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क्या आपको अपने बच्चों से शिकायत है?

      भाग्यशाली होते हैं वह लोग, जिनके बच्चे (बेटा/बिटिया) उन्हें बहुत प्यार करते हैं।.....लेकिन मेरा यह उद्बोधन उन लोगों के लिए है जिन्हें यह शिकायत रहती है कि उनके बच्चे उन्हें प्यार नहीं करते, उनका ख़याल नहीं रखते। कई बार तो उनको प्यार न पाने से अधिक शिकायत इस बात की होती है कि उनकी अपेक्षा के अनुरूप उनका  ख़याल नहीं रखा जाता है।     बच्चों से प्यार पाने की मानसिक आवश्यकता तो समझ में आती है, लेकिन समग्र रूप से वैसा ही प्यार उन्हें आजीवन मिलता रहे जैसा उन्होंने उनसे तब पाया था जब वह कम उम्र के थे, तो ऐसी अपेक्षा वांछनीय नहीं हो सकती। मेरा यह कथन पुत्र हो या पुत्री, दोनों के सन्दर्भ में है।    बच्चे की किशोरावस्था से पहले उसका संसार अधिकांश रूप से घर में ही केन्द्रित रहता है। किशोरावस्था से प्रारंभ होकर युवावस्था तक की वय में उसका एक और संसार बन जाता है- उसके दोस्तों का। युवावस्था की दहलीज में पाँव रखने के कुछ ही समय में उसका विवाह हो जाता है तब उसका एक और नया संसार निर्मित होता है। इन सब संसारों के अलावा चाहे-अनचाहे एक और संसार भी उसके अस्तित

मैंने भी उसके गाल को सहलाया था...

    कल अनायास ही मित्र अल्ताफ से 'नेशनल ग्लोरी मॉल' में मुलाकात हो गई। जनाब का मुँह इस तरह लटका हुआ था जैसे अभी-अभी कहीं से पिट कर आये हों।      पूछने पर अल्ताफ मियां ने एक लम्बी सांस लेकर कैफ़ियत इस प्रकार दी - 'अमां यार क्या बताऊँ, एक छोटी-सी भूल का खामियाजा इस कदर उठाना पड़ा कि बेगम साहिबा के लिए एक अदद हीरे की अंगूठी कीमतन चालीस हज़ार रुपया कहीं से कर्ज लेकर खरीदनी पड़ी है। आज अलसुबह ही बेगम मोहतरमा ने आगाह किया कि यदि  एक कीमती हीरे की अंगूठी ख़रीद कर उन्हें नज़र नहीं की तो वह मेरे खिलाफ 'मी टू (Me too)' के तहत अखबार में ख़बर निकलवा के मुझे रुसवा करवा देंगी।'     'पर भला ऐसी क्या खता हो गई आपसे?'- मैंने उत्सुकतावश पूछा।    'अरे यार, आपकी भाभीजान ने मुझे याद दिलाया कि मैंने 15 साल पहले उनके साथ  घर के पिछवाड़े में छेड़छाड़ कर दी थी। मैंने उनसे कहा कि अरे तुम तो मेरी बेगम हो फिर भला क्या गुनाह हो गया, तो आंखे तरेर कर वह बोलीं कि मियां निकाह हुये तो 14 बरस हुए हैं, उस समय तो मैं ग़ैरशादीशुदा थी। अब खैरियत चाहते हो तो अंगूठी खरीद लाओ मेरे लिए, वर्ना

मैंने उसके बदन पर हाथ रखा! (प्रहसन)

    रास्ता कुछ ज्यादा ही तंग था। मैं अपना दृष्टि सुधारक यंत्र (चश्मा) घर पर भूल गया था और ऊपर से रात का अँधेरा गहरा आया था। स्कूटर की हैडलाइट ने भी अभी पांच मिनट पहले ही नमस्ते कर दी थी। नगर निगम इस इलाके में ब्लेक-आउट जैसी स्थिति रखता है सो बिजली की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। ऐसे में राह में आगे क्या-कुछ है, जानना बहुत सहज नहीं था....सो मंथर गति से चल रहा मेरा स्कूटर संभवतः किसी के शरीर से हलके से छू गया। घबराहट के मारे मेरे कान सतर्क हो गये कि अब कुछ न कुछ मेरे पुरखों का गुणगान होगा। लेकिन ऐसा कुछ न हुआ, शायद स्कूटर उसे न ही छुआ हो, मैंने सोचा।      अब भी स्कूटर को मैं धीरे-धीरे ही आगे बढ़ा रहा था क्योंकि वह बंदा, जो कोई भी था, जगह देने का नाम ही नहीं ले रहा था। अब मैं थोड़ा और सतर्क हो गया। अवश्य ही यह सिरफिरा, मगरूर शख्स, सत्ता-पक्ष या विपक्ष के किसी दबंग नेता का मुँहलगा प्यादा होगा और इसीलिए 'हम चौड़े, सड़क पतली' वाले अहसास के चलते इस अंदाज़ में बेफिक्र चल रहा था। गुस्सा तो ऐसा आ रहा था कि चढ़ा दूँ स्कूटर उसके ऊपर, किन्तु ऐसा करने का कलेजा कहाँ से लाता!       'साहब मेहरबान तो

अधकचरा कानून !

