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'सुलगती चिन्गारी' (कहानी)


   


                                      

    मनोहर कान्त बहुत दुविधा में थे। पत्नी की मृत्यु हुए तीन वर्ष हो चुके थे, किन्तु उसकी याद अभी तक दिल से भुला नहीं सके थे। नज़दीकी रिश्तेदार लम्बे समय से उनसे दूरी बनाये हुए थे, क्योंकि उनकी उन्नति और समृद्धि से सबको कुढ़न थी। उनकी पत्नी के परिवार के लोगों ने भी अब इस परिवार में रुचि लेना बंद कर दिया था, लेकिन कुछ मित्र थे जो अपने-अपने तर्क दे रहे थे - 'एक कुँआरी बेटी है घर में, उसका अकेले मन कैसे लगेगा, फिर उसकी शादी भी तो करनी है। कहते हैं कि साठा उतना पाठा। अभी मात्र 53 वर्ष की उम्र ही तो है आपकी और फिर घर का चिराग भी तो आना चाहिए', कह कर फिर से शादी करने के लिए दबाव बना रहे थे। यही नहीं, उनकी स्वयं की बेटी रवीना भी इसके लिए ज़ोर दे रही थी। 

अंततः सब लोगों के निरन्तर आग्रह से विवश हो कर मनोहर कांत ने विवाह के लिए हामी भर दी। आर्थिक रूप से वह समृद्ध थे सो कई विवाह-प्रस्ताव उनके पास आये। कुछ प्रस्तावों पर मनन करने के उपरांत अपने ही कायस्थ समाज की आराधना नामक सुन्दर युवती के साथ उन्होंने विधिवत् रूप से विवाह कर लिया। आराधना की आयु मात्र 34 वर्ष थी। मांगलिक होने के कारण वह अब तक अविवाहित थी। दामाद की उम्र अधिक होने के बावज़ूद एक समृद्ध घर में विवाह होने से आराधना के माता-पिता भी प्रसन्न थे। घर के सर्वेंट-क्वार्टर में रह रहे और इस परिवार की पिछले तीन वर्षों से सेवा कर रहे मंगत राम का परिवार भी इस विवाह से बहुत खुश था। इतनी कम उम्र की माँ पा कर पच्चीस वर्षीया रवीना अवश्य ही असहज थी, लेकिन स्थिति को स्वीकार तो करना ही था।

   

 आराधना ने रवीना को जब पहली बार 'बेटी' कह कर सम्बोधित किया तो उसे अजीब-सा लगा, बोली- "मुझे नाम से पुकारा करो छोटी मम्मी! अब आप इतनी भी अधिक बड़ी नहीं हो मुझसे।"

 यह सुन कर आराधना मुस्करा दी और फिर सदैव उसे नाम ले कर ही पुकारने लगी।

  आराधना अच्छे घर की लड़की थी और इस घर में आ कर यहाँ भी उसने स्वयं को एक अच्छी गृहिणी प्रमाणित कर दिया था। घर का सारा काम मंगत राम की पत्नी राधा और सोलह वर्षीया बेटी चंदना कर लेती थीं तो बाज़ार का अधिकांश काम मंगत राम सम्हालता था, अतः आराधना के लिए घर में कुछ विशेष करने को था भी नहीं। खाना अधिकतर राधा बनाती थी पर कभी-कभी चंदना भी बना लेती थी। मंगत राम के परिवार के सभी सदस्य इस घर के विश्वासपात्र तो थे ही, काम भी इतनी ज़िम्मेदारी से करते थे कि जैसे यह उनका अपना घर हो।
   रवीना आराधना से अच्छे-से घुल-मिल गई थी। दोनों आपसी व्यवहार में सहेलियों के जैसी थीं। मनोहर कांत दिन-भर अपनी कम्पनी के ऑफ़िस में होते थे अतः दोनों दिन भर घर पर गप्पें लगातीं, कभी कैरम या ताश खेलतीं और कभी मन करता तो घर से बाहर कहीं घूम आतीं। कार चलाना दोनों को आता था, किन्तु ज़्यादातर रवीना ही ड्राइव किया करती थी। आराधना को बाग़वानी का शौक बचपन से था अतः कई बार वह मंगत राम को घर का बगीचा सम्हालने में मदद कर देती थी। दोनों कभी-कभार अपना पुस्तकें पढ़ने का शौक भी पूरा करती थीं। रवीना ने इसी वर्ष अपनी M. Com. की पढ़ाई पूरी की थी, सो अभी फ़िलहाल और कोई काम उसके पास नहीं था। शाम को पूरा परिवार साथ होता था।

   समय अपनी गति से चल रहा था। इस विवाह को लगभग सात माह ही हुए थे कि एक दिन अचानक मनोहर कान्त को गहन हृदयाघात आया और परिवार के अथक प्रयासों के बावज़ूद उन्हें बचाया नहीं जा सका। आराधना ने अभी वैवाहिक सुख का पूरा उपभोग भी नहीं किया था कि उसके जीवन में यह वज्रपात हो गया। वह और रवीना दोनों इस आघात से हिल गये। गृह-सेवक मंगत राम का परिवार भी अनायास ही हुई इस दुर्घटना के कारण शोक-संतप्त था।

   कहते हैं, समय सब घाव भर देता है। कुछ माह बाद इस परिवार में भी सब-कुछ पहले की तरह सामान्य हो गया।
  एक दिन शाम को बंगले के लॉन में बैठी आराधना व रवीना, दोनों चाय ले रही थीं। आकाश में बादल छाये हुए थे, मंद-मंद चल रही हवा वातावरण में संगीत घोल रही थी और घर की चारदीवारी के पास लगी जूही के सुन्दर फूल पत्तियों की गोद में इठला रहे थे, भीनी खुशबू बिखेर रहे थे। रवीना को याद आया, कभी-कभी यूँ ही वह पापा के साथ यहाँ बैठी एक-एक घंटे तक बतियाती रहती थी। इस स्मृति के साथ ही उसकी पलकें नम हो आईं। तभी उसे आराधना की स्थिति का ख़याल आया। उसने आराधना से कहा- "छोटी मम्मी, आप फिर से शादी कर लो। अभी आपकी उम्र ही क्या है?"
 "धत् पगली! अब मैं दुबारा शादी करुँगी क्या? अगर भाग्य में विवाह-सुख लिखा होता तो भगवान उनको ही क्यों बुला लेते?" -बोझिल हुए क्षणों से उबर कर आराधना पुनः बोली- "अब तो तुम्हारे ब्याह की चिंता है मुझे। मैं सोच ही रही थी कि तुम्हारे लिए वैवाहिक विज्ञापन निकलवा दें।"
   "नहीं छोटी मम्मी, मैं आपको छोड़ कर कहीं नहीं जाऊँगी। नहीं करनी मुझे शादी-वादी।"
  "ऐसा भी होता है कहीं? यह बच्चों वाली बात मत करो रवीना! चलो, मुझे ही कुछ करना पड़ेगा तुम्हारे लिए।" -आराधना ने मीठी झिड़की दी।
  रवीना मुँह फुला कर वहां से उठ कर अपने कमरे में चली गई।

   दो-तीन दिन में ही आराधना ने रवीना को जीवन की ऊँच-नीच समझा कर विवाह के लिए तैयार कर लिया और विवाह के लिए योग्य लड़कों के प्रस्ताव मांगने हेतु अख़बार में विज्ञापन दे दिया। एक सप्ताह में ही कई प्रस्ताव आ गये। चार योग्य युवकों का चयन किया गया व एक-एक कर चारों को घर का पता दे कर बुलाया गया। प्रवीण वर्मा नामक एक युवक दोनों को प्रारंभिक रूप से पसंद आ गया। सब लोगों को इस अवसर पर मनोहर कान्त बहुत याद आये।

   प्रवीण इसी शहर में एक MNC में काम करता था। उसके माता-पिता और एक बहिन पास ही 23 km दूर अपने गांव में रहते थे। शादी का निश्चय होने से पहले प्रवीण व रवीना एक-दूसरे को अच्छी तरह समझ लेना चाहते थे अतः प्रवीण सप्ताह में एक-दो बार इनके यहाँ आ जाता था। प्रवीण एक वाक्पटु व मिलनसार युवक था। शीघ्र ही वह इस परिवार से घुल-मिल गया। कभी साथ में शॉपिंग के लिए जाना होता था तो रवीना उसे घर बुला लेती व आराधना को साथ ले कर तीनों निकल जाते। कभी-कभार मूवी भी साथ ही जाते।

   कभी-कभी रवीना को लगता कि प्रवीण आराधना से ज़्यादा ही खुल जाता है। दोनों को परस्पर ठिठोली करते वह देखती तो उसे अजीब-सा लगता था। एक रविवार को तीनों थिएटर में नून शो देख रहे थे। संयोगवश उस दिन प्रवीण दोनों के मध्य बैठा था। रवीना के मन में संदेह का बीज आ ही चुका था सो वह मूवी देखते-देखते प्रवीण की तरफ बीच-बीच में देख लेती थी। मूवी कुछ रोमांटिक थी। रवीना ने पाया कि प्रवीण आराधना की ओर कुछ अधिक ही झुका हुआ बैठा है व मूवी के सम्बन्ध में अपनी बातें उससे ही शेयर कर रहा है। रवीना का मन उचट गया। 

