सुना है आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है।... तो बधाई तो दे ही दूँ मैं भी सभी सम्माननीय महिलाओं को!
पुरुष-वर्ग की शुभकामनाएँ व बधाइयाँ प्राप्त कर महिलाएँ प्रसन्न भी हो रही होंगी, किन्तु आज के समाज से पूछें वह कि उनकी इज़्ज़त और सम्मान के लिए क्या प्रयास किये जा रहे हैं! संसद में विराजमान महिला-प्रतिनिधि शासन को स्मरण कराएँ कि निर्भया के साथ हुई दरिन्दगी वाले हालात आज भी यथावत हैं। जब महिला का जीने का, सम्मानपूर्वक जीने का नैसर्गिक अधिकार ही बाधित किया जा रहा है तो इस महिला दिवस को मनाने के ढकोसले का औचित्य ही क्या है!
बहुत व्यथित हो कर अपने यह उद्गार व्यक्त कर रहा हूँ जब देख रहा हूँ कि निर्भया-बलात्कार व हत्याकाण्ड के घोषित व प्रमाणित अपराधी अपने नापाक संरक्षकों की सरपरस्ती में कानून के साथ घिनौना खिलवाड़ कर रहे हैं। प्रशासन व न्याय-रक्षक भी विवश निगाहों से यह सब देख रहे हैं। मैं महसूस कर रहा हूँ, देश का आम नागरिक महसूस कर रहा है न्याय में हो रहे इस निर्लज्ज विलम्ब को देख रोते-रोते अब सूख चली निर्भया की माता की बेबस आँखों में बसी पीड़ा को।
यदि कानून इस तरह काम करेगा तो फिर हैदराबादी एनकाउंटर की तरह से ही संजीदा और न्यायप्रिय पुलिस वाले भविष्य में भी स्वयं न्याय क्यों नहीं करेंगे? यदि अंधे कानून के भय से उन्होंने न्याय नहीं किया तो जनता को स्वयं न्याय करना होगा, देश की वर्तमान व्यवस्था को यह समझ में आ जाना चाहिए। यदि अराजकता को निमंत्रण नहीं देना चाहते तो सड़ी-गली कानून-प्रणाली को समय रहते सुधार लिया जाना चाहिए। आमूल-चूल परिवर्तन कर संविधान का नव-निर्माण किया जाय या इसमें असंगत धाराओं को हटा कर जन-साधारण के हित की धाराएँ रखी जाएँ, जोड़ी जाएँ। वोट की राजनीति वर्तमान व अगली पीढ़ियों को भी बर्बाद कर देगी, इसको समझा जाए। सही और न्याय-पक्ष में उचित कानून बनाये जा कर कठोरता से पालन कराया जाये और यदि विद्रोह के स्वर उपद्रव करने पर उतारू हो जाएँ, तो उन्हें सम्पूर्ण शक्ति से कुचल दिया जाये, चाहे कितनी ही जन-हानि क्यों न हो। प्रशासन अनुशासन और आवश्यक सख्ती से चलाया जाता है, 'भाईसाहब' और 'पिताजी' के सम्बोधनों का प्रयोग कर के नहीं। सरकार को पूर्ण मनोबल से अपनी नीतियों का क्रियान्वयन कराना चाहिए। सरकार इसमें संकोच न करे, डरे भी नहीं। समर्थ शासक-दल को चुनाव में भी पूरा लाभ मिलेगा और अनावश्यक टरटराने वाले मेंढकों को गड्ढ़ों में छिपने को विवश होना पड़ेगा, क्योंकि जनता में अधिकांश लोग समझदार व विवेकशील होते हैं।
निर्भया के बलात्कारी दरिन्दों को बचाने की कोशिश करने वाले व उनके प्रति सहानुभूति रखने वाले भी उसी दर्जे के नारकीय कीड़े हैं जितने कि बलात्कारी हत्यारे। भारतीय संस्कृति का धार्मिक विश्वास कहता है कि अपराधी पिशाचों को उनके अंतिम परिणाम तक पहुँचाने में बाधा डालने वाले सफ़ेदपोश मक्कारों को भी निश्चित रूप से ऐसी ही पीड़ा भुगतनी होगी जितनी निर्भया ने भोगी थी या निर्भया के माता-पिता अनुभव कर रहे हैं।
संसद में बैठे पक्ष-विपक्ष के नेता उस निरीह जनता के विषय में सोचें जिसकी कृपा से उन्होंने यह रुतबा हासिल किया है, डरें उस ऊपर वाले के कहर से जो जनता का भी रखवाला है।
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