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डायरी के पन्नों से ..."पांच सूत्री कार्यक्रम"

     विषय भी पुराना है, सन्दर्भ भी पुराना है और मेरी यह व्यंग्य-रचना भी पुरानी है- स्व. श्री संजय गांधी (स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी के पुत्र ) के समय की....लेकिन आज भी लोगों में कहीं-न-कहीं वही सोच काम करती है।                        

डायरी के पन्नों से..."प्यार तुझे सिखला दूंगा"

मानवीय संवेदनाओं से जुड़े हुए रसों में से ही कोई एक रस शब्दों का आकार लेकर कविता को जन्म देता है। मेरी युवावस्था में इस रचना ने भी कुछ ऐसे ही जन्म लिया था।                 ख़ामोशी   में    रहने  वाले, घुट-घुट  आहें  भरने  वाले, नफ़रत  सबसे  करने वाले, प्यार  तुझे   सिखला  दूँगा। क्यों चाह तुझे है नफ़रत की, कब तूने  खुद को जाना है? तू  क्या  है,  तुझमें  क्या  है, तुझको   मैंने   पहचाना  है।  होठों  पर उल्लास  बहुत है, आँखों  में  विश्वास  बहुत  है, तेरे  दिल  में  प्यार बहुत है, यह   भी   मैं  दिखला दूँगा।                           ‘‘ख़ामोशी में … ‘’ गर  थोड़ा साहस  तुझमें है, दुनिया  जो चाहे  कहने दे, पलकों की कोरों से अपनी, यों जीवन-...

डायरी के पन्नों से ... "एक रात..."

जो युवा अभी यौवनावस्था से गुज़र रहे हैं, जो इस अवस्था से आगे निकल चुके हैं तथा जो बहुत आगे निकल चुके हैं वह भी, कुछ क्षणों के लिए उस काल को जीने का प्रयास करें जिस काल को मैंने इस प्रस्तुत की जा रही कविता में जीया था।... कक्षा-प्रतिनिधि का चुनाव होने वाला था। रीजनल कॉलेज, अजमेर में प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था मैंने उन दिनों। कक्षा के सहपाठी लड़कों से तो मित्रता (अच्छी पहचान) लगभग हो चुकी थी, लेकिन सभी लड़कियों से उतना घुलना-मिलना नहीं हो पाया था तब तक। अब चुनाव जीतने के लिए उनके वोट भी तो चाहिए थे, अतः उनकी नज़रों में आने के लिए थोड़ी तुकबंदी कर डाली। दोस्तों के ठहाकों के बीच एक खाली पीरियड में मैंने कक्षा में अपनी यह कविता सुनाई। किरण नाम की दो लड़कियों सहित कुल 12 लड़कियां थीं कक्षा में। उन सभी का नाम (गहरे अंकित शब्द) आप देखेंगे मेरी इस तुकबंदी वाली कविता में। ... और मैं चुनाव जीत गया था ।                 'एक रात...' मैं पर्वत की एक शिला पर, कुछ बैठा, कुछ सोया था। अब कैसे तुमको बतलाऊँ, किन सपनों में खोया था ? नीलगगन पर चमकी  अलका , बन...

डायरी के पन्नों से ... "महक उठेगा ज़र्रा-ज़र्रा"

    मेरा अध्ययन-काल मेरी कविताओं का स्वर्णिम काल था। मेरी उस समय की रचनाओं में से ही एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ -  "महक उठेगा ज़र्रा-ज़र्रा..."

फिर अवसर नहीं मिलने वाला...

     कठिन परिश्रम और लम्बी प्रतीक्षा के बाद यदि कोई अवसर मिलता है तो समय से उसका पूरा-पूरा सदुपयोग कर लेना ही बुद्धिमानी है। इस सत्य को हर समझदार व्यक्ति जानता है पर सफलता के अहंकारवश अधिकांश व्यक्ति राह से भटक जाते हैं। सफलता की राह में बाधा बनकर कई विपरीत परिस्थितियां आती हैं लेकिन उन पर विजय प्राप्त कर अपनी राह पर निरन्तर आगे बढ़ने वाला सक्षम व्यक्ति ही इतिहास बनाता है।        हमारे समक्ष दो ऐसी हस्तियाँ हैं जिन्होंने राजनीति में चमत्कार कर दिखाया है। मैं बात कर रहा हूँ

डायरी के पन्नों से... "भीगे नयन निहार रहे हैं..."

          "भीगे नयन निहार रहे हैं"- मेरे ही द्वारा चयनित यह शीर्षक था कविता प्रतियोगिता के लिए, जब महाराजा कॉलेज, जयपुर में प्रथम वर्ष में अध्ययन के दौरान मैंने राज्यस्तरीय अंतर्महाविद्यालयीय  कविता-प्रतियोगिता आयोजित करवाई थी। मैं उस वर्ष कॉलेज की साहित्यिक परिषद 'साहित्य-समाज' का सचिव था। राज्य के कुछ स्थापित विद्यार्थी कवियों ने भी  उस प्रतियोगिता में भाग लिया था। मैंने भी इस शीर्षक पर लिखी कविता में विरह-तप्त नायिका के उद्गारों को शब्दों में ढाला था, लेकिन समयाभाव के कारण कविता में मात्रा-विधान को सम्मान नहीं दे पाया था। निर्णायकों द्वारा मेरी कविता सराही तो गई थी, लेकिन पुरस्कार नहीं पा सकी थी। एक पी. जी. कॉलेज के उस समय के ख़्यात विद्यार्थी-कवि 'मणि मधुकर' ने प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था।          मेरे उपनाम (तख़ल्लुस ) 'हृदयेश' (अन्य कवियों की तरह उपनाम लगाने का शौक मुझे भी चढ़ा था उन दिनों) के साथ लिखी गई वह कविता - ' भीगे नयन निहार रहे हैं '   ...

मुझे मोक्ष नहीं चाहिए

              मोक्ष की अवधारणा कल्पना मात्र  है या वास्तविकता पर आधारित- यह विवाद का विषय तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि विवाद की सार्थकता तभी होती है जब सत्य तक पहुंचा जा सके। यद्यपि पौराणिक ग्रंथों और अन्य धर्म-शास्त्रों में इसका उल्लेख  है और इसका महात्म्य भी बताया गया है, लेकिन इसकी प्रामाणिकता इसलिए संभव नहीं हो सकी है क्योंकि यह विषय ही परालौकिक है।         ईश्वर है या नहीं है, इसका उत्तर