मूवी खत्म होने के बाद जब कार में पीछे बैठी आराधना ने हमेशा चहकने वाली रवीना को खामोश देखा तो पूछा- "क्या बात है रवीना, तुम्हें मूवी अच्छी नहीं लगी या तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है?"
 "हाँ, मैं भी यही कहने वाला था। रवीना आज ज़्यादा ही खामोश है।" -प्रवीण ने ड्राइव कर रही रवीना की तरफ देखा।
 "नहीं, ऐसी कोई खास बात नहीं है। यूँ ही, ज़रा सिरदर्द हो रहा है।" -रवीना ने मुस्कराने की कोशिश की।
 "प्रवीण, याद रखना, अभी रास्ते में किसी मेडिकल स्टोर से रवीना के लिए पैरासिटामोल टेबलेट लेते चलेंगे।" -आराधना ने कहा।
  घर पहुँच कर आराधना ने चंदना को आवाज़ लगा कर सब को पानी पिलाने के लिए कहा और स्वयं चाय बनाने चली गई। चाय उसे अपने हाथ की बनी हुई ही अच्छी लगती थी। रवीना के मना करने के बाद भी आराधना ने चाय के पहले उसे पानी के साथ सिरदर्द की गोली दी।

 प्रवीण के जाने के बाद रवीना ने आराधना से कहा- "छोटी मम्मी, मैं थोड़ी देर सोऊँगी।"
 आराधना ने सिर हिला दिया और रवीना अपने कमरे में जा कर पलंग पर लेट गई। उसके दिमाग में उथल-पुथल चल रही थी। प्रवीण उसे अच्छा तो लगता था, लेकिन उसके प्रति कोई भावनात्मक लगाव रवीना के मन में अभी तक नहीं उपजा था। वह सोच रही थी, 'अगर यह दोनों आपस में रुचि ले रहे हैं तो खुल कर बात क्यों नहीं कर लेते? मैं तो स्वयं चाहती हूँ कि छोटी मम्मी को शादी कर लेनी चाहिए। मैं एक बार और मम्मी से स्पष्ट बात करुँगी'। रवीना साफ दिल की सीधी सोच वाली लड़की थी। उसे इस बात का अधिक मलाल नहीं था कि प्रवीण आराधना में रुचि ले रहा है, किन्तु आराधना का प्रवीण में रूचि लेना उसे अखर रहा था। 'जब छोटी मम्मी ने मेरे लिए विज्ञापन दिया था, तो उन्हें स्वयं को संयमित रखना चाहिए', यही सोच उसे उद्वेलित कर रही थी। वह मानती थी कि व्यवहार व सम्बन्धों में स्पष्टता होनी चाहिए। कुछ ही देर में उसे नींद की झपकी आ गई।

   इस घटना के दो दिन बाद जब वह पब्लिक लाइब्रेरी से शाम सात बजे घर पहुँची तो प्रवीण व आराधना के खिलखिला कर हँसने की आवाज़ उसे ड्रॉइंग रूम में घुसते वक्त सुनाई दी। रवीना ने महसूस किया कि उसे देखते ही दोनों के चेहरे के भाव कुछ बदल गए थे। अब रवीना को विश्वास हो गया कि कुछ तो है जो दोनों के बीच चल रहा है। 
  "आ गई रवीना! हम चाय के लिए तुम्हारे आने का इन्तज़ार कर रहे थे।" -कह कर आराधना चाय बनाने चली गई। 
 "कौन-सी पुस्तक लाई हो?' -प्रवीण ने पूछा। 
 "उपन्यास है 'मृत्युंजय', शिवाजी सावंत का लिखा बहुत सुन्दर उपन्यास है।" -रवीना ने जवाब दिया।
  चाय के दौरान छुटपुट बातचीत चलती रही और फिर प्रवीण चला गया। 
  रात को डिनर के बाद रवीना आराधना के साथ रमी खेल रही थी। एक बाज़ी खत्म होने के बाद ताश एक तरफ रख कर वह बोली- "छोटी मम्मी, एक बात कहूँ? प्लीज़, मेरी बात समझने की कोशिश करना।"
 "हाँ, बोलो रवीना, ऐसी क्या बात है, बताओ।"
 "आप प्रवीण से शादी कर लो।" -सपाट, किन्तु शांत स्वर में रवीना ने कहा। 
 "यह क्या कह रही हो रवीना? ऐसा क्यों कह रही हो?"
 "मुझे प्रवीण में कोई रुचि नहीं है छोटी मम्मी। मैंने पहले भी आपसे कहा था। एक लम्बी ज़िन्दगी आपके सामने है, कैसे गुज़ार सकेंगी इसे अकेले रह कर? मैं जब इस घर से चली जाऊँगी, तब आपका क्या होगा?"
  "मेरी मम्मी मत बनो रवीना, मेरी चिंता मत करो। प्रवीण को हमने तुम्हारे लिए पसंद किया है।"
 "इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं प्रवीण से शादी नहीं करूँगी, यह पक्की बात है।" -रवीना ने दृढ़तापूर्वक कहा। मन में कुछ है और बाहर कुछ और, मन ही मन वह सोच रही थी। रात को खाने की टेबल पर आराधना ने फिर बात छेड़ी तो रवीना शांत नहीं रह सकी, बोली- " छोटी मम्मी, आप जानती हो, मुझे अपनी ज़िन्दगी में बनावटीपन बिल्कुल पसन्द नहीं और मैं चाहती हूँ आप भी कृपया अपने व्यवहार में स्पष्टता रखो।" 
   आराधना ने आज पहली बार रवीना के वार्तालाप के अन्दाज़ में बदलाव महसूस किया। वह समझ गई कि प्रवीण और उसके पारस्परिक आकर्षण को रवीना ने भाँप लिया है। वॉश बेसिन पर हाथ धोते हुए उसने रूखे स्वर में कहा- "तुम कहना क्या चाहती हो, स्पष्ट कहो।"
  "यही कि प्रवीण और आप दोनों एक-दूसरे में रुचि ले रहे हो लेकिन मुझसे छिपा रहे हो।"
  आराधना को उम्मीद नहीं थी कि रवीना यों साफ-साफ यह बात कह देगी। उसे रवीना की यह बेबाकी बहुत बुरी लगी और बिना कुछ कहे वह अपने कमरे में जा कर टीवी देखने लगी। 
   चाहत का जब त्रिकोण बनने लगता है तो सम्बन्धों में दरार आ ही जाती है। आज के इस वार्तालाप के बाद आराधना व रवीना के सम्बन्धों की गहराई में तो अन्तर आ ही गया, उनके बीच की सामान्य बातचीत भी सीमित होती चली गई। 
  
  उक्त मन-मुटाव के बाद लगभग तीन सप्ताह का समय बीत गया था, किन्तु अब न तो दोनों साथ में कोई खेल खेलतीं व न ही बाजार साथ जातीं। चाह कर भी दोनों सहज नहीं हो पा रही थीं। 
  राधा व चंदना काम के कारण काफी समय घर में रहती थीं। आराधना व रवीना दोनों ने अपने हिसाब से इस मामले में उनसे गोपनीयता बनाये रखी थी, किन्तु फिर भी उन्हें दोनों के बीच के दुराव का अनुमान होने लगा था।
  प्रवीण घर में यदा-कदा आता-जाता रहा। आराधना प्रवीण से सहजता से बात करती थी, किन्तु रवीना एकदम औपचारिक हो गई थी। इसी बीच एक शाम प्रवीण जब इनके घर आया तो रवीना घर पर नहीं थी। अवसर देख कर प्रवीण ने पूछ ही लिया- "क्या बात है आराधना, रवीना आजकल ढंग से बात नहीं करती।" रवीना अभी यहाँ नहीं थी अतः प्रवीण ने आराधना को नाम के साथ जी लगा कर सम्बोधित नहीं किया। उसकी बेतकल्लुफी देख कर आराधना अपनी हँसी रोक नहीं पाई, हँसते हुए बोली- "आज तो बड़े प्यार से मेरा नाम ले रहे हो।"
   "अरे भई, मैंने जो पूछा उसका तो जवाब दो।" -प्रवीण ने भी मुस्कराते हुए कहा। 
  "उसे शक हो गया है प्रवीण। मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि क्या किया जाये!"
  "होने दो शक! आज नहीं तो कल, उसे सच्चाई से रूबरू तो होना ही पड़ेगा।" -प्रवीण इस बार गम्भीर था। 
  आराधना को प्रवीण की बात से बल मिला, वह कुछ आश्वस्त हुई। उनके बीच बातें चल ही रही थीं कि कुछ ही देर में रवीना आ गई। रवीना ड्रॉइंग रूम में रुकी नहीं, दोनों से 'हाय-हेलो' कर सीधी अपने कमरे में चली गई। 
  प्रवीण भी दो-तीन मिनट में विदा ले कर चला गया। 

   अगले सात-आठ दिन प्रवीण नहीं आया। आराधना कभी-कभार उससे फोन पर बात कर लेती थी। बीच में एक बार तो राधा ने भी पूछ लिया- "बीबी जी, प्रवीण बाबू नहीं आ रहे हैं कई दिनों से?"
आराधना ने सिर हिला कर संक्षेप में जवाब दे दिया- "हम्म!"

