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संदेश

डायरी के पन्नों से ..."जब कभी अकेले में..."

     कहते हैं कि मनुष्य ताउम्र मन से तो युवा ही रहता है (अपवादों को छोड़कर) और यह सही भी प्रतीत होता है, लेकिन मैं अपनी जो कविता यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ वह वास्तव में मेरे द्वारा उस समय लिखी गई थी जब

सिसकता-दहकता प्रजातन्त्र...

      कश्मीर में जल रहे अंगारे अभी शान्त भी नहीं हुए थे कि हरियाणा के पंचकूला व सिरसा सुलग उठे। शासकीय उदासीनता और अकर्मण्यता या यूँ कहिये कि  जानबूझ कर आमन्त्रित की गई अराजकता ने

डायरी के पन्नों से..."तीन मुक्तक"

     मित्रों, मेरी प्रथम दो रचनाएँ सन् 2010 की हैं, जबकि तीसरा मुक्तक मेरी ताज़ातरीन रचना है। मेरी यह प्रस्तुति भी हमेशा की तरह

मृत्यु के वह साढ़े तीन मिनट...और बचाव !

  कई वर्ष पहले की घटना है, मेरे एक परिचित युवक के पिता एक रात लघुशंका-निवारण हेतु वॉशरूम में गए और सुबह तक बाहर नहीं निकले तो परिवार के लोगों ने वॉशरूम के पास जाकर आवाज़ें लगाईं। कोई प्रत्युत्तर नहीं पाकर जब दरवाज़ा तोड़ा गया तो भीतर वह सज्जन निर्जीव पाए गए। कोई कुछ भी नहीं समझ सका कि आखिर हुआ क्या था।   इस घटना के बाद मेरी जानकारी के अनुसार इसी तरह की तीन अन्य घटनाओं में मध्यरात्रि में लघुशंका-निवारण के दौरान या उसके तत्काल बाद व्यक्तियों की मृत्यु हो चुकी है। बाद वाली उपरोक्त तीन घटनाओं में से दो मामलों में भी यही पता चला कि वह लोग नींद से उठते ही वॉशरूम में गए थे तथा वहीं उनकी मृत्यु हो गई।  इसके निदान के लिए पूछताछ करने पर कुछ डॉक्टर्स ने बताया कि नींद से उठने क बाद कम-से-कम साढ़े तीन मिनट रुककर ही वॉशरूम में जायँ तो ऐसे खतरे से रूबरू होने की सम्भावना कम हो जाती है। इसके बावज़ूद यदि आप वॉशरूम में स्वयं को असहज महसूस करें और किसी को मदद के लिये पुकारने में असमर्थ हों तो तत्काल ज़मीन पर सीधे लेट जाएँ और अपने पाँव ऊपर की ओर सीधे ऊँचे कर दें और तब तक इसी अवस्था में रहें जब तक आराम

अब मैं भी क्या कहता...

    मुझे एक समाज-सेवक ने शहर के कारागृह में भेज दिया। उससे पहले उसने कारागृह के जेलर को अच्छी तरह ताक़ीद कर दी थी कि वह मेरे साथ अच्छा व्यवहार करे तथा जेल की व्यवस्था सम्बन्धी सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाए। समाज-सेवक मेरा तो परिचित था ही, जेलर का भी अच्छा मित्र था। मेरी जिज्ञासा के अनुरूप जेलर ने कैदियों की सभी कोठरियाँ दिखाईं। एक कोठरी कुछ बड़ी और साफ-सुथरी थी तथा विशेष सुविधाओं से युक्त थी। इसमें पांच बिस्तर थे, जिनमें से तीन पर तीन कैदी लेटे हुए हंस-हंस कर बतिया रहे थे और सामने ही एक मेज पर रखे टीवी पर चल रहे कार्यक्रम को भी देख रहे थे।     यह नज़ारा देख कौतुहलवश जेलर से पूछा कि इस कोठरी में कैदियों को इतनी सुविधाएँ क्यों मिल रही हैं तो उसने जवाब दिया कि यह कोठरी उसके परिचितों के लिए आरक्षित है। मुझे यह जानकर कुछ हैरानी हुई पर कुछ प्रतिक्रिया दिए बिना ही जेलर को धन्यवाद कह कर लौट आया।     दो दिन बाद वही समाज-सेवक मुझे एक सरकारी अस्पताल में ले गया। वहाँ एक वरिष्ठ डॉक्टर के वॉर्ड में गए तो देखा कि तीन पलंगों के अलावा सभी पलंगों पर रोगी थे और दो रोगी वॉर्ड में फर्श पर लगे बिस्तर पर सोय

डायरी के पन्नों से ..."स्वतंत्रता-दिवस...(?)"

         15 अगस्त का पावन दिवस- हमें अंग्रेजों की दासता से मुक्ति मिल गई सन् 1947 में, हम स्वाधीन हो गए। लेकिन ... लेकिन क्या हम सच में स्वतन्त्र  हैं ?        हम आज भी स्वतन्त्र नहीं हैं, आज भी हमारे कई भाई-बहिन आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में परतन्त्र हैं। आज भी सफ़ेदपोश एक बड़ा तबका आम आदमी का रहनुमा बना हुआ है। देशी अंग्रेजों की हुकूमत आज भी अभावग्रस्त लोगों को त्रस्त कर रही है।       सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले, मेरी कविता के नायक 'मंगू' की वेदना को मैंने कविता लिखते वक़्त महसूसा है, अब...अब आप भी महसूस करना चाहेंगे न इस अहसास को ?         ( मेरी यह कविता पांच वर्ष पूर्व आकाशवाणी, उदयपुर से प्रसारित हुई थी। )                                                              

घर का दरवाज़ा खोलने पर...

       आधा घंटा ऊपर हो गया स्कूल का समय ख़त्म हुए, अभी तक मुन्ना घर नहीं आया....एक घंटे में लौट कर आ जाऊंगा, यह कह कर गया था मुन्ना अपने दोस्त के साथ और डेढ़ घंटा होने को आया, अभी तक नहीं आया लौट कर !.... कुछ आहट आ रही है, शायद वह आ गया- यह सोचकर दरवाज़े तक जाकर वापस निराश और बेचैन, घर के भीतर लौटती माँ और बेतहाशा फ़ोन घनघनाते पापा के मन की उस समय की पीड़ा को जिस संतान ने नहीं जाना हो, नहीं समझा हो, उसका इस धरती पर अवतरित होना क्या किसी भी रूप में सार्थक कहा जा सकता है ?      कल के अख़बार 'राजस्थान पत्रिका' में प्रकाशित एक समाचार के नायक ऋतुराज साहनी की करनी निश्चित ही एक ऐसी ही संतान का ज्वलन्त उदाहरण है। ऋतुराज से उसकी बूढ़ी माँ आशा ने पिछले साल अप्रेल में फोन पर अपने अकेलेपन के चलते 'ओल्ड एज होम' भिजवाने की गुज़ारिश की थी पर न तो उसके बाद वह अमेरिका से यहाँ आया, न उसने फोन पर बात की और न ही माँ की समस्या का समाधान किया।     अब स्वदेश लौटने के बाद घर का दरवाज़ा खोलने पर ऋतुराज को नज़र आया वृद्धा माँ का कंकाल !    पड़ौसी भी इतने संवेदनहीन हो गए हैं, आत्मकेन्द्रित  हो गए हैं