्नुम में जाने दो उसे।' -वह बुदबुदाया।
  उधर निखिल के प्रति आक्रोश और अपने तलाक के निर्णय को लेकर बहुत दुखी थी धर्मिष्ठा! वह समझ नहीं पा रही थी, क्या करे, क्या न करे! तलाक का नोटिस भिजवाने के बाद के दो दिन धर्मिष्ठा के लिए दुःख और परेशानी वाले रहे। वह अपने मम्मी-पापा से भी ठीक से बात नहीं कर पा रही थी। तीसरे दिन सुबह उसके पास निखिल के पापा का फोन आया, 'निखिल बीमार हो गया है, उसे कोरोना पॉजिटिव पाया गया है। वह उचित समझे तो तुरंत चली आये।'
  धर्मिष्ठा को एक बार तो इसमें भी झूठ नज़र आया, किन्तु फिर सोचा, अगर यह बात सही हुई तो? उसने निर्णय कर लिया कि वह आज ही ससुराल जा कर वस्तु-स्थिति का पता लगाएगी।
  ससुराल पहुँची तो धर्मिष्ठा को पता लगा कि सच में ही निखिल अस्पताल में भर्ती है, उसका इलाज चल रहा है और उसे वहाँ क्वॉरेन्टाइन किया गया है। धर्मिष्ठा ने अपने यूँ अचानक पीहर चले जाने के लिए सासू-ससुर जी से क्षमा मांगी। उसे उसकी सासू जी ने बताया कि निखिल जल्दी ही अच्छा हो जायेगा, वह चिंता न करे।
  कुछ ही दिनों में निखिल पूरी तरह से स्वस्थ हो कर घर लौट आया।
  घर आने के बाद निखिल ने दिन भर धर्मिष्ठा से कोई बात नहीं की। धर्मिष्ठा उससे लिपट कर खूब बातें करना चाहती थी, किन्तु उसका मान आड़े आ रहा था। अगले दिन उसने अपनी सारी कुंठा को परे रख कर भरी आँखों से निखिल से माफ़ी मांगी।
  निखिल ने कुछ समय तो स्वयं को तटस्थ रखा, फिर बोला- "अब तो सबूत मिल गया न तुम्हें? यदि बीमार न पड़ता तो तुम इसे नाटक ही मानती रहती न? तलाक दे रही थी न तुम, स्वीकार है मुझे।"
  "लेकिन निखिल, तुमने मेरे साथ विश्वासघात किया है उसका क्या? मैंने यूँ ही शक नहीं किया तुम पर।"
 "क्या शक, कैसा शक? क्या हो गया है तुम्हें धर्मिष्ठा?"
 "तुम्हारा लैपटॉप संयोग से खुला रह गया था तुम आये उसके दूसरे दिन, तब मैंने तुम्हारी एक मेल पढ़ ली थी। मुझे ज़्यादा तकनीकी जानकारी तो नहीं है पर खुली हुई मेल तो पढ़ ही सकती थी। तुम्हारी प्रेयसी 'मानवी' ने लिखी थी वह। लिखा था, वह तुमसे बहुत प्यार करती है और तुम्हारे लौटने तक तुम्हारा इंतज़ार करेगी। क्या जवाब है तुम्हारे पास इसका?"
  निखिल ठहाका मार कर हँस पड़ा। अपना लैपटॉप ला कर उसने उस दिन की मेल निकाली। मेल के नीचे उसी दिन का लिखा जवाब (Reply) खोल कर धर्मिष्ठा से पढ़ने को कहा।
  धर्मिष्ठा ने पढ़ा।
  लिखा था - 'प्रिय मानवी, तुमने मुझे समझने में भारी भूल की है। मैं सिर्फ तुम्हारा दोस्त था और अगर तुम चाहोगी तो आगे भी रहूँगा, किन्तु प्यार की ग़लतफ़हमी अपने दिमाग से बिल्कुल निकाल दो। मैं अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता हूँ। मेरे-उसके  प्यार की सीमा आकाश से भी ऊँची है। - तुम्हारा दोस्त, निखिल।'
  निखिल के तन में आया कोरोना तो नष्ट हो ही चुका था, अब धर्मिष्ठा के मन का कोरोना भी ख़त्म हो गया था। डबडबाई आँखें धर्मिष्ठा के होठों पर आती मुस्कान को रोक नहीं पाईं। हर्षातिरेक से रोते हुए वह निखिल से लिपट गई।
  उसके स्पर्श का हर स्पन्दन व थरथराते खामोश होंठ निखिल से क्षमा-याचना कर रहे थे।

                                                                  *********









टिप्पणियाँ

  1. Vartman paristhiti me yah kahani wa iska kathanak anusarniiy hai.��

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  2. मन के इसी फेर से हमें मुक्त होना होगा, तभी समाज और परिवार में स्थान बना पाएंगे और अपनी की भावनाओं को समझ भी सकेंगे।
    सुंदर भावपूर्ण रचना।

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  3. अच्छीकहानी है और जल्दबाजी में दरकते रिश्तों की कडवी सच्चाई बयान करती है |

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  4. आदरणीय सर आपने कोई सुधार नहीं किया अपने ब्लॉग पर ?

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  5. एक बार तो कर चुका हूँ। कृपया सुधार का बिंदु इंगित करें रेनू जी!

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  6. ये पुरानी टिप्पणी है आदरणीय सर | पर मोबाइल में अब अच्छे से दिखता नहीं है | कृपया थीम में customise जाकर लेख की सतह फीके रंग की कर लें तो लिखा हुआ बहुत स्पष्ट नज़र आयेगा | सादर

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  7. आपके निर्देशानुसार संशोधन कर दिया है😊। ... धन्यवाद आपका।

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