 उस दिन डिनर के बाद देर रात तक उपन्यास पढ़ने के कारण आराधना सुबह देर से उठी। नित्य-कर्म से निवृत हो कर उसने चाय बना कर रवीना को आवाज़ लगाई, क्योंकि अभी तक रवीना कमरे से बाहर नहीं आई थी। सम्बन्धों में शिथिलता आ जाने के बावजूद दोनों चाय व खाना सामान्यतः साथ-साथ ही लेती थीं। रवीना का जवाब नहीं आया तो आराधना उसके कमरे का दरवाज़ा खटखटा कर भीतर गई। 
  अंदर का दृश्य देख कर वह चीख पड़ी। रवीना का एक हाथ पलंग से नीचे लटक रहा था और वह बेसुध पड़ी थी। वह पलंग के पास गई और आवाज़ लगाते हुए उसे झकझोरा, किंतु रवीना के शरीर में कोई हलचल दिखाई नहीं दी। चिल्लाते हुए वह कमरे से बाहर निकली व मंगत राम को आवाज़ दी। 
   आवाज़ सुन कर राधा भागती हुई आई- "क्या हुआ बीबी जी? चंदना के बापू तो बाज़ार गये हैं। क्या हो गया, आप घबराई हुई क्यों हैं?" 
   "रवीना को पता नहीं क्या हो गया है?" -कह कर वह वापस रवीना के कमरे के दरवाज़े तक गई, भीतर देखा और तुरंत प्रवीण को फोन लगा कर सारी जानकारी दी। अचानक हुई इस घटना  से हड़बड़ा गई आराधना अब सुबक-सुबक कर रो रही थी। इस दुखान्तिका के लिए वह स्वयं को कहीं न कहीं ज़िम्मेदार मान रही थी।
   प्रवीण पन्द्रह मिनट में आ गया। उसने भी कमरे के पास जा कर भीतर की ओर देखा व सब को कमरे में जाने से मना कर पुलिस को वाक़ये की सूचना दी। 

   पुलिस की जीप एम्बुलेंस के साथ आई और थानेदार ने आते ही सब को रवीना के कमरे के पास से हटाया। पुलिस जाब्ते में थानेदार विक्रम सिंह के साथ डिप्टी ए.एस.आई. ज़हीर बख्श व सिपाही मोडी राम और कश्मीरी लाल थे। थानेदार विक्रम सिंह व उनके सभी साथियों ने भीतर जा कर लाश को ध्यान से देखा। विक्रम सिंह ने ए.एस.आई. ज़हीर बख्श को दोनों सिपाहियों के साथ मौका-मुआयना करने का आदेश दिया और बाहर आ गया। थानेदार कमरे की कार्यवाही देखने के साथ ही बाहर खड़े लोगों को गहरी नज़रों से घूरते हुए उन सब का परिचय ले रहा था। अड़ोस-पड़ोस के कुछ लोग भी पुलिस को देख कर बाहर इकट्ठे हो रहे थे और बंगले के बाहर खड़े रह कर उत्सुक निगाहों से भीतर ताक रहे थे।

 जाँच के बाद ज़हीर बख्श ने बाहर आकर थानेदार को बताया- "साहब, बॉडी पर कोई निशान या किसी ज़्यादती का कोई सबूत नहीं मिला है। बाकी तो पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से ही पता चल सकेगा। जिस तरफ बॉडी का हाथ लटक रहा है उस तरफ कालीन पर एक खाली शीशी पड़ी थी और पलंग की साइड टेबल पर रखे खाली गिलास में दूध लगा हुआ है। शीशी में शायद कोई पेन किलर दवाई रही होगी या हो सकता है कोई पोइज़न रहा हो। मुझे तो लगता है सर, यह सुसाइड का मामला है।" गिलास एक तरफ रख कर उसने अपने हाथ में रुमाल में पकड़ी शीशी दिखाई।
विक्रम सिंह ने शीशी को ध्यान से देखा, पैरासिटामोल की किसी दवा का नाम प्रिंटेड था उस पर। उसने जहीर बख्श से पूछा- "और कुछ नहीं मिला?"
"नहीं साहब, और तो डाउटफुल कुछ भी नहीं दिख रहा। आप भी एक नज़र देख लें सा'ब।"
 थानेदार विक्रम सिंह ने भीतर जा कर लाश पर व कमरे में चारों ओर नज़र डाली और बाहर आ कर बोला- "ज़हीर, बरामद गिलास और खाली शीशी को कब्जे में ले कर तुम पंचनामा बनाओ और कश्मीरी तुम बाहर से एम्बुलेंस के आदमियों को अंदर बुला कर लाश को पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल में पहुँचाने की तैयारी करो।"
 इसी दौरान मंगत राम भी वहाँ आ गया था। विक्रम सिंह ने उसका भी परिचय पूछा।
 सारी आवश्यक कार्यवाही पूरी कर पुलिस एम्बुलेंस के साथ अस्पताल के लिए रवाना हुई। अनुराधा और प्रवीण को भी वह अपने साथ ले गये। रवीना की बॉडी अस्पताल के पोस्टमार्टम विभाग को सुपुर्द कर पुलिस अनुराधा और प्रवीण को बयान के लिए थाने में साथ ले गई।

  तीन दिन में पोस्टमार्टम की रिपोर्ट आ गई। रिपोर्ट के अनुसार लाश के विसरा में पॉइज़न की पुष्टि हुई थी। शीशी  व गिलास की फोरेंसिक जांच में केवल गिलास में पॉइज़न का अवशेष पाया गया। स्पष्ट था कि दूध में पॉइज़न मिलाया गया था और वह दूध रवीना ने पीया था। 

  पुलिस ने वापस आराधना के घर जा कर मंगत राम परिवार के तीनों सदस्यों के बयान भी लिये। बयान देते समय मंगत राम की आँखों में आँसू छलक आये। राधा रोते हुए बोली- "चार साल से इस परिवार की सेवा कर रहे थे सा'ब! रवीना दीदी की तो शादी होने वाली थी। उन्होंने ज़िन्दगी में देखा ही क्या था! पहले माँ-बाप की मौत हो गई और अब वह भी चली गई।" गहन पूछताछ पर राधा ने मौखिक रूप से माँ व बेटी के बीच कुछ अनबन का संकेत दिया, लेकिन पुलिस के द्वारा पूछे जाने पर रवीना की मौत से इसका सम्बन्ध होने की सम्भावना से साफ इंकार करते हुए राधा ने कहा- "साहब, भले ही किसी कारण से अभी कुछ दिनों से दोनों में कुछ अनबन थी मगर दोनों के बीच बहुत प्यार था।"

 रवीना के कमरे की भी एक बार और जांच की गई। राधा से हुई बातचीत के आधार पर पुलिस ने आराधना व प्रवीण से सख़्ती से फिर पूछताछ की, किन्तु कोई नई बात मालूम नहीं हो सकी, सिवाय इस बात के कि कुछ दिनों से रवीना रात को कभी-कभी सिरदर्द या नींद की दवा ले कर सोती थी। हत्या के किसी पुख्ता सबूत के अभाव में पुलिस इस नतीजे पर पहुँची कि रवीना कुछ दिनों से किसी अज्ञात कारण से टेन्शन में थी और उसने ज़हर खा कर आत्महत्या की है।

अंततः ऍफ़.आर. लगा कर केस बंद कर दिया गया। 

  रवीना के अंतिम संस्कार के बाद उससे सम्बन्धित तेरह दिनों के सभी धार्मिक कार्यक्रम आराधना ने अपने ससुराल, पीहर-पक्ष की मदद से संपन्न किये। इन दिनों में आराधना की मम्मी लगातार आराधना के साथ रही। उन्होंने इसी दौरान आराधना से उसके भविष्य की योजना के विषय में पूछा तो आराधना ने कुछ संकोच के साथ बता दिया कि वह इस शोक-समय के छः माह बाद प्रवीण से शादी करना चाहती है। प्रारम्भ में तो उन्हें यह उचित नहीं लगा, किन्तु आराधना के पापा से विचार-विमर्श के बाद बेटी के भविष्य के विषय में सोच कर उन्होंने भी अपनी सहमति दे दी।

  सभी मेहमानों के जाने के बाद प्रवीण का आराधना के यहाँ आना-जाना पुनः प्रारम्भ हो गया। प्रवीण अपने जॉब से लौट कर अक्सर सीधा आराधना के यहाँ आ जाता था और कई बार शाम का खाना यहीं खा कर अपने घर जाता था। कभी आराधना घर पर नहीं मिलती तो भी प्रवीण उसका इन्तज़ार कर उससे मिल कर ही लौटता था। आराधना की हिदायत के अनुसार उसकी अनुपस्थिति में राधा या चंदना प्रवीण के लिए चाय-नाश्ता तैयार कर देतीं। आराधना के लौटने के बाद दोनों साथ खाना खाते थे।

