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डायरी के पन्नों से ... "नदी और किनारा"

    मन में गुँथी वैचारिक श्रृंखला ही कभी-कभी शब्दों में ढ़ल कर कविता का रूप ले लेती है- मेरे कॉलेज के दिनों की उपज है यह कविता भी ...सम्भवतः आप में से भी कुछ लोगों ने जीया होगा इन क्षणों को!    (इस कविता में निहित पीड़ा के भाव को समझने के लिए इसका personification समझा जाना वाञ्छनीय है।)

डायरी के पन्नों से ... "उसकी दीपावली"

   कविता की अन्तिम दो पंक्तियों में निहित भाव के लिए समस्त कवि-बन्धुओं से (आखिर हर कवि तो व्यवसाय-निपुण हो नहीं सकता)  क्षमायाचना के साथ प्रस्तुत है मेरी एक और अध्ययनकालीन रचना -             "उसकी दीपावली" आज  घरों  में  दीप  सजे थे, वैभव भी झलका पड़ता था। अमा-निशा  थी बनी सुन्दरी, यौवन भी छलका पड़ता था। कोई  ठहाके  लगा रहे  थे, बेकाबू  हो  कर  मनमाने। लिये  हुए  थे  कुछ बेचारे, होठों पर नकली मुस्कानें। यही देखता  इधर-उधर मैं, एक राह से गुज़र रहा था। कोट गरम पहने था फिर भी, सर्दी से कुछ सिहर रहा था। युवती  एक  चली आती थी, देखा  मैंने  पीछे  मुड़ कर। रुक-रुक कर चलता था उसका बच्चा उंगली एक पकड़ कर। अस्त-व्यस्त कपड़े थे उसके, पैबन्दों  से  सजे  हुए  थे। सीने में थी  विषम वेदना, अरमां उसके जले हुए थे। एक नज़र में उसे देख कर, आँखें  कुछ ऐसा कहती थीं। औरत थी कुछ अच्छे घर की, नहीं भिखारिन वह लगती थी। दो...

कल फिर बलात्कार हुआ...

       कल ही की तो बात है। कल प्रातः मैं अपने घर के अहाते में बैठा चाय की सिप लेता हुआ अखबार की ख़बरें टटोल रहा था कि अचानक वह हादसा हो गया।           एक तीखी चुभन मैंने अपने पाँव के टखने पर महसूस की। देखने पर मैंने पाया कि एक डरावना, मटमैला काला मच्छर मेरे पाँव की चमड़ी में अपना डंक गड़ाए बैठा था। मेरी इच्छा और सहमति के बिना हो रहे इस बलात्कार को देखकर मेरा खून खौल उठा और मैंने निशाना साधकर उस पर अपने दायें हाथ के पंजे से प्रहार कर दिया। बचकर उड़ने का प्रयास करने के बावज़ूद वह बच नहीं सका और घायल हो कर नीचे गिर पड़ा।          इस घटनाक्रम के दौरान दूसरे हाथ में पकड़े चाय के  कप से कुछ बूँदें अखबार के पृष्ठ पर गिरीं। आम वक्त होता तो  उन अदद अमृत-बूंदों के व्यर्थ नष्ट होने का शोक मनाता, लेकिन उस समय मेरे लिए अधिक महत्वपूर्ण था धरती पर गिरे उस आततायी को पकड़ना। मैंने चाय का कप टेबल पर रखकर उस घायल दुष्ट को पकड़ कर उठाया और बाएं हाथ की हथेली पर रखा। मेरी निगाहों में उसके प्रति घृणा और क्रोध था पर फिर भी ...

डायरी के पन्नों से... 'कविता मैं कैसे लिखूँ ?'