    अंग्रेजों के समय का बना हुआ हमारा कानून आज पंगु प्रमाणित हो रहा है। समय की मांग है कि इसमें उचित संशोधन किये जाएँ। शासन-तंत्र की दुर्बलता और अयोग्यता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी की सज़ा भी क्रियान्वित नहीं की जा सकी।     कई मामलों में झूठी गवाहियों ने कहीं तो दोषियों को मुक्त करवा दिया तो कई बार निर्दोषों को कारावास की कोठड़ी में सड़ने के लिए विवश किया है।   सोहराबुद्दीन एनकाउन्टर के मामले को ही देखें हम। इस मामले में दिनेश एम. एन. (S.P.) जैसा निर्विवाद ईमानदार पुलिस अफसर अभी तक जेल में बंद है। आरोपित अफसर निरपराध हैं या अपराधी, यह तो न्यायलय ही बतायेगा, लेकिन यदि उस एनकाउंटर को फर्जी ठहराया जाता है तो भी ऐसे एनकाउंटर को अपराध क्यों माना जाये ? जैसा भी यह कानून है, मैं इससे इत्तेफ़ाक नहीं रखता। यदि वह दुर्दान्त अपराधी बच निकलता तो न जाने कितने घर और तबाह करता और ज़िंदा पकड़ा भी जाता तो क्या गेरेंटी थी कि हमारा अधकचरा कानून उसे सज़ा दे ही पाता। सज़ा मिल भी जाती तो वह भीतर रह कर भी अपनी गैंग को कमांड करता रहता और फिर क्

कहाँ है राजनीति में शुचिता ?

  धर्म-निरपेक्षता को सभी राजनैतिक दल अपने-अपने ढंग से परिभाषित करते रहे हैं। आज कोई भी दल ऐसा नहीं है जो धर्म और जाति के उन्माद को अपनी सफलता की सीढ़ी बनाने से परहेज रखता हो, तिस पर दावा प्रत्येक के द्वारा यही किया जाता है कि एक मात्र वही दल धर्म-निरपेक्षता का हिमायती है। इनके स्वार्थ की वेदी पर धर्म, सत्य और विश्वास,यहाँ तक कि मानवता की भी  बलि चढ़ा दी गई है। कुछ जिम्मेदार किस्म का  मीडिया, देश-समाज के प्रबुद्ध-जन और सुलझे हुए चंद राजनीतिज्ञ कितना ही क्यों न धिक्कारें, वर्त्तमान निर्लज्ज राजनेताओं के कानों पर जूं नहीं रेंगती।  अभी हाल ही श्रीमती सोनिया गांधी ने मुस्लिम धार्मिक नेता बुखारी से संपर्क कर मुस्लिम समुदाय का समर्थन कॉन्ग्रेस के पक्ष में चाहा। क्या कॉन्ग्रेस का हिन्दू मतदाता इस कारण कॉन्ग्रेस से विमुख नहीं होगा ? इसी तरह जब बीजेपी हिंदुओं के ध्रुवीकरण की दिशा में काम करती है तो क्या मुस्लिम मतदाता उससे विमुख नहीं होगा ? यह कैसी राजनीति है जिसमे दोनों सम्प्रदायों के मध्य खाई खोदने का काम दोनों हो दलों के नेता निरंतर किये जा रहे हैं। इसका कैसा भयावह परिणाम होगा, इसका क्य

पथ-विचलन …

    भारतीय राजनीति के पुरोधा, पक्ष और विपक्ष में समान रूप से सम्माननीय युग-पुरुष, कवि-ह्रदय वयोवृद्ध अटल बिहारी बाजपेयी आज शरीर के साथ ही राजनैतिक रूप से भी शक्तिविहीन हो गये हैं और यह बात वह बीजेपी अच्छी तरह से जान रही है जिसके प्राण कभी बाजपेयी जी की सांसों में ही बसते थे। यही तो कारण है  कि अब केवल अडवाणी और खंडूरी जी ही उनकी सुध लेने के लिए जाते हैं, जबकि बाजपेयी जी की कदमबोसी कर अपना भविष्य सँवारने वाले नेता अब अपना भविष्य कहीं और तलाश रहे हैं। परिवर्तन तो समय के साथ युगों-युगों से होता आया है पर बाजपेयी जैसे व्यक्तित्व को हाशिये पर डाल कर विस्मृत कर दिया जाना अनैतिकता ही नहीं, अमानवीयता की श्रेणी में भी आता है। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और बाजपेयी के आदर्शों को भूली, पथ्य-अपथ्य के विवेक को खो चुके रोगी वाली मानसिक स्थिति पा चुकी, बीजेपी के इस प्रकार के नवीनीकरण की कल्पना तो किसी ने भी नहीं की होगी……