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डायरी के पन्नों से ..."नदी और किनारा"

मन में गुँथी वैचारिक श्रृंखला ही कभी-कभी शब्दों में ढ़ल कर कविता का रूप ले लेती है - मेरे कॉलेज के दिनों की उपज है यह कविता भी ...सम्भवतः आप में से भी कुछ लोगों ने जीया होगा इन क्षणों को!

डायरी के पन्नों से ..."उसकी दीपावली"

कविता की अन्तिम दो पंक्तियों में निहित भाव के लिए समस्त कवि-बन्धुओं से क्षमायाचना के साथ प्रस्तुत है मेरी डायरी के पन्नों से एक और अध्ययनकालीन रचना - "उसकी दीपावली"                                                                  

कल फिर बलात्कार हुआ...

       कल ही की तो बात है। कल प्रातः मैं अपने घर के अहाते में बैठा चाय की सिप लेता हुआ अखबार की ख़बरें टटोल रहा था कि अचानक वह हादसा हो गया।           एक तीखी चुभन मैंने अपने पाँव के टखने पर महसूस की। देखने पर मैंने पाया कि एक डरावना, मटमैला काला मच्छर मेरे पाँव की चमड़ी में अपना डंक गड़ाए बैठा था। मेरी इच्छा और सहमति के बिना हो रहे इस बलात्कार को देखकर मेरा खून खौल उठा और मैंने निशाना साधकर उस पर अपने दायें हाथ के पंजे से प्रहार कर दिया। बचकर उड़ने का प्रयास करने के बावज़ूद वह बच नहीं सका और घायल हो कर नीचे गिर पड़ा।          इस घटनाक्रम के दौरान दूसरे हाथ में पकड़े चाय के  कप से कुछ बूँदें अखबार के पृष्ठ पर गिरीं। आम वक्त होता तो  उन अदद अमृत-बूंदों के व्यर्थ नष्ट होने का शोक मनाता, लेकिन उस समय मेरे लिए अधिक महत्वपूर्ण था धरती पर गिरे उस आततायी को पकड़ना। मैंने चाय का कप टेबल पर रखकर उस घायल दुष्ट को पकड़ कर उठाया और बाएं हाथ की हथेली पर रखा। मेरी निगाहों में उसके प्रति घृणा और क्रोध था पर फिर भी मेरे मन के विवेक ने कहा कि कानून हाथ में लेना ठीक नहीं है। फिर विवेक ने ही इसका प्रत

डायरी के पन्नों से ..."कविता मैं कैसे लिखूं"

       डॉ. प्रियंका (हैदराबाद) के साथ हुए हादसे के बाद आज दि. 5-12-2019 को मैंने चार नवरचित पंक्तियाँ मेरी इस पूर्व -प्रकाशित कविता में और जोड़ी हैं।...    दामिनी का बस में बलात्कार और फिर निर्मम हत्या, मासूम प्रद्युम्न की विद्या के मंदिर (विद्यालय ) में क्रूरतापूर्ण हत्या, धर्मांध और भोले-भाले लोगों को अपने जाल में फंसाकर व्यभिचार का नंगा तांडव करने वाले 'राम-रहीम' जैसे बाबा ...और ऐसे अनाचारों के प्रति धृतराष्ट्रीय नज़रिया रखने वाले, अपने राजनैतिक स्वार्थ के चलते इन्हें पोषित करने वाले, राजनेताओं को जब मैं देखता हूँ तो मन अपने-आप से पूछता है- जिसे देवभूमि कहा जाता था, क्या यही वह राम और कृष्ण की धरती है?     ...इस सबसे प्रेरित हैं मेरे यह उद्गार..."कविता मैं कैसे लिखूं"       दामिनी  की चीख अभी  भी, गूंजती  हवाओं  में, प्रद्युम्न  की मासूम  तड़पन, कौंधती  निगाहों में, नींद में  कुछ  चैन पाऊं, वो  ख्वाब नहीं  मिलते, कविता  मैं  कैसे  लिखूं, अलफ़ाज़ नहीं  मिलते। डॉक्टर को अपवित्र किया,जला दिया हैवानों ने, हर बस्ती को नर्क बनाया,कुछ पागल शैतानों ने।  लहू

डायरी के पन्नों से ..."पांच सूत्री कार्यक्रम"

     विषय भी पुराना है, सन्दर्भ भी पुराना है और मेरी यह व्यंग्य-रचना भी पुरानी है- स्व. श्री संजय गांधी (स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी के पुत्र ) के समय की....लेकिन आज भी लोगों में कहीं-न-कहीं वही सोच काम करती है।                        

डायरी के पन्नों से..."प्यार तुझे सिखला दूंगा"

मानवीय संवेदनाओं से जुड़े हुए रसों में से ही कोई एक रस शब्दों का आकार लेकर कविता को जन्म देता है। मेरी इस रचना ने भी कुछ ऐसे ही जन्म लिया था।             खामोशी में रहने वाले, घुट-घुट आहें भरने वाले, नफरत सबसे करने वाले, प्यार तुझे सिखला दूँगा। क्यों चाह तुझे है नफरत की, कब तूने खुद को जाना है? तू क्या है, तुझमें क्या है, तुझको मैंने पहचाना है होठों पर उल्लास बहुत है. आँखों में विश्वास बहुत है, तेरे दिल में प्यार बहुत ह यह भी मैं दिखला दूँगा।। ‘‘ख़ामोशी में … ‘’ गर थोड़ा सहस तुझमें है, दुनिया जो चाहे कहने दे, पलकों की कोरों से अपनी, यों जीवन-रस ना बहने दे। देख, अभी तुझको जीना है, कभी-कभी विष भी पीना है, दुनिया में फिर भी रहना है, गम तेरे अपना लूँगा।। “ख़ामोशी में … ” तुझसे कब चाहा है मैंने, जीवन का मृदुहास मुझे दे बस यही चाहता मैं तुझसे, तू अपना विश्वास मुझे दे। दिल के ज़ख्मों में पीर भरे, कुछ भाव गहन-गंभीर भरे, आँखों में थोड़ा नीर भरे, मैं खुद को बहला लूँगा।। “ख़ामोशी में … ” *********

डायरी के पन्नों से ... "एक रात..."

जो किशोरवय युवा अभी यौवनावस्था से गुज़र रहे हैं वह इसी काल को जीते हुए और जो इस अवस्था से आगे निकल चुके हैं वह तथा जो बहुत आगे निकल चुके हैं वह भी, कुछ क्षणों के लिए उस काल को जीने का प्रयास करें जिस काल को मैंने इस प्रस्तुत की जा रही कविता में जीया था।…     कक्षा-प्रतिनिधि का चुनाव होने वाला था। रीजनल कॉलेज, अजमेर में प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था मैंने उन दिनों। कक्षा के सहपाठी लड़कों से तो मित्रता (अच्छी पहचान ) लगभग हो चुकी थी, लेकिन लड़कियों से उतना घुलना-मिलना नहीं हो पाया था तब तक। अब चुनाव जीतने के लिए उनके वोट भी तो चाहिए थे, अतः उनकी नज़रों में आने के लिए थोड़ी तुकबंदी कर डाली। दोस्तों के ठहाकों के बीच एक खाली पीरियड में मैंने कक्षा में यह कविता सुना दी। किरण नाम की दो लड़कियों सहित कुल 12 लड़कियां थीं कक्षा में और उन सभी का नाम आप देखेंगे मेरी इस तुकबंदी वाली कविता में (अंडरलाइन वाले शब्द )। ... और मैं चुनाव जीत गया था।