  यही क्रम चलते-चलते चार माह बीत गये।

  एक दिन अनायास ही राधा ने आराधना से कहा- "बीबी जी, पहले तो साहब चले गए और अब रवीना दीदी भी नहीं रहीं। दीदी के जाने के बाद हमारा मन यहाँ नहीं लग रहा। इतने दिन तो यहाँ हमने निकाले हैं पर अब नहीं रह सकेंगे। चंदना के बापू भी यही कह रहे हैं। हम अगले सोमवार चले जायँगे।"
 "अरे, यह अचानक क्या हो गया तुम लोगों को? यहाँ कोई तकलीफ़ हो रही है क्या?...और फिर काम-धंधा क्या करोगे?" -आराधना ने राधा के चेहरे पर छाई उदासी भाँप कर पूछा।
 "चंदना के बापू ने कहीं और काम देख लिया है बीबी जी। आप हमारे हिसाब के बकाया पैसे चंदना के बापू के बैंक खाते में जमा करा देना। खाता नंबर तो आपके पास है ही।"
  "अगर तुम लोगों को पैसा कम लग रहा हो तो तनख्वाह बढ़ा दूंगी मैं।"
 "नहीं बीबी जी, पैसे की बात नहीं है। अब हम यहाँ नहीं रह सकेंगे।"
  आराधना ने प्रवीण को यह सब बताया तो उसने निर्लिप्त भाव से कह दिया- "छोड़ो आराधना, जाते हैं तो जाने दो उन्हें। यह कोई रिश्तेदार तो हैं नहीं तुम्हारे।"
 "कैसी बात कर रहे हो प्रवीण? मैं नया नौकर कहाँ से लाऊँगी और फिर ऐसे विश्वासपात्र नौकर कहाँ मिलेंगे?
 "सब हो जायगा, तुम चिंता मत करो।" -उदासीन भाव से प्रवीण बोला।
 आराधना ने आश्चर्य से उसकी तरफ देखते हुए कहा- "ठीक है फिर, तुम ही ढूंढना नया नौकर।"
  प्रवीण ने कोई जवाब नहीं दिया, केवल एक फीकी मुस्कराहट देख सकी आराधना उसके चेहरे पर।
  अगले ही दिन आराधना ने मंगत राम का हिसाब कर दिया और उसने परिवार सहित घर छोड़ दिया।

  मंगत राम को घर छोड़े एक सप्ताह से ऊपर हो गया था। नया नौकर नहीं मिल पाने से घर के काम का सारा बोझ आराधना पर पड़ रहा था। आदत नहीं होने से वह थोड़ा काम करने पर ही थक जाती थी अतः घर की लॉबी की सफाई भी वह एक-दो दिन छोड़ कर करने लगी थी।

   एक दिन आराधना जब बाजार में थी तो मंगत राम उसे पब्लिक पार्क के पास दिख गया। पब्लिक पार्क आराधना के घर से करीब सात कि.मी. की दूरी पर था। आराधना ने कार रोक कर उसे आवाज़ लगाई। मंगत राम पास में आकर बोला- "नमस्ते बीबी जी!"
 "नमस्ते! कैसे हो मंगत राम? राधा और चंदना कैसी हैं? तुम लोगों को तो मेरी याद ही नहीं आई। एक बार भी घर पर नहीं आये। रवीना मुझे अकेली छोड़ कर चली गई और तुम लोग घर छोड़ कर चले गये। कहाँ काम रहे हो आजकल?" -आराधना ने उलाहना दिया।
"एक सेठ हैं दीन दयाल जी, उन के वहाँ! काम से फुर्सत ही नहीं मिलती बीबी जी! अच्छा, चलूँ मैं। सेठ जी के किसी काम से आया था।" -कह कर मंगत राम चलने लगा।
 "अरे सुनो तो! तुम्हारे यह सेठ जी रहते कहाँ हैं?
 "यहीं पास में, मुकर्जी चौक में।" -जाते-जाते मंगत राम ने जवाब दिया।

   तीन-चार दिन से प्रवीण भी नहीं आया था सो आराधना का मन खिन्न हो रहा था। पिछले दो दिन में वह उसे पाँच-छः बार फोन भी कर चुकी थी। आज उसने कॉल रिसीव की और बताया कि वह काम में बहुत व्यस्त था और कल शाम को उससे मिलने आयेगा।

  अगले दिन शाम को आराधना तीन घंटे तक उसका इन्तज़ार करती रही और इस दौरान उसने खाना भी बना लिया, तब कहीं रात करीब 9 बजे प्रवीण आया। आराधना का मूड बुरी तरह से खराब हो रहा था, आते ही बरसी उस पर- "यह क्या तरीका होता है? चार दिन तक न तो तुम आये और न ही मेरा फ़ोन उठाया। और आज भी इतना इन्तज़ार करवा कर अब आये हो।"
  "तुमने कभी नौकरी की हो तो जानो न! तुम्हें क्या पता, मुझ पर क्या बीत रही है, कितना टेन्शन में हूँ मैं?" -झुंझला कर बोला प्रवीण।
  आराधना ने उसके चेहरे पर उलझन की रेखाएँ देखीं तो शांत हो कर बोली- "चलो बाबा, परेशान मत होओ। तुम थोड़ा ठंडा पानी पीओ, मैं चाय बना कर लाती हूँ।"
  "नहीं, चाय नहीं लूंगा, अब तो डिनर ही ले लेते हैं।"
  डिनर लेते समय आराधना ने प्रवीण से उसकी परेशानी का कारण फिर पूछा तो भी उसने टालने वाले अंदाज़ में कहा- "कुछ विशेष बात नहीं है, चलता रहता है ज़िन्दगी में यह सब।"
 आराधना ने दुराग्रह नहीं किया और उसकी मनःस्थिति देख कर अपनी नौकर नहीं मिलने की समस्या का भी जिक्र नहीं किया। दोनों औपचारिक वार्तालाप ही करते रहे और भोजन करते ही प्रवीण विदा ले कर चला गया।

  अगले दो दिन भी पहले की तरह ही गुज़रे और प्रवीण का फोन नहीं आया। आज रविवार था सो वह दोपहर लगभग दो बजे उसके घर गई, लेकिन वह घर पर नहीं था। पड़ोस में रहने वाले एक अन्य किरायेदार से, जो परिवार सहित कहीं बाहर जा रहा था, अनुराधा ने प्रवीण के बारे में पूछा तो उसने रूखेपन से बताया कि लगभग दो घंटे पहले उन्होंने प्रवीण को घर से निकलते देखा था। उसके यह बताने के साथ ही उसकी पत्नी कुछ खीज भरे स्वर में मुँह बिचका कर बोली- " हमें क्या पता, हम उसकी चौकीदारी थोड़े ही करते हैं।"
  आराधना उसके इस व्यवहार से हतप्रभ रह गई, 'मैंने तो कुछ ग़लत नहीं बोला, इस औरत ने मुझे पहले भी एक-दो बार यहाँ देखा है फिर ऐसा व्यवहार क्यों किया इसने?' यही सोचते वह प्रवीण के कमरे के पास बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठ कर इन्तज़ार करने लगी। आधे घंटे तक भी जब वह नहीं आया तो आराधना थक-हार कर अपने घर लौट आई। आज अकेलापन उसे खाये जा रहा था। रात को जल्दी ही खाना खा कर वह सो गई।

   आराधना अगले दिन सुबह उठी, तब भी मन अशान्त था। प्रातःकालीन कार्यों से निवृत होने के बाद चाय-वाय पी कर उसने दो दिन से गन्दी पड़ी लॉबी की सफाई की। सफाई के तुरंत बाद उसकी भीतर जाने की इच्छा नहीं हुई। मन उदास-सा था, सो बरामदे से कुर्सी खीच कर लॉन में जा कर बैठ गई। उसकी नज़र बेतरतीब हो रहे पौधों पर पड़ी। उसने देखा, कुछ गमलों के पौधे पानी नहीं होने से मुरझा गये थे। उसके मन की उदासी बगीचे की दशा देख और भी गहरा गई। पहले तो मंगत राम कभी अकेले तो कभी उसके सहयोग से गमलों और अन्य पौधों की छंगाई कर देता था, समय से पौधों में पानी दे देता था पर उन लोगों के जाने के बाद अकेले-अकेले यह काम करने का आराधना का मन नहीं होता था। आज उससे अपने इस छोटे-से बगीचे की दुर्दशा देखी नहीं गई। वह कुर्सी से उठी और लॉन में ही एक किनारे पर रखी बाल्टी में टैप से पानी भरा व झारा ले कर सबसे पहले गमलों में उसने पानी देना शुरू किया।
  अभी वह आधे गमलों में ही पानी दे सकी थी कि एक जीप रुकने की और फिर घर का गेट खुलने की आवाज़ आई। उसने मुड़ कर देखा, थानेदार विक्रम सिंह, उसी ए.एस.आई. ज़हीर बख्श और एक लेडी कॉन्सटेबल के साथ गेट पर खड़ा था।
  आराधना एक बार तो उन्हें देख कर चौंकी, फिर सहज हो कर बोली- "आइये थानेदार साहब, कैसे तशरीफ़ लाना हुआ?"
  "ओह, तो आपको पता नहीं है।" - व्यंग्य भरे स्वर में विक्रम सिंह ने कहा।
 "क्या मतलब? क्या पता नहीं है मुझे?"
  "आपको हमारे साथ पुलिस स्टेशन चलना होगा। विमला, ले चलो इन्हें।" -पहले आराधना और फिर कॉन्सटेबल की ओर देख कर विक्रम सिंह ने हिदायत की।
  अब आराधना घबराई- "मुझे यह तो बतायें कि माज़रा क्या है? मैंने क्या किया है?"
   "तुम चलो थाने, वहाँ सब मालूम हो जायेगा। चलो, बैठो जीप में।" -थानेदार से अधिक कड़क आवाज़ में कॉन्सटेबल विमला आराधना का हाथ पकड़ कर बोली। धीरे से उसके हाथ से अपना हाथ छुड़ा कर आराधना ने घर का दरवाज़ा लॉक करने की इज़ाज़त मांगी, भीतर से चाबी ला कर दरवाज़े का इंटरलॉक लगाया और उनके साथ पुलिस जीप में बैठ गई।

