सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

किसको जगाना चाह रहे हो...

     किसको जगाना चाह रहे हो भाई सिकन्दर! क्या चलती फिरती लाशों को? नहीं सुनेगा कोई तुम्हारी आवाज़ को, क्योंकि खुदगर्जी ने सब की आंखों पर पर्दा डाल रखा है और उन्हें वही दिखाई देता है जो वह देखना चाहते हैं। बात-बहादुर यह लोग सोशल मीडिया पर मानवता की दुहाई देने और बड़ी-बड़ी डींगें हांकने तक सीमित हैं। अपने आसपास हो रहे अत्याचार, लूट या हत्या-बलात्कार से इनकी सम्वेदना जागृत नहीं होती, जागृत हो भी तो कैसे क्योंकि वह तो मर चुकी है। यह लोग हर दुर्घटना या अनहोनी होने पर पुलिस और सरकार का मुँह देखेंगे और उनकी ही जिम्मेदारी मान कर अपनी आंखें फेर लेंगे, जब कि जिनकी जिम्मेदारी वह मान रहे हैं वह भी हद दर्जे तक गैरजिम्मेदार हैं, कुछ अपवाद छोड़कर।      अंधेरा ही अंधेरा है मेरे दोस्त, दूर-दूर तक रौशनी की एक झलक भी दिखाई नहीं देती। बस हम भारत की प्राचीन गौरव-गाथा और हमारी संस्कृति का गुणगान कर कर के खुश होते रहें...

स्वच्छता अभियान (लघुकथा)

        मेरा शहर स्मार्ट सिटी बनने जा रहा था और इस कड़ी में अभियान को चलते एक वर्ष से कहीं अधिक समय निकल चुका था।        शहर के एक प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र की टीम ने स्वच्छता अभियान के तहत नए वित्त वर्ष में सर्वप्रथम स्थानीय कलक्टर कार्यालय के सम्पूर्ण परिसर की जाँच-पड़ताल की तो समस्त परिसर में गन्दगी का वह आलम देखा कि टीम के सदस्य भौंचक्के रह गये। कहीं सीढियों के नीचे कबाड़ का कचरा पड़ा था, तो कहीं कमरों के बाहर गलियारों की छतें-दीवारें मकड़ियों के जालों से अटी पड़ी थीं। एक तरफ एक कोने में खुले में टूटे-फूटे फर्नीचर का लम्बे समय से पड़े कबाड़ का डेरा था तो सीढियों से लगती दीवारों पर जगह-जगह गुटखे-पान की पीक की चित्रकारी थी। साफ़ लग रहा था कि महीनों से कहीं कोई साफ-सफाई नहीं की गई है।      समाचार पत्र ने अगले ही दिन अपने मुखपृष्ठ पर बड़े-बड़े अक्षरों में उपरोक्त हालात उजागर कर शहर की समस्त व्यवस्थाओं को सुचारू रखने के लिए ज़िम्मेदार महकमे की प्रतिष्ठा की धज्जियाँ उड़ा दी।      कहने की आवश्यकता नहीं कि मुखपृष्ठ पर नज़र पड़ते ही कलक्टर साहब की आज सुबह की चाय का जायका ही बिगड़ गया। अनमने ढंग

एक आम आदमी

     पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव अब एक आम आदमी हैं फिर भी उन्होंने अपना पूर्व में आवंटित बंगला बदस्तूर अपने पास कायम रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी है। आम आदमियों में से कई ऐसे विपन्न भी हैं जिनके सिर पर छत नहीं है और वह अपनी रातें

मैंने उसके बदन पर हाथ रखा! (प्रहसन)

    रास्ता कुछ ज्यादा ही तंग था। मैं अपना दृष्टि सुधारक यंत्र (चश्मा) घर पर भूल गया था और ऊपर से रात का अँधेरा गहरा आया था। स्कूटर की हैडलाइट ने भी अभी पांच मिनट पहले ही नमस्ते कर दी थी। नगर निगम इस इलाके में ब्लेक-आउट जैसी स्थिति रखता है सो बिजली की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। ऐसे में राह में आगे क्या-कुछ है, जानना बहुत सहज नहीं था....सो मंथर गति से चल रहा मेरा स्कूटर संभवतः किसी के शरीर से हलके से छू गया। घबराहट के मारे मेरे कान सतर्क हो गये कि अब कुछ न कुछ मेरे पुरखों का गुणगान होगा। लेकिन ऐसा कुछ न हुआ, शायद स्कूटर उसे न ही छुआ हो, मैंने सोचा।      अब भी स्कूटर को मैं धीरे-धीरे ही आगे बढ़ा रहा था क्योंकि वह बंदा, जो कोई भी था, जगह देने का नाम ही नहीं ले रहा था। अब मैं थोड़ा और सतर्क हो गया। अवश्य ही यह सिरफिरा, मगरूर शख्स, सत्ता-पक्ष या विपक्ष के किसी दबंग नेता का मुँहलगा प्यादा होगा और इसीलिए 'हम चौड़े, सड़क पतली' वाले अहसास के चलते इस अंदाज़ में बेफिक्र चल रहा था। गुस्सा तो ऐसा आ रहा था कि चढ़ा दूँ स्कूटर उसके ऊपर, किन्तु ऐसा करने का कलेजा कहाँ से लाता!       'साहब मेहरबान तो

यह तो जनता की विवशता है!

    कर्नाटक की चुनावी बढ़त न तो BJP की जीत है और न ही मोदी जी का जादू! यह तो जनता की वह विवशता है जिसने

मैं ढूंढ रहा हूँ मुकेश अम्बानी को...!

        अभी कुछ डेढ़-दो वर्ष पहले की ही तो बात है जब फोन पर बात करते समय कई लोग ध्यान रखते थे कि बात करते-करते कितनी देर हो गई है और यह भी ध्यान रखते थे कि उस सिम से बात की जाये जिसमें call rate कम हो। यदि सामने वाले व्यक्ति ने कॉल लगाया हो तो ज्यादा चिंता नहीं होती थी पर यदि हमने लगाया हो तो बात लम्बी हो जाने पर -'सॉरी यार, कोई गेस्ट आया है', कह कर फ़ोन काट दिया करते थे, बशर्ते कि सामने वाला कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति न हो और या कि कोई बहुत ही महत्वपूर्ण बात न हो रही हो।    अभी आज सुबह की ही तो बात है, मैं किसी ज़रूरी काम से घर से बाहर निकलने को ही था कि एक परिचित सज्जन का फोन आया। वैसे तो महीनों तक उन्हें कभी मिलने की फुर्सत नहीं होती, पर फोन पर उनका स्नेह-प्रदर्शन कृष्ण-सुदामा के स्नेह-मिलन की गहनता को भी लज्जित करता था। उनके स्नेहालाप का विषय विविधताओं से परिपूर्ण होता है, अडोस-पड़ोस से लेकर विश्व-स्तर तक के मुद्दों को खंगाल डालते हैं अपनी बातों के दौरान।     आज भी जब 10-12 मिनट हो गए उनसे बात करते-करते और मेरे बीच-बीच के विरोधात्मक नुक्तों को, यथा- 'ओके यार तो मिलो कभी जल

मैं परेशां हूँ मित्रों...!

     कुछ दिनों से मैं परेशां हूँ मित्रों! आपसे समाधान पाने की उम्मीद से यह सब बयां कर रहा हूँ। अभी कुछ ही समय पहले की बात है, हमारे मकान में एक किरायेदार आ गया, हम नहीं चाहते थे फिर भी। बाद में कुछ ही दिनों में उसने