   सन् 2012 में दामिनी (निर्भया) का बस में बलात्कार और फिर निर्मम हत्या, सन् 2017 में मासूम प्रद्युम्न की विद्या के मंदिर (विद्यालय ) में क्रूरतापूर्ण हत्या, सन् 2019 में डॉ. प्रियंका (हैदराबाद) के साथ हुआ हादसा, धर्मांध भोले-भाले लोगों को अपने जाल में फँसा कर व्यभिचार का नंगा तांडव करने वाले भ्रष्ट बाबा...और ऐसे सभी दुराचारों के प्रति धृतराष्ट्रीय नज़रिया रखने वाले, अपने राजनैतिक स्वार्थ के चलते इन्हें पोषित करने वाले, राजनेताओं को जब मैं देखता हूँ तो मन व्याकुल होकर पूछता है- 'जिसे देवभूमि कहा जाता था, क्या यही राम और कृष्ण की वह धरती है?'     ...इन सबसे प्रेरित हैं मेरे यह उद्गार... 'कविता मैं कैसे लिखूं?'         दामिनी  की चीख अभी  भी, गूँजती  हवाओं  में,   प्रद्युम्न  की मासूम  तड़पन, कौंधती  निगाहों में,  नींद में  कुछ  चैन पाऊं, वो  ख़्वाब नहीं  मिलते,  कविता  मैं  कैसे  लिखूँ , अलफ़ाज़ नहीं  मिलते।   डॉक्टर को अपवित्र किया,जला दिया हैवानो...

डायरी के पन्नों से ..."पांच सूत्री कार्यक्रम"

     विषय भी पुराना है, सन्दर्भ भी पुराना है और मेरी यह व्यंग्य-रचना भी पुरानी है- स्व. श्री संजय गांधी (स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी के पुत्र ) के समय की....लेकिन आज भी लोगों में कहीं-न-कहीं वही सोच काम करती है।                        

डायरी के पन्नों से..."प्यार तुझे सिखला दूंगा"

मानवीय संवेदनाओं से जुड़े हुए रसों में से ही कोई एक रस शब्दों का आकार लेकर कविता को जन्म देता है। मेरी युवावस्था में इस रचना ने भी कुछ ऐसे ही जन्म लिया था।                 ख़ामोशी   में    रहने  वाले, घुट-घुट  आहें  भरने  वाले, नफ़रत  सबसे  करने वाले, प्यार  तुझे   सिखला  दूँगा। क्यों चाह तुझे है नफ़रत की, कब तूने  खुद को जाना है? तू  क्या  है,  तुझमें  क्या  है, तुझको   मैंने   पहचाना  है।  होठों  पर उल्लास  बहुत है, आँखों  में  विश्वास  बहुत  है, तेरे  दिल  में  प्यार बहुत है, यह   भी   मैं  दिखला दूँगा।                           ‘‘ख़ामोशी में … ‘’ गर  थोड़ा साहस  तुझमें है, दुनिया  जो चाहे  कहने दे, पलकों की कोरों से अपनी, यों जीवन-...

डायरी के पन्नों से ... "एक रात..."

जो युवा अभी यौवनावस्था से गुज़र रहे हैं, जो इस अवस्था से आगे निकल चुके हैं तथा जो बहुत आगे निकल चुके हैं वह भी, कुछ क्षणों के लिए उस काल को जीने का प्रयास करें जिस काल को मैंने इस प्रस्तुत की जा रही कविता में जीया था।... कक्षा-प्रतिनिधि का चुनाव होने वाला था। रीजनल कॉलेज, अजमेर में प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था मैंने उन दिनों। कक्षा के सहपाठी लड़कों से तो मित्रता (अच्छी पहचान) लगभग हो चुकी थी, लेकिन सभी लड़कियों से उतना घुलना-मिलना नहीं हो पाया था तब तक। अब चुनाव जीतने के लिए उनके वोट भी तो चाहिए थे, अतः उनकी नज़रों में आने के लिए थोड़ी तुकबंदी कर डाली। दोस्तों के ठहाकों के बीच एक खाली पीरियड में मैंने कक्षा में अपनी यह कविता सुनाई। किरण नाम की दो लड़कियों सहित कुल 12 लड़कियां थीं कक्षा में। उन सभी का नाम (गहरे अंकित शब्द) आप देखेंगे मेरी इस तुकबंदी वाली कविता में। ... और मैं चुनाव जीत गया था ।                 'एक रात...' मैं पर्वत की एक शिला पर, कुछ बैठा, कुछ सोया था। अब कैसे तुमको बतलाऊँ, किन सपनों में खोया था ? नीलगगन पर चमकी  अलका , बन...