  थाने पर पहुंच कर थानेदार ने आराधना को सीधे ही कहा- "प्रवीण के पड़ोसी किरायेदार ने हमें बताया कि कल दोपहर आप प्रवीण के घर गई थीं। आपकी उससे क्या बातचीत हुई?"
 "हाँ, मैं उससे मिलने गई थी, किन्तु उससे मिलना नहीं हुआ। आधा घंटा इन्तज़ार करने के बाद भी जब वह नहीं आया तो मैं अपने घर लौट आई थी। लेकिन यह तो बतायें मुझे कि हुआ क्या है?"-आराधना ने जवाब दिया।
 "आपके मित्र प्रवीण का खून हो गया है।"
 "ओ माई गॉड, यह क्या कह रहे हैं आप? ऐसा कैसे हो सकता है?" -आश्चर्य और दुःख से रुआंसी आराधना के मुँह से निकला।
  "अच्छा यह बताओ, प्रवीण आप से आखिरी बार कब मिला था?"
  आराधना अब सुबक-सुबक कर रोने लगी थी।  फिर अपने आप को थोड़ा संभाल कर बोली- "तीन दिन पहले। वह मेरे घर आया था। कुछ उखड़ा-उखड़ा भी था, शायद उसके ऑफिस का कुछ टेन्शन था।"
   इधर-उधर की बातें कर कई तरह से विक्रम सिंह ने आराधना से पूछताछ की, किन्तु आराधना से कोई और जानकारी उसे नहीं मिल सकी। प्रवीण के कमरे की तलाशी में भी कोई सुराग उन्हें नहीं मिल सका था। विक्रम सिंह को पुलिस में काम करने का और लोगों को परखने का अच्छा तज़ुर्बा था। उसे यह अनुमान तो हो रहा था कि सम्भवतः आराधना निर्दोष है, फिर भी उसने आराधना को विमला के सुपुर्द किया कि शायद वह किसी तरह से उससे कुछ उगलवा सके। विमला ने थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करते हुए आराधना के गाल पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ मार कर पूछा- "अबे तूने खून नहीं किया है तो क्या मैं उसका खून करने गई थी? तेरा यह चक्कर क्या है, पहले सौतेली बेटी की मौत और फिर आशिक का सफाया? क्यों किया तुमने यह सब?"
 रो पड़ी आराधना- "आप यह ज़्यादती कर रही हो मेरे साथ। मैं क्यों मारूँगी उन्हें? मुझे तो किसी से कोई शिकायत नहीं रही। मैं कमिश्नर साहब से शिकायत करुँगी आपकी।"
 "अफसर की धौंस देती है स्साली।" -कहते हुए विमला ने एक और थप्पड़ रसीद कर दिया और उसे कमरे में ही छोड़ बाहर निकल आई।
"सर, मुझे तो लगता है, यह कुछ नहीं जानती इस बारे में।" -विमला ने विक्रम सिंह को रिपोर्ट दी।
 "ठीक है, फ़िलहाल उसे जाने दो।" -विक्रम सिंह ने कुछ सोचते हुए कहा।
 आराधना को घर जाने की इज़ाज़त दे दी गई।

  'कैसे जांच को आगे बढ़ाया जाए, कोई कड़ी ही नहीं मिल रही है। प्रवीण को जिसने भी चाकू मारा, बड़ी बेरहमी से मारा था, पर मारने वाला शातिर भी था कम्बख़्त, चाकू भी छोड़ कर नहीं गया। कमरे में लाश औंधी पड़ी मिली थी और पास में ही कुर्सी भी टेढ़ी गिरी हुई थी। इसके अलावा और कुछ भी तो नहीं मिला। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट कि कातिल ने किसी नुकीले हथियार से हत्या की है, भी हमारी मौका-मुआयना रिपोर्ट की तसदीक़ करती है। अब प्रश्न यह है कि क़त्ल का मकसद क्या था? कोई चोरी करने आया होता तो कमरे में सामान उलटता-पलटता, पर ऐसा भी कुछ नहीं दिखा। प्रवीण के पेरेंट्स पोस्टमार्टम के बाद उसकी बॉडी ले कर गाँव चले गये। उनको भी उसकी मौत के कारण की कोई जानकारी नहीं थी। केवल इतनी जानकारी उनसे मिली कि मर्डर के पांच-छः दिन पहले वह गाँव आया था और बहिन की शादी में मदद के लिए तीन लाख रुपये उन्हें दे गया था। प्रवीण के पड़ोसी के भी बयान लिये, पर उससे भी कोई जानकारी नहीं मिल सकी। खैर, कल प्रवीण के ऑफिस जा कर पता करता हूँ, आखिर अफसरों को भी तो कुछ जवाब देना पड़ेगा।' -विक्रम सिंह सोच-सोच कर परेशान था।

  थानेदार विक्रम सिंह अगले दिन प्रवीण के ऑफिस में पहुँचा। ऑफिस में उसे बताया गया कि वहाँ से तो प्रवीण शनिवार को खुशी-खुशी ही गया था और उनकी जानकारी में जॉब से सम्बंधित कोई प्रॉब्लम नहीं थी।
 यहाँ से भी बेरंग निकलना पड़ेगा, नहीं सोचा था विक्रम सिंह ने।

  शुक्रवार, 21 तारीख की सुबह टीवी के लोकल चैनल पर रविवार को हुए प्रवीण के क़त्ल का हवाला देते हुए पुलिस महकमे की खूब भर्त्सना हो रही थी। पुलिस कमिश्नर बत्रा ने खिन्न हो कर एस.पी. को फोन किया- "मिस्टर खांडेकर, आपने कुछ नया देखा आज?"
"जी सर, 'उगता सूरज' अख़बार में रविवार को हुए क़त्ल के बारे में बहुत उल्टा-सुल्टा लिखा है हमारे विभाग के खिलाफ! यह हमारे ही पीछे पड़ा रहता है सर हाथ धो कर।"
 "अख़बार तो मैंने अभी नहीं देखा। हाँ, सुबह-सुबह टीवी चालू किया तो हमारी तारीफ की जा रही थी लोकल चैनल में। यह अख़बार भी तो उसी चैनल वालों का है।...आपने कुछ एक्शन लिया इस केस में?"
 "सर, मैं आज ही उस एरिया के थानेदार को बुलवाता हूँ। आप निश्चिन्त रहें।"
 कमिश्नर ने झुंझला कर फोन रख दिया।
  एस.पी. के बुलावे पर थानेदार विक्रम सिंह एस.पी.ऑफिस पहुँचा।
 "प्रवीण मर्डर केस में क्या प्रॉग्रेस है विक्रम सिंह?" -एस.पी. खांडेकर ने पूछा।
 "सर, अभी तक कुछ खास नहीं हुआ है पर मैं इस केस के पीछे पूरी ताकत से लगा हुआ हूँ।"
 "आपने अख़बार पढ़ा आज का? 'उगता सूरज' टीवी का लोकल चैनल देखा?"
  "जी सर...सर...वो...।" -विक्रम सिंह हकलाने लगा था।
 "आप अपनी ताकत अपने पास रखिये। आज पाँच दिन बीत चुके हैं और केस वहीं का वहीं है। आपसे कुछ नहीं होने वाला। मैं यह केस आज ही डिटेक्टिव रमेश रंजन को दे रहा हूँ। आप अपनी कुर्सी पर आराम कीजिये। कमिश्नर साहब से अनुमोदन करवा लूँगा मैं।" -खांडेकर ने तल्ख़ आवाज़ में कहा और अपने सामने पड़ी फाइलों पर नज़र जमा दी।
 अपमान में जल रहे विक्रम सिंह ने सैल्यूट मारी और बोझिल कदमों से बाहर निकल आया।

   रमेश रंजन शर्मा शहर में ही नहीं, पूरे राज्य में सुप्रसिद्ध प्राइवेट डिटेक्टिव था। पुलिस विभाग से प्रवीण मर्डर केस मिलने के बाद सर्वप्रथम उसने थानेदार विक्रम सिंह से केस से सम्बन्धित अभी तक की समस्त जानकारी मांगी। विक्रम ने, बेमन ही सही, सारी जानकारी रमेश रंजन को दी।

  अब रमेश अपने काम में मुस्तैदी से लग गया। अगले ही दिन, शनिवार को सबसे पहले वह आराधना से मिला। आराधना से उसे रवीना की मौत का वृतान्त भी मिला। अब तक के घटनाक्रम और प्रवीण से सम्बन्धित जानकारी मिलने के बाद रमेश का दिल इस बात से इत्तेफ़ाक नहीं रख पा रहा था कि रवीना ने आत्महत्या की होगी, फिर भी उसने स्वयं को फ़िलहाल प्रवीण के केस तक ही सीमित रखना उचित समझा। यद्यपि आराधना से प्राप्त जानकारी उसे कोई विशेष दिशा नहीं दे सकी थी, किन्तु किसी भी केस में आगे बढ़ने के लिए ए बी सी डी से शुरुआत करना उसकी आदत में शुमार था। आज वह प्रवीण के कमरे को भी देख लेना चाहता था। 

  प्रवीण के कमरे को पुलिस ने अपने कब्जे में ले रखा था सो थाने से कमरे की चाबी ले कर वह सीधा प्रवीण के कमरे पर पहुँचा। कमरे में एक अटैच्ड किचन भी था। किचन को शायद कई दिनों से इस्तेमाल में नहीं लाया गया था। उसने किचन से ध्यान हटा कर कमरे में मौजूद लकड़ी की अलमारी में रखे सामान को खंगाला। अलमारी में कपड़ों के अलावा एक रैक में कुछ पुस्तकें व कुछ कागज़ात पड़े थे। अलमारी की भीतरी हालत देख कर रमेश को अनुमान हो गया कि पुलिस यहाँ के सारे सामान की उठा-पटक कर चुकी है। उसने अपनी तरफ से कुछ और खोजबीन की। रैक में कुछ भी ऐसी चीज़ नहीं मिली, जिससे केस में कुछ मदद मिल सके। कोई उम्मीद नहीं लग रही थी, फिर भी आलमारी में रखे कपड़ों को उल्टा-पल्टा।  प्रवीण की एक पैंट की जेब से एक पर्ची उसे मिली। पर्ची की लिखावट देख कर वह मुस्कराया, 'भाई विक्रम सिंह, ऐसे तलाशी लोगे, तभी तो दुनिया रमेश रंजन को पूछेगी!'
  पर्ची पर 200000/300000 लिखा हुआ था। हो सकता है यह किसी पैसे के लेन-देन का विवरण हो, रमेश ने अनुमान लगाया। उसे ध्यान आया, विक्रम सिंह को प्रवीण के पिता ने बताया था कि प्रवीण उन्हें तीन लाख रुपये देने आया था।
   'तो क्या यह लिखावट उससे सम्बन्ध रखती है? अगर हाँ, तो दो लाख और तीन लाख दो आँकड़े क्यों लिखे गये हैं? हो सकता है, वह इस ऊहापोह में हो कि तीन लाख दूँ या दो लाख! इसी उलझन में उसने बैठे-बैठे इस कागज़ के टुकड़े पर लिख दिया होगा। जो भी हो, मुझे जांच का एक आधार तो मिल ही गया है।', रमेश यह सोच कर अपनी आज की खोजबीन की सफलता पर खुश था। कमरे का दरवाज़ा बंद कर वह वहाँ से लौट आया।

   रात को सोते समय भी उसके दिमाग में यही सब चल रहा था। अनायास ही उसके दिमाग में एक विचार कौंधा, इतना पैसा घर पर तो कोई रख नहीं सकता, ज़रूर बैंक से ही निकलवाया होगा। प्रवीण किस बैंक से डील करता है, इस बात की जानकारी आराधना से बातचीत के दौरान संयोग से उसे मिल ही गई थी। उसे बैंक में जा कर तफ्तीश करनी होगी, हो सकता है कोई सुराग मिल जाये। उसे स्वयं पर आक्रोश हो आया, अभी तक यह बात उसके ध्यान में क्यों नहीं आई? ... सोचते-सोचते उसे नींद आ गई।

   23 तारीख, रविवार को रमेश के पास करने को कोई विशेष काम नहीं था, अतः वह परिवार के साथ शहर में घूमने के लिए निकल गया। इधर-उधर तफ़री के बाद बच्चों की फरमाइश पर सब लोग पब्लिक पार्क में जा कर फाउन्टेन के पास वाली बेंच पर बैठ गये।
  रमेश की पत्नी व दोनों बच्चे फाउन्टेन की बौछारों और उसके इर्द-गिर्द की फुलवारी को देखने का लुत्फ़ ले रहे थे और रमेश मन ही मन अपनी आगे की कार्य-योजना बनाने में व्यस्त हो गया।
"लो जी, आपका दिमाग तो जासूसी में लग गया है। अगर यूँ ही खामोश बैठे रहना था तो यहाँ पार्क में क्यों लाये हो? इससे तो घर ही चलते हैं।" -रमेश की पत्नी जूही ने कुछ झुंझला कर कहा।
  यह सुनते ही चार वर्षीय बेटी गुड्डी ने मम्मी के मुँह पर अपनी नन्ही हथेली फिराते हुए मनुहार की- "नईं मम्मा, थोड़ी देर और बैठेंगे। आप पापा को परेशान मत करो।"
  सात साल के बेटे मोनू ने भी आशा भरी नज़रों से मम्मी की ओर देखा।
 "अच्छा-अच्छा, ठीक है. पापा की चम्मच!" -जूही ने मुस्करा कर एक तरह से दोनों को ही आश्वस्त किया।

  आज सोमवार था। तैयार हो कर रमेश प्रवीण की बैंक में जा कर मैनेजर से मिला और अपना विजिटिंग कार्ड दिखा कर परिचय दिया। उसने एस.पी. के द्वारा प्रदत्त इन्वेस्टीगेशन-पत्र दिखा कर बैंक मैनेजर को बताया कि उसे प्रवीण मर्डर केस की जांच  लिए नियुक्त किया गया है। मैनेजर ने रमेश के द्वारा पूछे जाने पर बताया कि कुछ दिन पहले 10 तारीख, सोमवार को प्रवीण ने इस बैंक से पाँच लाख रूपये निकाले थे।
 'ओह, पाँच लाख यानी कि दो + तीन, पाँच! प्रवीण की पैंट से मिली उस पर्ची पर दो आंकड़े 200000/300000 लिखे थे। अगर प्रवीण ने अपने पिता को तीन लाख ही दिए थे तो दो लाख कहाँ गये? प्रवीण के कमरे की तलाशी
में यह राशि न तो पुलिस  मिली, न ही मुझे। माज़रा क्या है?' रमेश का दिमाग चकरा रहा था।
 "रमेश साहब, कहाँ खो गए?" -मैनेजर की निगाह रमेश के चेहरे पर थी।
 "ओह, क्षमा करें मैनेजर साहब।" -रमेश ने सहज होते हुए जवाब दिया और धन्यवाद की औपचारिकता के बाद बैंक से निकल आया।

 बैंक से लौटते समय भी उसके दिमाग में वही विचार चल रहे थे। 'यदि कोई चोर-उचक्का बैंक से उसके पीछे लगा होता तो केवल दो लाख पर हाथ साफ थोड़े ही करता। हो सकता है कि दो लाख का एक बंच उसने अलग जेब में रखा हो और जेबकतरे ने उस पर हाथ साफ कर लिया हो।' यह बात दिमाग में आते ही उसे स्वयं पर हँसी आई, 'कैसा मूर्ख हूँ मैं? अरे, इतनी बड़ी राशि की जेब कटी होती तो क्या प्रवीण पुलिस को रिपोर्ट नहीं करता?'
  रमेश का मन उखड़ गया। उसने निश्चय किया कि वह घर पर जा कर कुछ देर इन सब बातों को भूल कर आराम करेगा।

   रमेश लंच करके सो गया। शाम के साढ़े पांच बज रहे थे, जब उसकी नींद खुली।
  बाथरूम में शॉवर ले कर वह तैयार हुआ। जूही चाय के लिए उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। चाय पीते -पीते भी उसका दिमाग चल रहा था। सहसा उस के मन में मंगत राम के परिवार से भी मिलने का विचार आया। मंगत राम के वर्तमान ठिकाने की जानकारी उसे आराधना से मिल ही गई थी। उसने मुकर्जी चौक जा कर सेठ दीनदयाल का मकान तलाशा और दरवाजे पर लगी घंटी बजाई।
  "सेठ जी घर पर पर नहीं हैं।" -भीतर से आई एक औरत ने बिना पूछे ही सूचित किया।
रमेश ने उसके पहनावे से अनुमान लगाया कि शायद यही राधा है, बोला- "मुझे मंगत राम जी से मिलना है।"
 "वह बाहर क्वार्टर में सोये हैं। उनकी तबियत ख़राब है।"
 "कोई बात नहीं, दो मिनट बात कर लेता हूँ उनसे। तबीयत भी पूछ लूँगा उनकी।" -मुस्कराते हुए रमेश ने कहा।
राधा- "कहाँ से आये हो आप?"
रमेश- "मैं आराधना जी का मिलने वाला हूँ। यूँ ही आ गया था उनसे मिलने।"
राधा- "आइये, मैं ले चलती हूँ उनके पास।"
 राधा रमेश को सर्वेन्ट क्वॉटर में ले गई। मंगत राम एक चारपाई पर लेटा था। एक अजनबी को राधा के साथ आया देख वह उठ कर बैठ गया।
 राधा- "आराधना बीबी जी के वहाँ से आये हैं। आपसे मिलने आये हैं।"
मंगत राम ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और बोला- "हाँ साहब, बताइये।"
रमेश ने उसकी टोह लेने के लिए पूछा - "आराधना जी ने बताया था कि पहले तुम लोग उनके घर पर काम करते थे। वहाँ से काम क्यों छोड़ दिया? वह बेचारी बहुत परेशान हैं।"
 मंगत राम- "रवीना दीदी की मौत के बाद हमारा मन वहाँ लगता नहीं था सा'ब।....और फिर साफ बताएँ आपको तो, रवीना दीदी के जाने के बाद आराधना बीबी जी का प्रवीण बाबू से मेलजोल हमको अच्छा नहीं लगता था।" 
"प्रवीण बाबू को तो रवीना दीदी के लिए पसन्द किया था उन्होंने। आप उनके मिलने वाले हो सा'ब, आपको बुरा तो लगेगा पर आप ही बताओ क्या यह अच्छी बात है?" -राधा ने भी अपनी तरफ से जोड़ा।
  रमेश को उनकी साफ-सपाट बात लॉजिकल लगी। उसे इन लोगों की कुण्ठा समझ में आ गई।
  "हम्म! आपकी एक बच्ची भी है न, वह कहाँ है?" -कोई जवाब नहीं सूझा तो रमेश ने यही पूछ लिया।
 राधा- "चंदना भीतर सेठ जी के यहाँ खाना बना रही है। मैं भी अभी उसके साथ ही काम कर रही थी।"
 "अच्छा, मैं चलता हूँ।"-रमेश ने कहा।

  लौटते समय रमेश मंगत राम और राधा के द्वारा आराधना का घर छोड़ने के औचित्य से संतुष्ट था। मंगत राम परिवार की प्रवीण के केस से किसी भी प्रकार की संलिप्तता की शंका उसके दिमाग में नहीं रही थी।

  घर लौटने के बाद उसने पूरे घटनाक्रम पर फिर से मनन किया तो उसे लगा कि चेन की एक कड़ी अभी भी बाकी है, शायद उसी से बात बन जाए। उसका अगला कदम था, प्रवीण के पड़ोसी किरायेदार से पूछताछ करना!

  अगले दिन मंगलवार की शाम वह अपने गंतव्य पर पहुँचा। वह काफी नर्वस था कि चार दिन हो चुके हैं और अभी तक केस में विशेष प्रगति नहीं हो पाई है। बैल बजाने पर एक व्यक्ति बाहर आया- "फरमाइये, किसे पूछ रहे हैं?
 "देखिये, मैं प्राइवेट डिटेक्टिव रमेश रंजन शर्मा हूँ। पुलिस ने प्रवीण मर्डर केस के इन्वेस्टीगेशन के लिए मुझे एपॉइन्ट किया है। क्षमा करें, आपके दस मिनट लूँगा मैं।"
 "ओह, भीतर आइये। मुझे क्षितिज कहते हैं।"
 ड्रॉइंग रूम में सीट ऑफर कर क्षितिज ने पूछा- "क्या लेंगे आप, चाय या कॉफी?"
 "जी नहीं, धन्यवाद! मैं सिर्फ पानी लूँगा।"
    क्षितिज की पत्नी पानी के गिलास ले कर आई और वहीं एक कुर्सी पर बैठ गई।
  "यह मेरी पत्नी रम्भा हैं और आप डिटेक्टिव हैं मि. रमेश रंजन शर्मा।" -क्षितिज ने दोनों का परिचय करवाया।
 औपचारिक अभिवादन की प्रक्रिया के बाद रमेश ने क्षितिज से पूछा- "आप अपने पड़ोसी प्रवीण वर्मा से तो अच्छी तरह परिचित रहे होंगे?
 "नहीं शर्मा साहब, हमारा कुछ विशेष संपर्क नहीं था उनसे। केवल इतना ही जानते हैं कि वह यहाँ रहते थे। कई बार तो उनकी रातें बाहर ही बीतती थीं।" -यह कह कर क्षितिज ने अपनी पत्नी की ओर देखा।
 "अच्छे चालचलन वाला आदमी नहीं था वह। अब जो आदमी इस दुनिया में है ही नहीं उसके लिए क्या कहें साहब!"- रम्भा ने क्षितिज की बात की एक तरह से पुष्टि की।
 रमेश के लिए यह चौंकाने वाली बात थी। उसने पूछा- "पुलिस को यह बात बताई थी आपने? आपकी इस जानकारी का आधार क्या है?
 "शर्मा साहब, आपको यह बात बता रहे हैं। पुलिस को बयान देने में तो थोड़ी सावधानी रखनी होती है। दरअसल एक औरत अक्सर इनसे मिलने आती थी। दो-तीन बार तो आमने-सामने निगाह भी मिली थी उससे।" -क्षितिज की बजाय रम्भा ने जवाब दिया।
 "एक ही औरत आती थी या कोई और भी आती थी?"
 "बाहर क्या करता था वह, नहीं पता। यहाँ तो एक को ही देखते थे। एक बार तो मुझसे भी फटकार खा चुका था वह। और हाँ, अभी-अभी उसकी हत्या के कुछ दिन पहले से कोई आदमी भी आता था। हमने उसे देखा तो एक बार ही था पर उसके बोलने की आवाज़ दो बार सुनी थी। कई बार मेरी शाम की ड्यूटी होने से यहाँ हम में से कोई नहीं होता था इसलिए अधिक जानकारी नहीं, लेकिन एक दिन किसी लेन-देन को ले कर उनके बीच झड़प की आवाजें भी सुनाई दी थीं।" -इस बार भी रम्भा ने ही जवाब दिया।
"जब प्रवीण की हत्या हुई तब आप लोग कहाँ थे?"
"हम लोग मूवी देखने गये थे। लौट कर प्रवीण के कमरे की ओर नज़र गई तो दरवाज़ा खुला था और लुढ़की हुई कुर्सी के पास वह फर्श पर औंधा पड़ा हुआ था। दरवाज़े के पास जा कर देखा तो उसके शरीर से खून निकल कर फर्श पर फैला हुआ था। खून के कई छींटे कमरे की देहरी के बाहर तक आये हुए थे। मैंने ही पुलिस को फोन कर यह सूचना दी थी।"-क्षितिज ने कहा।
 उस आदमी के हूलिये की जानकारी लेने के बाद धन्यवाद दे कर रमेश चला आया। हूलिये के आधार पर उसके शक की सुई अब मंगत राम पर आ टिकी थी।
  रात होने वाली थी और केस  में गहन मनन की आवश्यकता थी अतः वह सीधा घर ही चला आया। 

 खाना खाने के बाद रमेश अपने रीडिंग रूम में आ गया। मेज़ पर अपना सिर रख कर वह चिंतन में डूब गया। 'यदि प्रवीण के वहाँ जाने वाला आदमी मंगत राम है तो प्रवीण से क्या सम्बन्ध हो सकता है मंगत राम का? यदि यह हत्या उसने की है तो इसके पीछे उसका उद्देश्य क्या रहा होगा? दोनों के बीच लेन-देन किस बाबत हो सकता है? जिसने भी हत्या की है, उसने निश्चित रूप से प्रवीण के दरवाज़ा खोलते ही उस पर आक्रमण किया होगा। कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह बैंक से निकाले दो लाख रुपये प्रवीण ने मंगत राम को ही दिए हों। जो भी है, मुझे मंगत राम के बैंक खाते में उसके लेन-देन का ब्यौरा लेना होगा।"

  अगले दिन रमेश आराधना के घर जा कर मंगत राम के बैंक व खाता संख्या की जानकारी ले कर आया और मॉडर्न कोऑपरेटिव बैंक पहुँचा। अपना परिचय दे कर मंगत राम के खाते में पिछले एक माह के लेन-देन का विवरण लिया। चैक करने पर उसने पाया कि इसी माह की 11 तारीख को उसके खाते में दो लाख रुपये जमा हुए हैं। रमेश की आँखें चमक उठीं। बैंक से निकल कर बिना समय नष्ट किये वह सीधा मंगत राम से मिलने जा पहुँचा। मंगत राम घर पर नहीं था। रमेश उससे बात किये बिना लौटना नहीं चाहता था, अतः वहीं प्रतीक्षा करता रहा। मंगत राम जब घर पहुँचा तो रमेश को दूसरी बार आया देख कर चौंका। कुछ औपचारिक बातों के बाद रमेश ने सीधे ही अपना प्रश्न दाग दिया- "मंगत राम, तुम्हारे बैंक में इस महीने में दो लाख रुपये जमा हुए हैं। कहाँ से आये यह रुपये?"
  यह सुनते ही मंगत राम चौंक पड़ा और हकलाते हुए बोला- "वो ह..ह ...हम लोगों ने घर में बचत कर के इकट्ठे किये थे, वो जमा कराये थे।", फिर थोड़ा सावधान हो कर उसने कहा- "मगर आप हो कौन और आपको इससे क्या मतलब है?"
 रमेश का दिमाग तेजी से काम कर रहा था, मंगत राम को बिना अधिक समय दिये उसने दूसरा प्रश्न पूछा- "रवीना की मौत कैसे हुई थी?"
"मुझे नहीं पता। आप  कौन हो और क्यों पूछ रहे हो ये सब?" -वह अपनी बौखलाहट छिपा नहीं सका और खड़ा हो कर रमेश को घूरने लगा। 
 "घबराओ मत मंगत राम, यूँ ही पूछ रहा था। मत बताओ तुम, मैं चलता हूँ।" -रमेश का उद्देश्य पूरा हो गया था। जब वह लौटने के लिए मुड़ा, उसे मंगत राम के चारपाई पर धम्म से बैठने की आवाज़ सुनाई दी।

  रमेश रंजन का मक़सद पूरा हो गया था। अनुभवी व कुशाग्रबुद्धि रमेश रंजन को नतीजे पर पहुँचने में देर नहीं लगी। जांच-पड़ताल करने की उसकी एक सीमा थी। इससे अधिक बात जानने या उगलवाने की प्रक्रिया का अधिकार उसको प्राप्त नहीं था। वह अपनी कार में बैठा और सीधा एस.पी. ऑफिस गया। जैसे ही गार्ड के द्वारा उसने अपना कार्ड भिजवाया, एस.पी. खांडेकर ने उसे तुरन्त अपने चैम्बर में बुलवा लिया। 
"हाँ शर्मा जी, एनी प्रॉग्रेस?"
 "जी सर, सबसे पहले तो मेरी भुगतान-राशि की अग्रिम किश्त भिजवाने के लिए धन्यवाद देना चाहूँगा।" -मुस्करा कर रमेश ने कहा। 
"अरे वह तो ठीक है मि. रमेश रंजन! आप केस के बारे में बतायें, ऊपर से बड़ा प्रेशर आ रहा है।" -खांडेकर भी मुस्कराये, किन्तु उनका स्वर गम्भीर था। 
"सर, प्रवीण वर्मा के कातिल का पता लग गया है। आप उसे पूछताछ के लिए बुलवा लें।"
"कौन है कातिल? आप पूरी तरह से आश्वस्त हैं?"
 "जी हाँ, आप निश्चिन्त रहें। आराधना का पूर्व नौकर मंगत राम।"
 खांडेकर पहले भी रमेश रंजन को तीन-चार केस सौंप चुके थे, अतः उन्हें उस पर पूरा भरोसा था। फोन कर के उन्होंने उस क्षेत्र के थानेदार सुदेश कुमार को तुरंत अपने ऑफिस में पहुँचने का आदेश दिया। 
खांडेकर ने थानेदार के आते ही उसे प्रवीण वर्मा के क़त्ल के बारे में ब्रीफ किया और मंगत राम को थाने में बुलवा कर कड़ी पूछताछ करने के निर्देश दिये। 
 "आप चाहो तो मि. रमेश रंजन से रिक्वेस्ट कर के इनसे और जानकारी ले सकते हो।" -खांडेकर ने अतिरिक्त सलाह दी। 
रमेश रंजन ने अभिवादन किया तथा थानेदार ने सैल्यूट कर के एस.पी. से विदा ली। 

थानेदार सुदेश कुमार ने रमेश रंजन से लम्बी बातचीत के बाद मंगत राम को अपने थाने पर बुलवा लिया। 
 मंगत राम दो-तीन घंटे की सख्ती में ही टूट गया। उसने थानेदार के समक्ष बयान दिए जिसे ए.एस.आई. ने सविस्तार कलमबद्ध किया। 
संक्षेप में मंगत राम के स्वीकारोक्ति-बयान का मजमून इस प्रकार था ---
 "प्रवीण एक लम्पट किस्म का व्यक्ति था। उसे रवीना के लिए पसन्द किया गया था, लेकिन वह आराधना पर भी डोरे डाल रहा था। रवीना इस बात से परेशान थी। एक दिन आराधना और रवीना कहीं बाहर गये हुए थे और राधा बीमार थी। मैं भी किसी काम से घर से बाहर गया हुआ था। प्रवीण आराधना के घर आया तो चंदना वहाँ अकेली काम कर रही थी। उसने मेरी लड़की चंदना को बहला-फुसला लिया और उसके साथ बुरा काम किया। उसने उसे किसी को यह बात नहीं बताने के लिए डराया-धमकाया भी। चार-पाँच दिन तक जब उसे लगातार उदास और परेशान देखा तो राधा ने उसे प्यार से समझा-बुझा कर पूछा तो उसने सच बता दिया और कहा कि प्रवीण ने उससे ब्याह करने का वादा किया है। हम लोग भी कुछ तो बदनामी के डर से और कुछ प्रवीण की बात पर भरोसा कर के खामोश रहे।  मुझे लगा कि मेरी चंदना के लिए रवीना का ज़िंदा रहना खतरा बन सकता है और इसी डर ने मेरी बुद्धि ख़राब कर दी। मुझे पता था कि रवीना रात को सोते समय दूध लेती थी सो एक दिन बाजार से जहर ला कर मैंने मौका देख कर चुपके-से उसके दूध के गिलास में मिला दिया। यह पाप मुझसे हो गया था और राधा को भी कुछ दिनों के बाद मैंने ग़लती से बता दिया। वह बहुत नाराज़ हुई और दुखी भी बहुत हुई कि मैंने उस बेक़सूर को मार डाला था। अगले दो महीनों में प्रवीण ने चंदना के साथ दो-तीन बार और कुकर्म किया। यह बात हमें तब पता चली जब चंदना महीने से नहीं हुई। मैंने और राधा ने चंदना को इस बात के लिए पीटा भी। अब तो प्रवीण से बात करना ज़रूरी हो गया था। मैं प्रवीण से दो-तीन बार मिला तो उसने टालमटोल करने की कोशिश की। जब मैंने उसे आराधना को यह बात बताने की धमकी दी तो उसने मुझे दो लाख रुपये दिये और कहा कि बच्चा गिरवा दो। उसने फिर से चंदना से शादी का वादा किया। मैंने एक दिन फिर उसके पास जा कर कहा कि वह जल्दी शादी करे और आराधना को भी अपना फैसला बता दे तो उसने डपट कर मुझे धमकाया और अपनी औकात में रहने के किये कहा। उसने यह भी कहा कि वह इसकी कीमत दे चुका है। शायद वह पिये हुए था। मेरा दिमाग भन्ना गया। हम ग़रीबों की इज़्ज़त ही सब-कुछ होती है। मैं चाकू ले कर अगले दिन दोपहर बाद उसके घर गया।  उस समय उसका अकेला पड़ोसी भी घर पर नहीं था। मेरे लिए अच्छा मौका था, मैंने घंटी लगाई। जैसे ही प्रवीण ने दरवाज़ा खोला, मैंने उसके पेट और सीने पर ताबड़तोड़ चाकू के तीन वार किये। मैं साथ में एक थैले में एक जोड़ी कपड़े भी ले गया था। अब सिनेमा देखते हैं तो अकल आ ही जाती है। मेरे कपड़ों पर भी खून की फुहार गिरी थी सो कपड़े बदल कर पहले वाले कपडे व चाकू थैले में रख कर लौट आया। मुझे अपनी गलती का कोई पछतावा नहीं है।"
  मंगत राम की अपराध की स्वीकारोक्ति के बाद पुलिस ने उस पर धारा 302 व सम्बंधित अन्य दो धाराओं में केस दर्ज किया। राधा को मंगत राम का अपराध छिपाने का दोषी ठहरा कर उसके विरुद्ध भी केस दर्ज किया गया। 
  आराधना को अनुताप था कि उसने प्रवीण को पहचानने में भूल की थी। वह इस सारे घटनाक्रम में कहीं न कहीं स्वयं को भी दोषी मान रही थी। अकेली रह गई चंदना को वह प्रायश्चित्तस्वरूप अपने घर ले गई ताकि उसे अपने संरक्षण में रख सके। 
                                                      **************
                                                           समाप्त     
      **************                                                       

टिप्पणियाँ

  1. बहुत रोचक कथा है आदरणीय सर । एकदम पूरी पढ़ गयी । हार्दिक शुभकामनायें आपके लिए। ये मेरा दूसरा अकाउंट है । मोबाइल में यही है । सादर🙏🙏

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  2. धन्यवाद रेनू जी, आपने मेरे लेखन को गरिमा प्रदान की है!...आभार!

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